शनिवार रात में श्रोता बना जयपुर में तरुण समाज की ओर से आयोजित वार्षिक कार्यक्रम गीत चांदनी का । कार्यक्रम में संचालक हास्य कवि सुरेंद्र दुबे के अलावा छह गीतकार थे। इस मौके पर कानपुर के आत्म प्रकाश शुक्ल ने बुजुर्ग बाप पर एक कविता सुनाई। शुक्ल का कहना था कि एक कवि सम्मेलन में एक श्रोता बुजुर्ग ने कहा था कि ’यादातर कवि सम्मेलन में मां पर कविताएं सुनने को मिलती हैं लेकिन बाप पर कोई कविता नहीं करता । उसके बाद उन्होंने यह गीत लिखा। इसकी कुछ पंक्तियां मैं भूल गया हूं।
आंसुओं की धार है, फालतू अखबार है
गçर्दशों की मार है बूढ़े पिता की जिंदगी
देह दुबüल, संास निबüल
रेत की दीवार है बूढ़े पिता की जिंदगी इस मंदी के शोक में, टूटता आधार है.................. , बूढ़े पिता की जिंदगीइस उम्र से गुजरेंगे जब आज के युवा, तो समझेंगे वेप्यार की हकदार है बूढ़े पिता की जिंदगी जिंदगी जाती नहीं, मौत भी आती नहीं ख्ाून दे पाला जिन्हें, याद उन्हें आती नहीं बूढ़े पिता की जिंदगी।।
उन्हीं की एक और कविता है: ना तो मस्जिद न शिवालय पर खत्म होती है। भूख की आग निवाले पे खत्म होती है।।जुगनुओं लाख उड़ो पंखों में बांधे कंदील। रात ताते दिन के उजाले पे खत्म होती है।।
बलराम श्रीवास्तव, मैनपुरी ने छूने को अपनी मांं के चरण भूल गए हैं, मां की दुआ दुआ है कोई खेल नहीं गीत सुनाया। इंद्रा गौड़, सहारनपुर ने मैं सतह पर जी न पाई, एक पिंजरा देह का था, एक खुद हीबना लिया। राजेंद्र राजन, सहारनपुर ने भीनी ख्ाुशबू एक तरफ है, सारा गुलशन एक तरफ। शाहपुरा के कैलाश मंडेला ने मेवाड़ी में अकाल पर कविता सुनाई, जिसके बोल मुझे याद नहीं रहे लेकिन गीत के बोेल मुझे याद नहीं है। चित्तौड़गढ़ के रमेश शर्मा ने `ठंडी हवाएं, सौंधी खुशबू लाता है तेरा सावन´ जैसी रचनाएं पेश कर वाहवाही लूटी।
उनको नहीं सुन
पायामैं गीत चांदनी में थोड़ी देर से पहुंचा इसलिए कार्यक्रम की शुरुआत नहीं देख पाया। बाद में पता चला कि कार्यक्रम की शुरुआत राजस्थान पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी ने की। वैसे मुझे लगता है कि कोठारीजी सिर्फ संपादक की हैसियत से वहां नहीं गए थे, बल्कि तरुण समाज, कवि सम्मेलन और गीत चांदनी से उनका पुराना रिश्ता है, इसलिए गए होंगे। कुलिशजी तरुण समाज के संरक्षक मंडल में थे और गुलाबजी भी कवि सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।
उन्हीं की एक और कविता है: ना तो मस्जिद न शिवालय पर खत्म होती है। भूख की आग निवाले पे खत्म होती है।।जुगनुओं लाख उड़ो पंखों में बांधे कंदील। रात ताते दिन के उजाले पे खत्म होती है।।
बलराम श्रीवास्तव, मैनपुरी ने छूने को अपनी मांं के चरण भूल गए हैं, मां की दुआ दुआ है कोई खेल नहीं गीत सुनाया। इंद्रा गौड़, सहारनपुर ने मैं सतह पर जी न पाई, एक पिंजरा देह का था, एक खुद हीबना लिया। राजेंद्र राजन, सहारनपुर ने भीनी ख्ाुशबू एक तरफ है, सारा गुलशन एक तरफ। शाहपुरा के कैलाश मंडेला ने मेवाड़ी में अकाल पर कविता सुनाई, जिसके बोल मुझे याद नहीं रहे लेकिन गीत के बोेल मुझे याद नहीं है। चित्तौड़गढ़ के रमेश शर्मा ने `ठंडी हवाएं, सौंधी खुशबू लाता है तेरा सावन´ जैसी रचनाएं पेश कर वाहवाही लूटी।
उनको नहीं सुन
पायामैं गीत चांदनी में थोड़ी देर से पहुंचा इसलिए कार्यक्रम की शुरुआत नहीं देख पाया। बाद में पता चला कि कार्यक्रम की शुरुआत राजस्थान पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी ने की। वैसे मुझे लगता है कि कोठारीजी सिर्फ संपादक की हैसियत से वहां नहीं गए थे, बल्कि तरुण समाज, कवि सम्मेलन और गीत चांदनी से उनका पुराना रिश्ता है, इसलिए गए होंगे। कुलिशजी तरुण समाज के संरक्षक मंडल में थे और गुलाबजी भी कवि सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।