Friday, March 28, 2008

अगर एयरपोर्ट ऐसे हैं तो बस स्‍टैंड क्‍या बुरे थे


आपकी दया से अपन अभी तक कभी प्‍लेन में नहीं बैठे। अपन का कोई सगा संबधी भी विदेश में नहीं रहता। हां एक दो दूर के मित्र हैं, जब से गए हैं तब से वो देश में लौटे ही नहीं। इसलिए कभी उनको लेने जा नहीं पाया। इसलिए अपन ने एयरपोर्ट बाहर से ही देखा। कभी अंदर घुसे भी नहीं।
पर अपन को आजकल बस स्‍टैंड से ज्‍यादा एयरपोर्ट की चिंता रहती है। बस और रेलगाडी की स्थिति तो सारी दुनिया को पता थी पर एयरपोर्ट की हकीकत का पता चला तो इज्‍जत पर बन आएगी। उसमें भी कम से कम ऐसे हादसे तो बस शर्तमुर्ग की तरह सिर रेत में घुसाना होगा। अब ये कल की ही बात है इंडियन सिलिकॉन वैली बेंगलूरु में किंगफिशर कंपनी का प्‍लेन हैदराबाद के लिए उड़ान भर रहा था। सामने रन-वे पर एक डॉगजी आ गए। विमान उडता इससे पहले ही कुत्‍ते से टकरा गया। विमान को मामूली चोट आई और दो या‍त्री घायल हो गए। मैंने जहां से खबर पढी वहां डॉगजी की तबीयत का कोई समाचार नहीं है। अगर कोई बेंगलूरु में संपर्क साध सकता है तो प्‍लीज उनका भी हाल पता करना।
खैर ये तो हुआ समाचार विश्‍लेषण टाइप का
अपने जयपुर एयरपोर्ट की हालत भी सिंधीकैंप बस स्‍टैंड से बहुत अच्‍छी नहीं है। अभी भास्‍कर जयपुर में छपी एक खबर में बताया कि कैसे दिन से रात तक एयरपोर्ट का हाल रहता है। इसमें साफ फोटो सहित बताया गया था कि रात में खाडी की फ़लाइट होती है। उनको बडी संख्‍या में लेने और छोडने वाले एयरपोर्ट परिसर में ही सोते हैं और सुबह करीब चार बजे चाय गर्म चाय की आवाजों के साथ लोगों को वहां से हटाकर एयरपोर्ट को एयरपोर्ट जैसा बनाने की कोशिश होती है।
अपन के मित्र और डीआरडीओ में साइंटिस्‍ट गौरव काम के सिलसिले में अक्‍सर हैदराबाद जाते हैं। उसका कहना है कि हैदराबाद का एयरपोर्ट की स्थिति कमोबेश बस स्‍टैंड जैसी है। टॉयलेट में तो यूरिनल्‍स की हालत इतनी खराब होती है कि सूसू तक नहीं निकलता।
अब बीडी के धंधे करने वाले खानदानी बिजनेसमैन अपन के प्रफुल पटेल भाई ने एयरपोर्टों को निजी हाथों में देने की तैयारी की तो क्‍या बुरा किया। जबरन हो हल्‍ला मचाया जा रहा है।
इंडियन एयरलाइंस की बूढी एयरहोस्‍टेस अब सुरेंद्र शर्मा के चुटकुलों की शोभा बढा रही हैं, शायद अगले कवि सम्‍मेलन में जाएं तो नामुराद कुत्‍ता भी जगह पा जाएगा।
आप भी कुछ समझ रहे हैं तो मुझे जरूर बताइयेगा
( फुट नोट– अपन किसी भी कंपनी से एयर टिकट नहीं चाहते, बस आप लोगों का ध्‍यान इस और पडे यही खूब। समीरलालजी की तरह विदेश में रहने वाले ब्‍लॉग मित्रों से क्षमा चाहता हूं कि उनके रहते हमने यह लिख दिया कि हमारा विदेश में कोई नहीं है। )

हर लिहाज से बेहतर थी जोधा अकबर

रिलीज के महीनों बाद जोधा अकबर देखी। अब आप कहेंगे कौनसा तीर मार लिया। जनाब अगर राजस्‍थान में रिलीज होती तो शायद हम पहले रविवार तक ही इसे देख लेते पर क्‍या करें। प्रदर्शनकारियों की वजह से मैं तो क्‍या पूरा राजस्‍थान यह फिल्‍म नहीं देख पाया।
अब पायरेटेड वीसीडी से मैंने यह फिल्‍म देखी,पायरेसी गलत है पर क्‍या करें पता नहीं कितने साल बाद राजस्‍थान में रिलीज होती और पता नहीं इसकी ओरिजनल सीडी कब तक आएगी।

विवादों को किनारें कर दें, तो फिल्‍म बहुत ही खूबसूरत है, और यूं कहिए कि अब तक बनी एतिहासिक फिल्‍मों की सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍मों में से एक है।
जश्‍न ए बहार गाना बेहद खूबसूरत और कर्णप्रिय है। आप भी लीजिए मजा।

फिल्‍म में बेवजह की भव्‍यता नहीं दिखाई गई है। युद़ध के सीन बेहद अच्‍छे और राजा का कारवां सचमुच इतना लंबा है कि हम सोच सकते हैं कि उसे फिल्‍माने में कितनी मेहनत करनी पडी होगी।
केपी सक्‍सेना के डायलॉग चुस्‍त दुरुस्‍त हैं, एआर रहमान का म्‍यूजिक जबरदस्‍त है, अजीमो शान शहशाह के साथ जो ढोल सुनाई देते हैं, वही मुगल सलतनत होने का अहसास करा देते हैं। वैसे मैं भजन नहीं सुनता पर जोधा अकबर का भजन छोड के अपनी मथुरा काशी दिल को छूने वाला है।
रितिक और ऐश ने बहुत अच्‍छी तरह अकबर और जोधा के करेक्‍टर को जिया है। संवाद अदायगी भी अच्‍छी है। अकबर के रोल में पृथ्‍वीराज कपूर की छवि को तोड एक पतले दुबले अकबर ने उनकी कमी महसूस नहीं होने दी।
फिल्‍म थोडी लंबी जरूर थी, पर कहीं भी बोर नहीं करती। ढूंढाढ जैसा शब्‍द और कई राजस्‍थानी परंपराएं दिखाई देती है। भले वह दुल्‍हन के घर में प्रवेश के समय छाप लगाना हो,या राजपूती परंपरा में जंवाई का पहली बार लेने आने पर अपनी पत्‍नी को पहचानने की रस्‍म भी दिखाई गई।
बस आमेर के किले से फिल्‍माते समय आशुतोष गोवारीकर साहब की नजर शायद एक बार चूक गई और छतरी के साथ शायद मोबाइल का टावर दिखाई दे गया।

आमेर महल और सिटी पैलेस को बेहद खूबसूरती से फिल्‍माया गया है।
फिल्‍म के सेट पर पैसा खर्च किया गया है, पर संजय लीला भंसाली की तरह बेवजह नहीं, गोवारीकर साहब ने उतना ही खर्चा जिसकी जरूरत थी। भव्‍यता के चक्‍कर में वो हकीकत से दूर नहीं हुए।
और अंत में दर्शकों को अमिताभ का प्रेम बांटने का संदेश। शायद यह टोटका है अमिताभ की खुद की फिल्‍म भले ही फलाप हो जाए पर उनकी आवाज का इस्‍तेमाल जिस भी फिल्‍म में किया जाता है, फिल्‍म चल निकलती है।
आमीन
एक आग्रह गोवारीकर साहब और यूटीवी से
भई अब तो इसकी ओरीजनल डीवीडी रिलीज कर दीजिए ताकी जो लोग अभी तक जोधा अकबर नहीं देख पाए, असानी से देख सकें।

Thursday, March 27, 2008

जापानी कंपनी भी क्रिकेट की प्रायोजक

अमर उजाला में अपने पुराने साथी जसविंदर सिद़धू ने चेन्‍नई से एक एक्‍सलूसिव रिपोर्ट लिखी। उनके हिसाब से जापानी कंपनी ने अपने अधिकारियों की टीम को नवंबर में भारत भेजकर यह जानना चाहा है कि आखिर क्रिकेट क्‍या बला है। उस समय भारत पाक सीरीज चल रही थी।
दिल्‍ली आकर अबि हीरोयुकी ने देखा कि भारतीय क्रिकेट के पीछे किस कदर दीवाने हैं। हीरोयुकी हैरान थे कि क्रिकेट मैच के दौरान एक संवाददाता सम्‍मेलन में साठ कैमरे और तीन सौ पत्रकार। उनके इस घटना के चार महीने बाद कंपनी ने बीसीसीआई के साथ करोडों का करार किया। यानी जो कंपनी निकोन क्रिकेट के बारे में समझती तक नहीं। सिर्फ नाम ही सुना वह क्रिकेट के प्रायोजन पर करोडों का दांव खेल रही है। कंपनी की अब एक टीम दक्षिण अफ्रीका के साथ सीरिज में क्रिकेट के गुर सीख रही है।
यानी यह तो सिर्फ आगाज है, अभी ऐसी बहुत सी कंपनियां आएंगी, जिनके खुद अपने देश में क्रिकेट का नामोंनिशां नहीं है।

Wednesday, March 26, 2008

रेस - अंत तक पता नहीं चलता कि कौन किसके साथ


रेस एक ऐसी फिल्‍म है, जिसकी कहानी पल-पल बदलती है। आप बाकी हिंदी फिल्‍मों की तरह सोचते जाते हैं। कहानी आगे बढती जाती है, लेकिन अंत तक पहुंचते-पहुंचते आपको लगता है कि आप गलत सोच रहे थे। फिल्‍म में कई बार स्‍टोरी बदलती है।
फिल्‍म की कहानी आधारित है दो भाइयो पर। इनमें से बडा भाई है रणवीर शौरी रॉनी यानी अक्षय खन्‍ना और छोटा भाई है राजीव यानी अक्षय खन्‍ना।
छोटा भाई अक्‍सर हर फिल्‍म की तरह बिगडैल है, शराबी है देर से उठता है, लडकियों के पीछे घूमता है। बडा भाई घोडों पर दाव लगता है, पर बिजनेस के लिए सीरियस है, घोडों से बहुत प्‍यार करता है।
छोटे भाई को इस बात का मलाल है कि मरते समय उसके पिता ने सारा बिजनेस बडे भाई के नाम कर दिया। अब हर जरूरत की चीज के लिए उसे भाई की तरफ हाथ फैलाना पडता है।
फिल्‍म का सबसे इंपॉर्टेंट प्‍वाइंट है कि, पिता ने मरते समय दोनों भाइयों के नाम 50-50 मिलियन डॉलर की पॉलिसी करा दी। किसी की मौत पर दूसरे को 100 मिलियन डॉलर मिलेंगे। बस इसी को हासिल करने के लिए पूरी फिल्‍म की कहानी चलाती है।
तिगडमी राजीव बडे भाई रॉनी को मारने का प्‍लान बनाता है। अब ये नहीं लिख रहा कि प्‍लान में कौन कौन शामिल है वर्ना अगर आप फिल्‍म देखने बैठ गए तो गालियां देंगे कि सारा सस्‍पेंस शामिल कर दिया।
बस पूरी फिल्‍म में मजेदार यही है, कि आप जैसा सोचते हैं आम बॉलिवुड फिल्‍म की तरह वैसे-वैसे होता चला जाता है, लेकिन अंत आते आते आपको पता चलता है कि यही चीज नई थी, जो आप पकड नहीं पाए।
फिल्‍म के गाने कर्णप्रिय हैं। दोनों ही हिरोइन खूबसूरत लगी हैं, कैटरीना रॉनी की सेक्रेटरी बनीं हैं और बिपाशा रॉनी की प्रेमिका और थोडे टाइम के लिए राजीव के गेमप्‍लान की पार्टनर। दोनों ही हिरोइन ने डेसेज बहुत छोटी और सुंदर पहनी हैं। सैफ के लुक पर डायरेक्‍टर ने खूब काम किया है। सैफ जब जब पर्दे पर आते हैं, सीटियां बजती हैं।
फिल्‍म में इंस्‍पेक्‍टर बनें है आरडी राबर्ट डिक्‍सटा यानी अनिल कपूर, जो अपनी बेटी समान समीरा रेडडी के साथ भी हमउम्र लगते हैं। अनिल के चिर युवा होने का राज अपन को पता नहीं चला।
वैसे फिल्‍म में अनिल कपूर के फल खाने वाले सारे डायलॉग द्विअर्थी हैं।ा पता नहीं आपको समझ आए या नहीं पर मेरे आजू बाजू आगे पीछे कॉलेज स्‍टूडेंट बैठे थे तो उनके ठहाकों के साथ ही अपन समझते रहे।
जॉनी लीवर फिल्‍म में पांच मिनट के लिए आते हैं, अपने पुराने स्‍टाइल में सबको हंसा हंसा कर लोटपोट करते रहते हैं। यानी कुल मिलाकर टाइमपास मूवी है। सीखने को कुछ नहीं है पर बोर नहीं करती।

इंश्‍योरेंस वाले बेवकूफ हैं क्‍या
फिल्‍म से एक चीज अपन को समझ आ गई, कि इंश्‍योरेंस वाले बेवकूफ होते हैं। उस आदमी की मौत पर 100 मिलियन डॉलर क्‍लेम में दे देते हैं, जो मरा ही नहीं।

Tuesday, March 25, 2008

क्‍या जन गण मन 52 सैकंड से ज्‍यादा हो सकता है


राकेश रोशन ने पागलपन के शिकार चार लोगों की कहानी पर क्रेजी 4 बनाई है। फिल्‍म में जन गण मन भी फिल्‍माया गया है। स्‍टोरी में क्‍या है यह तो अपन को पता नहीं पर अपन ने इसका म्‍यूजिक सुना है। इसमें राष्‍टगान जन गण मन है। अपन को पता है कि राष्‍टगान सिर्फ 52 सेकंड का होना चाहिए। पर इस फिल्‍म में राष्‍टगान करीब 1 मिनट और 28 सैकंड का है।
क्‍या कोई इस पर ध्‍यान देगा। क्‍या कोई सजा है इसके लिए, वैसे इस बारे में कानून के जानकार हमारे दोस्‍त ही कुछ कह पाएंगे। पर अपन के मन में यह सवाल उठा इसलिए आप सभी से राय मांग ली। वैसे जब सबको पता है तो राष्‍टगान 52 सैकंड की जगह 1: 28 सैकंड में क्‍यूं पूरा किया गया, यह समझ के परे है। राजेश रोशन के संगीत पर इसे आवाज दी है अंकिता सचदेव ने।
वैसे भारत बाला प्रोडक्‍शन के जनगणमन वीडियो में तो यह करीब दो मिनट का था। इस पर भी गौर करिए।

Sunday, March 23, 2008

मैं और ब्‍लॉगिंग का एक साल

मुझे ब्‍लॉगिंग करते हुए एक साल हो गए।
पहली पोस्‍ट बेशक हिंदी में नहीं में नहीं थी, कई दिन तक हिंदी लिखने का तरीका खोजता रहता, पहले यूनीनागरी और आखिरकार आईएमए से हिंदी लिखने लगा। पहली बार ऑनलाइन बिना सुमित स्क्रिप्‍टराइटर या किसी सॉफटवेयर से हिंदी लिखने पर इतनी खुशी हुई कि बयां नहीं की जा सकती।
इतनी खुशी तो तब भी नहीं हुई जब 31 दिसंबर 2007 को दैनिक हिंदुस्‍तान ने दुनिया को बदलने वाले दस साल में ब्‍लॉग को सबको अभिव्‍यक्ति का समान अवसर देने वाला सूचना का माध्‍यम बताते हुए, लिखा कि ब्‍लॉगिंग कुछ के लिए शुरुआत है, क्‍योंकि जिंदगी सिखाती है कुछ।
बीते साल भर में 65 पोस्‍ट लिख दीं। कुछ दिन बहलाने के लिए कुछ सूचनाएं इधर उधर करने के लिए। शुरुआत में सिर्फ मनोरंजन के लिए बस यूं ही ब्‍लॉग बना लिया, बाद में कई ऐसे लोगों से मिला, जिनसें बिना ब्‍लॉगिंग के मिलना असंभव था।
धीरे धीरे ब्‍लॉगिंग करने वालों का एक परिवार बन गया। जयपुर में एक ब्‍लॉगर्स मीट की। अपने ही समाचार पत्र के लिए ब्‍लॉगिंग पर एक लेख लिख मारा।
भाई लोगों ने सप्‍ताह का ब्‍लॉगर में इंटरव्‍यू ले लिया।
कविता से लेकर फिल्‍म तक, जहां जहां मन हुआ अपना लिखा और दिल को तसल्‍ली दी। कई बार अच्‍छे कमेंट और कॉम्‍पलिमेंट मिले, कई बार जानकारी पूरी रखने का संदेश और मार्गदर्शन। पर बस अब ब्‍लॉगिंग अपनी आदत में शुमार हो गई।
नेट पर बैठते ही पहले बस यूं ही जो मन हुआ खोलकर बैठ जाता। जरूरी नहीं हर बार काम की चीज होती, घंटों चैटिंग भी की। पर अब ये सब लगभग बंद हो गया है।
ब्‍लॉग पढने में ही दो घंटे तक गुजर जाते हैं।
बस अब यही कोशिश है कि इस अनियमित ब्‍लॉगिंग को धीरे धीरे विषय आधारित ब्‍लॉगिंग तक ले जाऊं। अब तक ज्‍यादातर ब्‍लॉग मैंने अपनी ही जिंदगी पर लिखे।
सभी वरिष्‍ठ चिटठाजनों का मार्गदर्शन मिलता रहेगा। वे लोग जो नियमित रूप से मेरी शुरुआत पढते हैं, फीडबैक मुझ तक पहुंचाते रहेंगे।
साल भर झेलने के लिए शुक्रिया

Saturday, March 15, 2008

पढने की नहीं, देखने की चीज है

यूं तो मेल पर कई बार अच्‍छी तस्‍वीरे, संदेश आते हैं। प‍हली बार एक मित्र के भेजे चित्रों को आपको दिखा रहा हूं। और स्‍पष्‍ट देखने हों तो इन पर क्लिक करें।
वैसे एक खास बात कि ये सब बनाए गए हैं, खाने पीने की चीजों से देखिए और पहचानिए।






Tuesday, March 11, 2008

सिर्फ जीत चाहिए ! सुविधा भी तो दीजिए


सारा देश एक अरब लोगों की उम्‍मीदों के बोझ तले दबी बेचारी हॉकी बेकार ही पिल पडे, ऐसे फालतुओं में मीडिया भी शामिल है। अब तक हॉकी टीम जीतती थी तो स्‍पोटर्स पेज की खबर होती है। टीवी में तो शायद ही कभी दिखाई दे, दूरदर्शन को छोड दीजिए। पर गरियाना का मौका आया तो सब पिल पडे। अरे आज जितना स्‍पेस पहले कभी दिया होता तो क्‍या हॉकी की यह दुर्दशा होती।

इस हार में खिलाडियों से ज्‍यादा गलती भारतीय हॉकी महासंघ और केपीएस गिल की है। आठ बार ओलंपिक विजेता रह चुकी टीम के एक खिलाडी को डेढ सौ रुपए डीए दिया जाता है। सामान्‍य सी होटलों या रेस्‍ट हाउस में ठहरा दिया जाता है। ऐसे में क्रिकेट और गोल्‍फ छोड कौन बनना चाहेगा हॉकी प्‍लेयर। नेशनल गेम की नेशनल टीम का मेंबर होने भर से ही न पेट भरता है, न सोसाइटी में इज्‍जत मिलती है। क्रिकेट से तुलना करें, जहां टीम का हर खिलाडी करोडपति है। ले देकर एक वर्ल्‍ड कप जीता इसके अलावा क्रिकेट के पास है क्‍या सिवाए विज्ञापन करने वाले सुंदर मुखडों के। बस अब मुकेश अंबानी और शाहरुख जैसे फाइनेंसर।

हॉकी अकेली नहीं है, जिससे दोयम दर्जे का व्‍यवहार होता है। क्रिकेट को छोड दें तो हर खेल की हालत ऐसी है। बस यूं समझिए हॉकी की इस हार ने हमें मौका दिया संभलने का, अगर इस बार भी लीपापोती की तो थोडे दिनों में एक अरब से ज्‍यादा आबादी वाले इस देश को पता नहीं किस किस गेम में कौन कौन पीटकर चला जाएगा और हम जबरन एक दो दिन चिल्‍ला चिल्‍लू कर रह जाएंगे।

अब स्थिति नाजुक है, असल बात की तरफ ध्‍यान देने का वक्‍त है। खेल संघों पर नेता विराजमान है, जिस आदमी ने जिंदगी में एक तीर न चलाया हो वह तीरंदाजी संघ का अध्‍यक्ष है ( विजय कुमार मल्‍होत्रा, भाजपा सांसद)। पूर्व वित्‍तमंत्री यशवंत सिन्‍हा टेनिस फैडरेशन के अध्‍यक्ष बने हुए हैं। जूडो पर जगदीश टाइटलर का कब्‍जा है। मुक्‍केबाजी ओमप्रकाश चोटाला के बेटे अभय चोटाला के और टेबल टेनिस बडे बेटे अजय सिंह चोटाला के भरोसे है। पूर्व विदेश राज्‍य मंत्री दिग्विजय सिंह निशानेबाजी के मुखिया हैं। न इन्‍हें कुछ अता पता है न कुछ करने की ही चाहत।

पता नहीं इन नेताओं ने इतने सारे पूर्व खिलाडियों को कहा लवे लगा दिया, कि बेचारा एक भी किसी भी फैडरेशन का अध्‍यक्ष तो दूर सदस्‍य तक नहीं है। बहुत हद हुई तो शायद कहीं राज्‍य में सिलेक्‍टर हो। सारा काम अगर नेताओं से ही कराना है तो कम से कम नवीन जिंदल जैसे आदमी को मौका दीजिए, जो अपनी हजारों करोड की स्‍टील कंपनी का काम छोड निशाना साधने के लिए पसीना बहाता है। या फिल्‍म स्‍टार नाना पाटेकर जैसे लोगों को जोडिए, जो कुछ करना चाहते हैं। सिर्फ राजनीति करने वालों का खेल संघों में क्‍या काम। देश ही कम था जो अब खेलों को भी बर्बाद करने बुला लिया इनको।

क्रिकेट टीम जीतती है तो कम बोलने वाले बाबा मनमोहन भी संसद में बधाई देते हैं पर बाकी खेलों की कोई सुध नहीं लेता। न सरकार ध्‍यान देती है न मीडिया और जतना बेचारी तो ऐसी भेड है जो देखती सब है, पर जब तक कोई मुखिया न हो, क्‍या करना है किधर चलना है यह भी पता नहीं। क्रिकेट का तो मीडिया इस कदर प्रचार करता है कि खेल से इतर उनकी शादी, शॉपिंग और साइड बिजनेस तक को न्‍यूज में जगह दी जाती है। हॉकी जैसे खेल की पूरी टीम का नाम तो शायद ही स्‍पोटर्स एडिटर को भी याद हो। उनकी भी क्‍या गलती, जब टीम घोषित होती है, तब सात के फोन्‍ट साइज में छोटे करके ही तो एक बार छापने होते हैं। उसके बाद भगवान मालिक।

क्रिकेट के अलावा भारत अगर किसी खेल में थोडा भी नजर आता है तो वह उस स्‍पोटर्समैन के व्‍यक्तिगत प्रतिभा का नतीजा होता है। देश का कोई लेना देना नहीं। विश्‍वनाथन आनंद के बाद शतंरज, राज्‍यवर्धन सिंह राठौड के बाद निशानेबाजी, अंजू बॉबी जार्ज के बाद एथलेटिक्‍स, सानिया, महेश और लिएंडर के बाद टेनिस और पी गोपीचंद के बाद बैडमिंटन का कोई नामलेवा नहीं है।

इसलिए जब तक भाई भतीजावाद को छोड, खेल को खेल की तरह आधारभूत सुविधाएं और बजट नहीं दिया जाता चक दे की उम्‍मीद बेमानी है।

Monday, March 10, 2008

काश सच होता चक दे


बेहद शर्मनाक है यह बात कि हम अपने ही राष्‍टीय खेल में ओलंपिक के कवालीफाइंग दौर से ही बाहर हो गए। हमारा सबसे कट़टर प्रतिद्वंदी देश ओलंपिक की मेजबानी कर रहा है और हम उसमें अपनी टीम को भी नहीं भेज पाएंगे।

कमाल की बात है कि 1932 के ओलंपिक में हमने इसी ब्रिटेन की टीम को शिकस्‍त दी, जबकि हम उसी देश के गुलाम थे। और तो और हमारे दो फारवर्ड खिलाडी के डी सिंह बाबू और किशनलाल तो बिना जूते ही मैदान में पहुंच गए। उस फाइनल मैच में हमने ब्रिटेन को 4-0 से हराकर स्वर्ण पदक जीता था। 76 साल बाद हम इसी ब्रिटेन से महज क्‍वालीफाइंग मैच में हार गए। यानी हॉकी इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन, जिसमें हारकर हम पहली बार ओलंपिक में पहुंचने से भी चूक गए।

उधर हमारे कबीर खान यानी शाहरुख खान चक दे में महिला हॉकी का भला करके और बडे स्‍टार बन गए। पर आजकल क्रिकेट से कमाई में बिजी थे तो बेचारे इस हार पर शोक भी प्रकट नहीं कर पाए।
काश चक दे का सपना पूरा होता, यह फिल्‍म हकीकत बन पाती।

Sunday, March 9, 2008

मदद कीजिए ब्‍लॉगर मंजूनाथ की


अमेरिका गए एक इंजीनियर को 2002 में एक सडक हादसे में लकवा हो गया। पिछले छह साल से वह वेंटीलेटर पर है। अमेरिका में इलाज के बाद उन्‍हें हाल ही में भारतीय दूतावास के हस्‍तक्षेप के बाद भारत भेज दिया गया। फिलहाल उनका दिल्‍ली में सफरदजंग अस्‍पताल में इलाज चल रहा है।
मंजूनाथ ने अमेरिका में अस्‍पताल में इलाज के दौरान मई 2007 में एक ब्‍लॉग बनाया और उसके जरिए मदद मांगी। उन्‍होंने हालांकि दो ही ब्‍लॉग लिखे हैं। इनमें भी एक में उनके ब्‍लॉग बनाने की कहानी और दूसरे में डायबि‍टीज के बारे में कुछ जानकारी दी गई है। वे सिप एंड पफ मेथड के जरिए लैपटॉप पर काम कर पा रहे हैं।
भारत में उनके भाई सुधाकर और मां ने कहा कि वो उनके इलाज में समर्थ नहीं हैं। उन्‍हें मदद की जरूरत है। टाइम्‍स समूह ने http://paralyzedblogger.wordpress.com/ में बताया कि वे मंजू की पूरी मदद करेंगे। इस संबध में अधिक जानकारी के लिए यह वीडियो देखें।

Saturday, March 8, 2008

वूमन्सडे पर मिड डे की चुटकी


मिड डे के काटूनिस्ट ने वूमन्स डे पर इस तरह ली चुटकी। आप भी देखिए।
साभार : मिड डे

Friday, March 7, 2008

यहीं हूं और जिंदा भी

करीब करीब बीस दिन हो गए। कोई नई पोस्‍ट नहीं लिखी। इसलिए शुभचिंतकों ने मेल की, दो चार ने एसएमएस किए और एक दो ने फोन, कि भाई कहां हो आजकल। कुछ लिखा नहीं।
बस उनको यह बताने के लिए ही लिख रहा हूं कि यहीं हूं और जिंदा भी। बस यू समझिए लिख ही नहीं पा रहा हूं। पहले बजट टीम में होने से तीन बजटों में चार पांच दिन टाइम नहीं मिला। उसके बाद दो दिन घर चला गया और अब कंटीन्‍यूटी टूट गई तो कुछ लिखने का सोचता हूं तो आइडिया ही डाप हो जाता है।
बस इसी सिलसिले को फिर शुरू करने के लिए यूं ही सूचना की तरह ही लिख रहा हूं। बस यह है कि अपन की जिंदगी इनदिनों बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। एक बेहद गंभीर विषय पर न दिल की मान रहा हूं न दिमाग की। पिछले पंद्रह दिन से यही सोचने में ही जिंदगी गुजर रही है।
खैर
जल्‍द कुछ लिखता हूं
शब्‍बा खैर