Friday, August 31, 2007

अपुन का टाइमटेबल



हर रोज एक तरह की जिंदगी, क्‍या इससे ऊब गया हूं मैं
सोचकर अब आप ही बताओ कि ऐसे में अब क्‍या करू मैं

रोज वहीं चार बजे सोना जब लोग उठने की तैयारी में हों
नींद जब परवान पर हो तो रूममेट जाने की तैयारी में हों

जब नींद पूरी खुले तो चिंता सताए कि क्‍या छूटी खबरें
क्‍या क्‍या रही गलतियां, कौन कहां किस खबर में रहा भारी

इतने पर भूख सताए तो वही बात कि कहां क्‍या खाया जाए
इससे ऊबरो तो फिर कि अब आज के पांच कैसे बजाए जाएं

अकेले मोबाइल एसएमएस और इंटरनेट पर झूझते रहो
कुछ पढो, कुछ पढकर अकेले ही चिंति‍त होते रहो

तभी ख्‍याल आए कि यार छह बजने में थोडी ही देर है
कपडे कौन से पहनूं, कम गंदे कौनसे है, यार एक राउंड और

तैयार हो गए तो कभी आईकार्ड लापता तो कभी बाइक की चाबी
आफिस पहुंचते ही वही भागदौड कि फोन भी आए तो कहूं बाद में करना

काम खत्‍म हुआ अब दिनभर से मुक्‍त हुआ तो बारह बज गए
कुछ गपशप का मूड बनाया तो साथियों को घर जाने की जल्‍दी

इतने में श्‍यामजी चिल्‍ला दिए, एक के चक्‍कर में सब लेट होते हैं
कल से इसे यहीं छोड जाएंगे, पर पता नहीं आजत‍क मैं अकेले क्‍यूं नहीं आया

घर पहुंचकर मोबाइल पर चार रिग दी, बडी मुश्किल से गेट खुलवाया
अंदर पहुंचा तो गेट खोलने वाला छोटाभाई भी चित्‍त हो चुका है

अपन फिर भी नेट पर विराज गए हैं, सोच ही रहा था कि क्‍या करू
आज ज्‍यादा सोच लिया तो नतीजे निकाला कि क्‍या यही जिंदगी है तुमसे पूछूं

Tuesday, August 28, 2007

आगरा में पता चली राज की बात



26 अगस्‍त को मैं ग्‍वालियर से जयपुर लौट रहा था। टेन आगरा फोर्ट स्‍टेशन पर करीब 45 मिनट रुकती हैं। मोबाइल की बैटरी डिस्चार्ज थी तो सोचा टाइम का सदुपयोग कर लिया जाए। प्रथम श्रेणी वेटिंग रूम में चार्जर पर फोन लगाकर मै उसके गेट पर खडे होकर टाइमपास कर रहा था कि एक आम आदमी से एक राज की बात पता चली जिस पर मैंने 27 साल में कभी विचार ही नहीं किया।


क्‍या पता आपका आगरा जाना कब हो मैं ही इस राज से रूबरू करा देता हूं।


हुआ यूं कि एक युवक आया और गेट के पास ही पेठा बेच रहे दुकानदार से पूछा कि भाईसाहब इंटरसिटी में जनरल डिब्‍बा कहां होगा। बस आदत के मारे एक भाईसाहब बीच में ही टपक लिए। दनादन बोले एक बात समझ लो हमेशा टेन में जनरल डिब्‍बा एक आगे और एक पीछे ही होता है, भले ही टेन कोई सी भी क्‍यों न हो। और ये भी सुन लो कि क्‍यों होते हैं, खैर सामान लादे वो भाई साहब तो निकल लिए इतना सुनते ही लेकिन मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ ही लिया भाई साहब इतनी बडी बात है अब श्रीमुख तक आ ही गई है तो फरमा ही दीजिए।

बस इतना कहना था कि भाई तो और ऊपर चढ गए डिटेल से समझाने लगे बोले, कल को कोई गडबड हो जाए तो आगे और पीछे मरेंगे तो जनरल कोच वाले ही और आपको तो पता ही होगा कि न तो जनरल में सारे लोग टिकट लेकर चढते हैं और न ही उनके नाम पते होते हैं। मर भी गए तो डेडबॉडी भी नहीं ढूंढनी होगी। बस जितने मिले उतने ही घोषित करके काम खत्‍म। मान लो पहला डिब्‍बा एसी हो और एक्सिडेंट हो जाए तो मिस्‍टर सो एंड सो की डेडबॉडी तो खोजनी ही पडेगी अब जनरल में रामपाल मिले या धनपाल, काउंटिग ही तो करनी है।


बस इतना सुनकर मैंने उनके अद़भुत रेलवे ज्ञान को नमस्‍कार किया और सोचा कि वाह यार कारण जो भी रहा हो, किसी न किसी डिब्‍बे को तो आगे पीछे लगना ही था, चाहे एसी हो या जनरल। पर जो व्‍याख्‍या की उसे नकारा भी नहीं जा सकता, क्‍यूं क्‍या ख्‍याल है आपका।

Friday, August 17, 2007

मां




हर पल में खुशी देती है मां
लाख बुरे हो हम, अपनी जिंदगी से जीवन देती है मां
भगवान क्‍या है, मां को प्रणाम करो
अरे भगवान को भी तो जनम देती है मां