Wednesday, January 30, 2008
मैं और बापू – खलनायक से आइडियल तक
देश के साठ फीसदी युवाओं की तरह अपन भी बचपन से सुभाषचंद्र बोस के भक्त थे। और एक चीज अपन के दिमाग में साफ थी कि सुभाष बाबू की लोकप्रियता की राह में रोडे अटकाने वाले बापू यानी महात्मा गांधी ही थे। यह बात अपन के बालमन में शुरू से ही थी। सो अपन के खलनायकों की लिस्ट में बापू भी एक हुआ करते थे।
साइंस के स्टूडेंट रहे तो इतिहास से अपना ठीक से वास्ता नहीं पडा। बचपन में जो पढा वो पता नहीं रटा या समझा, ठीक से याद नहीं आता। पर मेरी मार्कशीट बताती है कि दसवीं की परीक्षा में हिंदी और इतिहास दो ही सब्जेक्ट थे, जिसने मुझे राजस्थान बोर्ड की परीक्षा में 75वीं रेंक पर पर ही रोक दिया। संघ से वास्ता रखने वाले कई दोस्त अपन के फ्रेंड सर्कल में थे तो इसका असर भी पडना था, यानी गांधीजी की और वाट लगनी स्वाभाविक थी।
पर बीएससी के बाद दो ऑप्शन थे या तो कैमेस्टी से एमएससी या देश के साठ फीसदी युवाओं की तरह कॉम्पिटीशन की तैयारी। कैमेस्टी में राजस्थान यूनिवर्सिटी का प्री टेस्ट पास किया। एडमिशन की तैयारी थी कि मुझे लगने लगा कि यार साइंस के स्टूडेंट को इतिहास की नॉलेज होनी चाहिए। बिना इतिहास के भविष्य कैसा।
बस इसी उधेडबुन में कैमेस्टी की जगह राजस्थान यूनिवर्सिटी में एमए हिस्टी में एडमिशन ले लिया। अब शुरू हुआ अपन का इतिहास और बापू से रूबरू होने का समय।
एमए के दो वर्षों के दौरान मुझे पता चला कि गांधी वाकई बापू थे। मेरे कई भ्रम और पूर्वाग्रह खत्म हुए, आजादी के बारे में सुभाष बाबू के बारे में, उनसे मतभेद को लेकर।
कुल मिलाकर मैं एक लाइन में समझाने की कोशिश करुं तो मुझे समझ आया कि आजादी के लिए हजारों वीर सपूतों ने बलिदान दिया, संघर्ष किया। पर बापू ने स्वराज्य की अवधारणा को आमलोगों तक पहुंचाया और आजादी के इस आंदोलन से उनको जोडा। इससे पहले तक सिर्फ पडा लिखा तबका ही आजाद होने का सपना देखता था। यानी बिना बापू के आजादी सिर्फ कल्पना थी।
बापू को श्रद़धांजलि के साथ
एक आजाद भारतीय
Friday, January 25, 2008
क्या एक अरब में से कोई भारत रत्न लायक नहीं
भारत रत्न को लेकर एक महीने तक नेताओं और दावेदारों में बहस चली। आखिर ये 26 जनवरी आ गई और अपन को पता चला कि एक अरब से ज्यादा की आबादी में कोई भी आदमी इस लायक नहीं है, जो सोनिया माई की नजर में भारत रत्न का हकदार हो। जब नेताओं के अलावा या अपनी पसंद के नेताओं के अलावा किसी को देना ही नहीं है तो इस पुरस्कार को बंद क्यों नहीं कर देते। यह लगातार सातवां साल है जब किसी शख्सियत को देश के इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान के लिए नहीं चुना गया। मुझे तो लगता है सोनियाजी को मिलने के बाद ही यह पुरस्कार अब फिर आमलोगों को मिलना शुरु होगा।
आखिरी बार 2001 में शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिला खां साहब को यह सम्मान दिया गया। क्या इसके बाद देश को ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला, जिसे भारत रत्न दिया जा सके ?
सात साल में एक भी व्यक्ति को भारत रत्न न देना हैरान करता है। अपन का कहना यह नहीं है कि जबरदस्ती दिया जाए, पर एक अरब की आबादी में इतना बडा प्रशासनिक अमला और सरकार मिलकर ऐसे आदमी को नहीं ढूंढ सकी, जो कलाम साहब की तरह भारत रत्न का सही हकदार हो।
इस साल विवाद हुआ तो पता चला कि इसके लिए कोई कमेटी होती है, जो भारत रत्न और पदम सम्मानों का निर्णय करती है। अब तो जनता को पता चलना चाहिए कि इस समिति में कौन कौन काबिल लोग हैं।
वैसे भारत रत्नों के इतिहास को देखें तो प्रधानमंत्री या राष्टपति को छोडकर भारत रत्न पाने वालों के ज्यादा नाम हैं। चालीस भारत रत्नों में से 20 तो राजनेता रहे हैं, जिनमें भी ज्यादातर पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व राष्टपति हैं। बचे हुए लोगों में से फ्रीडम फाइटर और इक्का दुक्का वैज्ञानिक हैं। मैं यूं राज्यवार तो नहीं मांगता पर क्या अपन के राजस्थान में तो आजतक ऐसा कोई आदमी पैदा नहीं हुआ जिसे भारत रत्न दिया जा सकता था।
क्या टीवी पत्रकारों का ही योगदान है ?
हो सकता है कि अपन गलत लिख रहे हैं पर क्या आजकल सरकार को टीवी पर दिखाई देने वाले लोग ही पत्रकार दिखते हैं, या सिर्फ चुनाव पूर्व इन तीन बडे लोगों को लॉलीपॉप। क्या समाचार पत्रों में काम करने वालों का सामाजिक जीवन में कोई योगदान नहीं है। पदम श्री की लिस्ट में ही तीन टीवी पत्रकार है। मैं यह नहीं कहता कि बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई और विनोद दुआ को पदम पुरस्कार नहीं मिलने चाहिए। ये हमारे अग्रज हैं, इन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी है, इन जैसे लोगों की वजह से लोग पत्रकारों का सम्मान करते हैं। मैं तो कहता हूं कि हमारे ब्लागर पत्रकार मित्र रवीशजी को भारत रत्न मिले, लेकिन प्रिंट के लोग भी सम्मान के हकदार हैं। पर लगता है आजकल सिर्फ टीवी से ही लोगों का ध्यान नहीं हटता। तो अखबार में बाईलाइन पर किसका ध्यान पडता होगा।
इस साल की सूची
पद्म विभूषण
प्रणव मुखर्जी - सोशल सर्विस
सचिन रमेश तेंदुलकर - खेल
आशा भोंसले - कला
रतन नवल टाटा - व्यापार एवं उद्योग
ई श्रीधरन - विज्ञान एवं इंजीनियरी
राजेन्द्र कुमार पचौरी - विज्ञान एवं इंजीनियरी
एडमंड हिलेरी ( मरणोपरांत) - खेल
विश्वनाथ आनंद - खेल
जस्टिस ए . एस . आनंद - सोशल सर्विस
पी एन . धर - सोशल सर्विस
लक्ष्मी नारायण मित्तल - व्यापार एवं उद्योग
एन . आर . नारायणमूर्ति - व्यापार एवं उद्योग
पी . आर . एस . ओबराय - व्यापार एवं उद्योग
पद्म भूषण
सुनीता विलियम्स - विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी
जसदेव सिंह - कमेंट्री और प्रसारण
लॉर्ड मेघनाद देसाई - जनसेवा
उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर - कला
अमरनाथ सहगल ( मरणोपरांत )- कला
उस्ताद असद अली खान - कला
पी . सुशीला - कला
सुशील कुमार सक्सेना - कला
चंद्रशेखर दासगुप्त - लोकसेवा
के . पद्मनाभैया - लोकसेवा
वी . रामचंद्रन - लोकसेवा
बृजेन्द्र नाथ गोस्वामी - साहित्य एवं शिक्षा
श्रीलाल शुक्ल - साहित्य एवं शिक्षा
जी . शियांलिन - साहित्य एवं शिक्षा
कौशिक बसु - साहित्य एवं शिक्षा
पद्मा देसाई - साहित्य एवं शिक्षा
रवीन्द्र केलेकर - साहित्य एवं शिक्षा
श्याम चोना - साहित्य एवं शिक्षा
श्रीनिवास एस . आर . वर्धन - साहित्य एवं शिक्षा
पी . के . ओमेन - साहित्य एवं शिक्षा
जगजीत सिंह चोपड़ा - चिकित्सा
निर्मल कुमार गांगुली - चिकित्सा
मियां बशीर अहमद - जनसेवा
वाई . एम . वोरोनसो ( मरणोपरांत )- जनसेवा
आशीष दत्ता - विज्ञान एवं इंजीनियरी
सुखदेव - विज्ञान एवं इंजीनियरी
वसंत गोवारिकर - विज्ञान एवं इंजीनियरी
डी . आर . मेहता - समाज सेवा
डोमिनिक लेपियरे - समाज सेवा
इंद्रजीत कौर - समाज सेवा
सुरेश कुमार नेवोटिया - व्यापार एवं उद्योग
बाबा नीलकंठ कल्याणी - व्यापार एवं उद्योग
के . वी . कामथ - व्यापार एवं उद्योग
शिव नाडर - व्यापार एवं उद्योग
विक्रम पंडित - व्यापार एवं उद्योग
पद्मश्री
माधुरी दीक्षित - कला
हंसराज हंस - कला
टॉम ऑल्टर - कला
बरखा दत्त - पत्रकारिता
राजदीप सरदेसाई - पत्रकारिता
विनोद दुआ - पत्रकारिता
गंगाधर प्रधान - कला
गेन्नादी मिखाइलोविच पेचिनेकोव - कला
पंडित गोकुलोत्सवजी महाराज - कला
हेलन गिरी - कला
जतिन गोस्वामी - कला
जवाहर बट्टल - कला
जॉन मार्टिल नेल्सन - कला
जोनालागड्डा गुड्प्पा चेट्टी - कला
केकु एम . गांधी - कला
मंगला प्रसाद मोहंती - कला
मनोज नाइट श्यामलन - कला
मिनाक्षी चितरंजन - कला
मूझीकुल्लम कोचुकुट्टम चकयार - कला
पी . के . नारायणन नाम्बियार - कला
प्रताप पवार - कला
सावित्री हेसनम - कला
सेंटियल टी . यांगर - कला
सिरकाझी जी . सिवाचिदम्बरम - कला
येल्ला वेंकटेश्वर राव - कला
अमिताभ मट्टू - साहित्य एवं शिक्षा
बी . शिवनाथी अदिथन - साहित्य एवं शिक्षा
भोलाभाई पटेल - साहित्य एवं शिक्षा
बीना अग्रवाल - साहित्य एवं शिक्षा
के . एस . निसार अहमद - साहित्य एवं शिक्षा
एम . लीलावती - साहित्य एवं शिक्षा
निरुपम वाजपेयी - साहित्य एवं शिक्षा
श्रीनिवास उद्गाटा - साहित्य एवं शिक्षा
सुखदेव थोराट - साहित्य एवं शिक्षा
सूर्यकांता हजारिका - साहित्य एवं शिक्षा
वेल्यानी अर्जुनन - साहित्य एवं शिक्षा
मोहम्मद युसूफ ताइंग - साहित्य एवं शिक्षा
कलीमुल्ला खान - आम्र पौधरोपण
बाइचुंग भूटिया - खेल
बुला चौधरी चक्रवर्ती - खेल
ए . जयंत कुमार सिंह - चिकित्सा
अर्जुनन राजशेखरन - चिकित्सा
सी . यू . वेलमुरुगेन्दन - चिकित्सा
दीपक सहगल - चिकित्सा
दिनेश के . भार्गव - चिकित्सा
इंदुभूषण सिन्हा - चिकित्सा
केईकी आर . मेहता - चिकित्सा
मालविका सब्बरवाल - चिकित्सा
मोहनचंद्र पंत - चिकित्सा
राकेश कुमार जैन - चिकित्सा
रमन कपूर - चिकित्सा
रंधीर सूद - चिकित्सा
श्याम नारायण आर्य - चिकित्सा
सुरेन्द्र सिंह यादव - चिकित्सा
तात्या राव पुंडलिका राव लाहने - चिकित्सा
टोनी फर्नांडिस - चिकित्सा
कोलेट माथुर - जनसेवा
भंवरलाल हीरालाल जैन - विज्ञान एवं इंजीनियरी
जोजफ एल . हलसे - विज्ञान एवं इंजीनियरी
कस्तूरी लाल चोपड़ा - विज्ञान एवं इंजीनियरी
संत सिंह वीरमाणी - विज्ञान एवं इंजीनियरी
कैलाश चंद्र अग्रवाल - जनसेवा
करुणा मैरी बरगांजा - समाजसेवा
डॉ . क्षमा मैत्रेय - समाजसेवा
डॉ . कुटिकुपल्ला सूर्यराव - समाजसेवा
मदनमोहन सब्बरवाल - समाजसेवा
डॉ . शीला भर्थाकुर - समाजसेवा
वी . आर . गौरीशंकर - समाजसेवा
विक्रमजीत सिंह साहनी - समाजसेवा
युसुफ अली एम . अब्दुलकादिर - समाजसेवा
अमित मित्र - व्यापार एवं उद्योग
इस पोस्ट का उददेश्य किसी की भावना को आहत करने का नहीं है। वैसे अपन तो ग्लोबल हैं, खुद को भारत रत्न लायक नहीं मानता :)
क्या कहूं यार
अचानक चार दिन में ही बदल गई दुनिया मेरी
जिस पर था सबसे जादा यकीं, वो ही सबसे दूर हो गई
पता नहीं क्या चाहती है मुझसे, मेरा भला या बुरा
बस किसी के लिए मेरा प्यार कुर्बान कर रही है
सोचता हूं बद़दुआ दूं उसको, पर नहीं दूंगा कभी
क्यूंकि प्यार करता हूं उससे, बुरा नहीं चाहता उसका
बस इसीलिए जाने दे रहा हूं उसे, कि शायद
मुझसे ज्यादा कोई और है, जो खुश रख पाएगा उसे
हो सके तो कभी समझ में आ जाए उसे कभी
मैं उतना बुरा भी नहीं था, जितना उसने समझ लिया
वादा किया था तो निभाकर रहता मैं
वो नहीं जो बीच रास्ते से चला जाता
खैर बस यही चाहता हूं, वो खुश रहे जहां भी जाएं
क्यूंकि प्यार करता हूं उससे, बुरा नहीं चाहता उसका
(डिसक्लेमर : एक दोस्त ने दिल टूटने पर अपन से शेयर की है। इस कविता से अपना कोई लेना देना नहीं है)
Wednesday, January 23, 2008
एक बार मिलकर तो देखिए देवसाहब से
जयपुर साहित्य समारोह के पहले दिन बुधवार को फिल्म अभिनेता देव आनंद साहब आए। आफिस नहीं जाना था तो अपन भी डिग्गी पैलेस पहुंच गए। यहां देव साहब को अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ के बारे में चेन्नई की नर्तकी और कंटरीज ऑफ द बॉडी की लेखिका तिशानी दोषी से बातचीत करनी थी।
चौरासी साल के देव साहब को नजदीक से देखकर मैंने पाया कि वो इतने डाउन टू अर्थ है, कि आप बॉलीवुड की चमक दमक और स्टारडम में जीने के बाद ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते। वे चाहने वालों की इतनी इज्जत करते हैं कि आदमी को उन फिदा हुए बिना नहीं रह सकता। यूं समझ लीजिए कि वे एक ऐसे मोटिवेटर हैं, कि अगर आप घोर निराशा में हों तो बातचीत के बाद खुश होकर ही लौटेंगे। यानी जिंदगी को पॉजीटिवनेस की और ले जाएंगे।
पहले ही सवाल के जवाब में देव साहब ने कहा कि मैं लेखक नहीं हूं, यूं समझिए कि ओटोबायोग्राफी में जिंदगी का पैकअप किया है। इस किताब के बारे में एक और खास बात कि उन्होंने यह पूरी किताब का डाफट हाथ से लिखा गया, कम्प्यूटर की मदद से नहीं।
वे लडकियों में बेहद चर्चित रहे हैं तो उनके फैन्स और वहां आए लोगों में बडी संख्या उनकी थी, जिन्हें जवानी के दिनों में देव साहब खूब भाते रहे होंगे।
बातचीत के दौरान ‘आई लव चेजिंग गर्ल्स’ कहने वाले देवसाहब से ओपन सेशन में यह सवाल भी कई बार पूछा गया कि आप पर लडकियां मरती थीं, आप खूबसूरती के सच्चे कद्रदान हैं। आपकी नजर में खूबसूरती क्या है।
देवानंद का कहना था कि जो दिल को भा जाए वही खूबसूरती है। लडकी के मामले में चाहे वो काली हो गोरी हो। जिंदगी के मायने में, काम के मामले में अलग अलग पैमाने हैं। वे इस मौके पर अपनी ही फिल्म गाइड का डायलॉग बोलना नहीं भूले।
जिंदगी एक ख्याल है
जैसे मौत एक ख्याल है ना सुख है न दुख है
न दीन है न दुनिया सिर्फ मैं, मैं और मैं
उनसे जब यह कहा गया कि आप लोगों के दिल में इस कदर बैठे हुए हैं कि चित्तौडगढ में तो फोर्ट देखने आए हर सैलानी को वहां खडा गाइड खुद को राजू गाइड ही बताता है। कभी चित्तौडगढ आइये, देवानंद ने कहा कि बुलाइये जरूर आऊंगा। बस कोई लेक्चर की उम्मीद मत कीजिएगा हां, अगर कुछ याद आ गया तो मुझे भगवान भी कोई काम करने से नहीं रोक सकता।
यही वो जिंदादिली थी, जिसके अपन कायल हो गए। वर्ना 84 साल का एक आदमी यह बोले कि मैं जिंदगी में किसी की परवाह नहीं करता, लोग तो कुछ न कुछ बोलेंगे ही। चिंता न कीजिए। एसी उम्मीद देव साहब को छोडकर किससे कर सकते हैं।
मैंने सवाल किया कि आपकी उम्र मेरे दादा के बराबर की है, फिर भी आप आज भी मुझसे ज्यादा यंग लगते हैं। आपकी यंगनेस का राज क्या है।
कॉम्पलीमेंट के लिए शुक्रिया कर हंसते हुए देव साहब बोले कि मैं पॉजीटिव सोचता हूं, दुनिया की चिंता नहीं करता। जो अच्छा लगता है वही करता हूं। वर्ना अब तक तो कई बार मर चुका होता। वे कहते हैं कि जिंदगी में अनुभव होते हैं, वे खराब भी हो सकते हैं और अच्छे भी। लेकिन आप खराब के साथ ज्यादा समय तक जी नहीं सकते। मैं झटकों (सेटबैक्स) को भूल जाता हूं, इसलिए हमेशा नया और तरोताजा रहता हूं।
देव साहब ने कहा कि आपका राजस्थान काफी खूबसूरत है विशेषकर सर्दी के मौसम में। उन्होंने कहा कि मुझे यहां कि खूबसूरत पगडियां, साडियां, लोग अच्छे लगते हैं। सर्दी के मौसम में तो मैं चाहता हूं कि यहीं रहूं।
इस सवाल पर कि अगर आप एक्टर, डायरेक्टर या लेखक नहीं होते तो क्या होते।
बोले बिना एक्टिंग के देवानंद हो ही नहीं सकता।
उन्होंने एक और बेहद रोचक बात बताई कि उनके घर और उनकी कंपनी नवकेतन में बहुत सारे लोग काम करते हैं। पर फोन वे खुद ही उठाते हैं। देव साहब बोलते हैं कि यह इसलिए जरूरी है कि मुझे भी तो पता चले कि कौन मुझसे बात करना चाहता है। एक और बात वे कहते हैं कि मैं कभी किसी को मिलने से मना नहीं करता। क्योंकि मैं कर ही नहीं सकता, क्योंकि उस पर मेरा कोई हक ही नहीं है।
देवसाहब ने इमरजेंसी के बाद फिल्म इंडस्टरी के लोगों के साथ मिलकर नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया नाम से एक पॉलिटिकल पार्टी बनाई। लेकिन वो कामयाब नहीं हो सकी। उनके राजनीति में सक्सेफुल नहीं होने के कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि उस समय समय कम था, चार हफते बाद चुनाव थे। जिन लोगों को चुनाव में खडा होना था, वे पीछे हट गए। ज्यादातर सितारे चाहते थे कि वे मनोनीत होकर राज्यसभा में जाएं।
सबसे निजी बात, पूरा मामला तो अपन को पता नहीं पर कोई उषा चौपडा हैं, जिनकी खूबसूरती के देवसाहब लडकपन से कायल रहे हैं। लेकिन अफसोस कि उनकी यह चोपडा मेम कहां हैं, देवसाहब खुद भी नहीं जानते। वाजपेयी के साथ लाहौर गए तो भी उन्होंने उन्हें ढूंढने कि कोशिश की। वे कहते हैं कि आज भी लोग मुझे कही मिल जाते हैं तो उषा चोपडा के बारे में बताने की कोशिश करते हैं। हाल ही में गोवा फिल्म फेस्टिवल के दौरान देव साहब को इटली से आए एक दल ने भी उषा चोपडा को जानने की बात कही। अगर कोई जानता हो ऊषाजी को तो प्लीज अपन के देव साहब को जरूर बताइयेगा।
(तकनीकी कारणों से आज मोबाइल से फोटोग्राफस डाउनलोड नहीं किए जा सके, जल्द देख सकेंगे)
आपकी वजह से मेरी तो जिंदगी ही बर्बाद हो जाएगी
सोमवार की सुबह करीब साढे नौ बजे मोबाइल पर एक फोन आया। अपन बुआ के घर दो दिन की छुटटी मना रहे थे। नंबर अननोन था, फोन उठाते ही लडकी बोली, हलो हलो। और शुरू हो गई उनकी बकवास। संभलने का तो मौका ही नहीं था। बस अपन तो सोकर उठे ही थे तब। उन्होंने फरमाया, आप मुझे इस नंबर पर फोन क्यूं करते हैं, मैसेज क्यूं करते हैं। अपन ने कहा बहनजी शायद गलतफहमी हो गई है, अपन तो आपको जानते ही नहीं।
वो बोलीं, अगर मेरे भाई को पता चल गया तो आपकी वजह से मेरा घर से निकलना बंद हो जाएगा, मेरी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी। आप मुझे एसएमएस क्यूं करते हैं। जब तक मैं कुछ जवाब देता वो बोलीं, लो भैया आ गए और तुरंत सफाई पेश करते हुए कि भैया ये लडका मुझे परेशान करता है, बात करो इससे।
बस अब क्या था मुझे गुस्सा आ गया और उसे गालियां सुनाना शुरू किया ( गाली बोले तो तेज आवाज में चिल्लाना) । इतने में ही अवाज सुनकर फूफाजी बोले लडकी है, धीरे तो बात करो। उन्हें लग रहा था कि शायद मेरी ही गलती है। मैंने कहा आप एक मिनट रुको में इसे सुधारता हूं, पता नहीं कहां कि बिगडी शहजादी है।
मैंने कहा कि मैं क्या तुझसे डरता हूं, अपना नाम बताते हुए कहा कि तेरे भाई क्या बाप से बात करा, जब किया ही नहीं फोन तो क्यूं सुनू तेरी। उन्हें बता देता हूं कि मैं कौन हूं और आपकी बेटी जबरदस्ती अपन के पीछे पडी है।
मुझे गालियां देता देख सामने वाला लडका भी पहले तो आक्रामक हुआ पर अचानक मुझे लगने लगा कि यह मजाक भी हो सकता है।
इतने में ही दो बार और तेजी से क्या बोला कि आफिस में ही अपन के साथी सीधे आ गए कि यार मैं फलां फलां बोल रहा हूं। मजे ले रहा था पर शायद आप टेंशन में आ जाओगे इसलिए बता रहा हूं।
मैंने कहा बाकी तो ठीक है, पर ये लडकी कौन है, जो रोए जा रही थी इतनी देर से। तब उन्होंने बताया कि यह एक रिंगटोन है और उसके जरिए वह सुबह से कई लोगों के मजे ले चुका है। यानी सबको लडकी के साथ फंसाकर मजा लूटा जा रहा था कि आप कैसे बिहेव करते हैं।
मैंने उसे जैसे ही बताया कि बुआ के घर हूं उसने कहा कि बाद में बात करते हैं और मामला खत्म। उसके बाद कल आफिस पहुंचा तो पता चला कि किसने क्या क्या जवाब दिया। जैसे दो जवाब जो बेहद मजेदार थे आपको पहुंचा रहा हूं।
पहला:::::::: मेरे तो मोबाइल में ही बैलेंस नहीं है, आपको मिस कॉल कैसे करुंगा।
और दूसरा:::::::: अगर राजीव की तरह अगर मैं घर पर ऐसे बोल रहा होता तो मेरी तो बिना पूरी बात समझे ही पिटाई हो जाती।
( कोशिश करुंगा कि यह रिंगटोन आपको ऑनलाइन सुनवा सकूं। आप भूल से भी इस मजाक के शिकार न हों, इसलिए यह अनुभव आपके साथ बांटा जा रहा है।)
Monday, January 14, 2008
अपन विदाउट पतंगबाजी, सो सैड :(
आज मकर संक्रांति है और जयपुर इस मौके पर अपनी पतंगबाजी के लिए मशहूर है। पतंगबाजी ऐसी कि देशी ही नहीं विदेशी भी चाव रखते हैं, लेकिन अपन आज पतंगबाजी से महरूम रहे। कारण अपन का मकान मालिक।
यूं तो अपन टू रूम सेट लेकर अपने एक दोस्त के साथ शहर के सबसे पॉश इलाकों में शुमार किए जाने वाले बजाज नगर में पहली मंजिल पर रहते हैं।
अपन की बालकॉनी।
अब ये पॉश इलाके में रहना है तो इसकी पॉशियत को तो भोगना ही होगा। यूं तो अपन से मकान मालिक ने कह दिया था कि छत पर आपकी एंटरी नहीं होगी। पर करीब एक साल तक शांतिपूर्वक रहने और बिना शिकायत के आप रहें तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसे त्योहार पर बैचलर्स या किराएदारों को मकान मालिक खाने या त्यौहार में शरीक होने का निमंत्रण दे। (हो सकता है, मैं गलत हूं) पर अपन को करीब करीब पूरा दिन बीत गया, नेट पर ही चिपके रहे, यानी नो पतंगबाजी। देख भी नहीं सकते क्यूंकि बालकॉनी से मजा नहीं आता थोडे ही हिस्से का व्यू मिलता है और वहां भी धूप नहीं। बस इतना जरूर है कि गाने जरूरी सुनाई दे रहे हैं, जिससे सो नहीं पाया। :((
अब जो मैं कहना चाहता था वो यह कि इस पॉशियत के चक्कर में लोग सामाजिकता भूल गए हैं। अपन तो छोटे शहर के रहने वाले हैं इतना समझते हैं कि ऐसे मौकों पर छत पर भीड लग जाती थी। और तो और जिनकी छत नीचे होती थी, वो भी ऊंची छत वालों के मकान से पतंगबाजी करते थे। होली तो ऐसा त्योहार होती थी कि कोई बचने की कोशिश करता तो उसे दीवार फांदकर या येनकेन प्रकारेण घर से निकाल लाते।
उम्मीद करता हूं अपन के मकान मालिक यह नहीं पढ रहे होंगे, पढ लें तो शायद हकीकत से रूबरू हो जाएं, आपकी नजर में कोई ढंग का मकान मालिक हो तो बताएं
यूं तो अपन टू रूम सेट लेकर अपने एक दोस्त के साथ शहर के सबसे पॉश इलाकों में शुमार किए जाने वाले बजाज नगर में पहली मंजिल पर रहते हैं।
अपन की बालकॉनी।
अब ये पॉश इलाके में रहना है तो इसकी पॉशियत को तो भोगना ही होगा। यूं तो अपन से मकान मालिक ने कह दिया था कि छत पर आपकी एंटरी नहीं होगी। पर करीब एक साल तक शांतिपूर्वक रहने और बिना शिकायत के आप रहें तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसे त्योहार पर बैचलर्स या किराएदारों को मकान मालिक खाने या त्यौहार में शरीक होने का निमंत्रण दे। (हो सकता है, मैं गलत हूं) पर अपन को करीब करीब पूरा दिन बीत गया, नेट पर ही चिपके रहे, यानी नो पतंगबाजी। देख भी नहीं सकते क्यूंकि बालकॉनी से मजा नहीं आता थोडे ही हिस्से का व्यू मिलता है और वहां भी धूप नहीं। बस इतना जरूर है कि गाने जरूरी सुनाई दे रहे हैं, जिससे सो नहीं पाया। :((
अब जो मैं कहना चाहता था वो यह कि इस पॉशियत के चक्कर में लोग सामाजिकता भूल गए हैं। अपन तो छोटे शहर के रहने वाले हैं इतना समझते हैं कि ऐसे मौकों पर छत पर भीड लग जाती थी। और तो और जिनकी छत नीचे होती थी, वो भी ऊंची छत वालों के मकान से पतंगबाजी करते थे। होली तो ऐसा त्योहार होती थी कि कोई बचने की कोशिश करता तो उसे दीवार फांदकर या येनकेन प्रकारेण घर से निकाल लाते।
उम्मीद करता हूं अपन के मकान मालिक यह नहीं पढ रहे होंगे, पढ लें तो शायद हकीकत से रूबरू हो जाएं, आपकी नजर में कोई ढंग का मकान मालिक हो तो बताएं
Saturday, January 12, 2008
डूबती संस्कृत को तिनके का सहारा
डूबते को तिनके का सहारा वाली पुरानी कहावत यहां भी लागू होती है। अखबार पढ रहा था तो इस खबर पर नजर पडी। बस अपन से रहा नहीं गया। आप भी देखिए राजस्थान पत्रिका की यह खबर।
अमेरिकी जिले में मनाया जाएगा संस्कृत दिवस
न्यूयार्क। अमेरिका के पश्चिमी राज्य नेवाडा के वाशू जिले में शनिवार को संस्कृत दिवस मनाया जाएगा।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार वाशु जिला आयोग के अध्यक्ष ने कहा, हम घोषणा करते हैं वाशु जिला संस्कृत भाषा के महत्व को समझते हुए 12 जनवरी को संस्कृत दिवस के रूप में मनाएगा। इस जिले की आबादी करीब चार लाख है।
इस मौके पर प्रख्यात हिंदू पुरोहित राजन जेड स्थानीय निवासियों के लिए संस्कृत भाषा पर कक्षाएं और व्याख्यान प्रस्तुत करेंगे। आयोग की ओर से की गई इस घोषणा में कहा गया है कि, पश्चिम में हिंदू धर्म का तेजी से विस्तार हो रहा है। ऐसे में जरूरी है कि लोग हिंदुत्व के बारे में जानें। इसके लिए लोगों को संस्कृत की मौलिक जानकारी होनी चाहिए।
उम्मीद कीजिए की संस्कृत की देश में भी कोई सुध ले।
कोई पढ रहा है क्या
Sunday, January 6, 2008
रूबरू तहलका के तरुण तेजपाल से
रविवार को जयपुर में पं: झाबरमल्ल स्मृति व्याखानमाला आयोजित की गई। इसमें तहलका के एडिटर इन चीफ तरुण तेजपाल मुख्य वक्ता थे। यह व्याख्यानमाला राजस्थान पत्रिका और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की ओर से हर साल जयपुर में आयोजित की जाती है।
अपन भी उनको सुनने गए, भई दिल जीत लिया अपन के पोनी टेल वाले तेजपाल जी ने। उनका पूरा व्याखान सुनकर अपन को लगा कि वे न सिर्फ राजनीति और खबर की समझ रखते बल्कि धर्म और इतिहास में भी उनका हाथ तगडा वाला मजबूत है। अपन को लगा कि पत्रकारिता से जुडे लोगों को तो यह भाषण पूरा सुनना चाहिए था पेश है उनके व्याख्यान के कुछ अंश...
25 साल के पत्रकारिता अनुभव वाले तेजपाल भी बोले कि छोटे शहरों के युवा बडे शहरों के लडकों से कहीं ज्यादा होनहार होते हैं। इसलिए मैं हमेशा हिंदी बोलने वाले इन यूपी, बिहार, राजस्थान के लडकों को तरजीह देता हूं (हो सकता है राजस्थान तो इसलिए बोल दिया कि वे जयपुर में बोल रहे थे।)
उन्होंने कहा कि उन पर इमरजेंसी का इम्पैक्ट था, और वे देश की उस पहली पढी लिखी पत्रकार पीढी में से थे, जिन्होंने पत्रकारिता को ही बतौर करियर चुना। अपने अनुभव सुनाते हुए उन्होंने कहा कि उनके पिता चाहते थे कि वे ऑक्सफोर्ड में आगे की पढाई करें, लेकिन उन्होंने साफ कर दिया कि वो भारत में ही रहना चाहते है। वे जो करना चाहते हैं वो यही संभव था।
उन्होंने कहा कि सत्ता और पैसे के दुरुपयोग पर निगरानी रखना ही पत्रकारों का काम है। पत्रकारों का काम यह नहीं है कि अमिताभ क्या पहनते हैं, करीना का किससे चक्कर चल रहा है। यह मानव की सहज जिझासा हो सकती है, लेकिन पत्रकारीय धर्म नहीं है।
इसके अलावा उन्होंने एक मजेदार बात कही जिस पर युवा तो युवा बुर्जुगों ने भी हां में हां मिलाई कि बच्चों को बडों की बात सुननी चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे आंख मूंद कर उस पर विश्वास कर नहीं करना चाहिए।
पं: झाबरमल्ल, जिनकी स्मृति में यह व्याखानमाला आयोजित की गई।
भारत के सामने बढती चुनौतियों की बात करते हुए तरुण तेजपाल ने कहा कि सेनसेक्स के बढने को ही हमें समृदिध का प्रतीक नहीं मान लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैंने खुद भी न्यूज वीक में भारतीय विशेषांक में लिखा कि भारत में इकोनोमिक रिर्सजेंट हो रहा है, भारतीय खुलकर भी लोगों के सामने आ रहे हैं लेकिन अभी एक अरब 15 करोड के देश में सिर्फ 20 मिलियन लोगों के पास ही बताने के लिए नई कहानी है। देश के अस्सी करोड लोग आज भी 40 रुपए से कम रोजना में जिंदगी जी रहे हैं। उन्होंने कहा कि उडीसा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट और बिहार समेत पांच बडे राज्यों में गरीबों की संख्या हर साल बढती जा रही है। उन्होंने कहा कि देश में अनइक्वल सोसाइटी है, इसलिए देश के करीब 32 फीसदी जिले नक्सलवाद के शिकार होते जा रहे हैं। सांप्रदायिकता बढती जा रही है।
उन्होंने कहा कि अंग्रेजी अखबारों में पहले रुरल ब्यूरो होता था, जो गांवों खेती से जुडे की इश्यूज को कवर करता था, लेकिन आज यह नहीं हो रहा। यह भयानक गलती है और इसमें सुधार की तुरंत आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि गरीब के लिए न्याय अलग तरह से होता है और अमीर के लिए न्याय अलग।
मीडिया को गरीब का साथ देना चाहिए क्योंकि अमीर के पास तो जुबान है, पैसा है वह अपनी बात आगे तक रख सकता है, लेकिन गरीब की बात को ही मीडिया को आगे रखना चाहिए। यानी सत्ता और पैसा नहीं है उसकी आवाज बननी चाहिए।
तहलका की कहानी तेजपाल की जुबानी
इस मौके पर तरुण तेजपाल ने कहा कि 2000 में डॉट काम के जमाने में वे तहलका डॉट कॉम लेकर आए, तो सिर्फ इसलिए कि वे नए जमाने में 1980 की तेज धार वाली पत्रकारिता का पैनापन लाना चाहते थे। उन्होंने कहा कि 13 मार्च 2001 को तहलका की ओर से ऑपरेशन वेस्ट ऐंड में हथियारों की खरीद में घूस के खुलासे के बाद तात्कालीन भाजपा सरकार हाथ धोकर अलोकतांत्रिक तरीके से उनके पीछे पड गई। उस समय तहलका की 120 की टीम सिर्फ चार लोगों में सिमट गई। साथी तीन लोगों को यातनाएं दी गईं, जेल में डाल दिया गया। इन 19 महीनों में उन्होंने वकीलों के चक्कर काटे और सरकार ने घूस लेने वालों के खिलाफ जांच बैठाने की जगह उनके खिलाफ ही वैंकटस्वामी कमीशन बिठा दिया। राम जेठमलानी समेत करीब 30 लोगों ने अलग अलग समय उनकी पैरवी की। उन्होंने कहा कि राम जेठमलानी की पैरवी के दौरान दो दिन में ही उन्होंने कमीशन को पूरी तरह उलझा दिया और आखिर सरकार को कमीशन रदद करना पडा।
उन्होंने कहा कि इसके बाद 2003 में आठ महीने तक पैसे उधार लेकर देशभर में घूमें और जनसभाओं में लोगों से समर्थन मांगा। इस दौरान उन्हें पता चला कि लोगों के दिल में तहलका के लिए इज्जत है और वे अन्याय के खिलाफ अवाज उठाते हुए किसी को देखना चाहते हैं।
इसके बाद उन्होंने 2004 में तहलका अखबार की शक्ल में शुरु किया। उन्होंने कहा कि शायद तहलका ऐसी पहली मीडिया एजेंसी थी, जो बिना लागत के शुरु हुई और 15 हजार लोगों ने एडवांस पैसे देकर तहलका की कॉपी सस्क्राइब कराई।
उन्होंने कहा कि उसके बाद जहीरा शेख के 18 लाख रुपए लेकर बेस्ट बेकरी मामले से पलटने वाली बात को ब्रेक किया।
संजय दत्त के मामले को जब तहलका ने खोला तो संजय के समर्थक कांग्रेसी और दूसरे सांसदों ने उनसे कहा कि संजय दत्त शरीफ आदमी है। पुरानी गलती के लिए उन्हें नहीं फंसाना चाहिए।, लेकिन न्याय दिलाने के लिए ही पत्रकारिता की आवश्यकता है इसलिए ही उन्होंने निजी जिंदगी में संजय को पसंद करने के बावजूद संजय के खिलाफ खबर की।
Saturday, January 5, 2008
इसलिए जरूरी है ब्लॉगिंग का एक रेफरेंस ब्लॉग
साइबर आसमां में हिंदी ब्लॉगों की उडान, लिखते समय मैंने बहुत सारे ब्लॉग फिर सर्च किए। कुल मिलाकर ये समझिए की मैंने लगभग हर उस ब्लॉग इवेंट को याद करने की कोशिश की जो इस बीते साल में हुई थी। अगर मुझे सिर्फ अपने लिए ही लिखना होता तो शायद मैं इतनी मेहनत नहीं करता पर मेरे एक सीनियर ने सिर्फ मेरा ब्लॉग देखकर साल भर की समीक्षा के लिए एडिट पेज पर चल रही श्रंखला के लिए युवा विशेष वाले पेज के लिए ब्लॉग जगत की समीक्षा के रूप में मुझे कुछ लिखने का काम सौंपा।
खबरें कई बार लिखीं पर एडिट पेज पर कुछ लिखना यह मेरे लिए पहली बार था। इसके लिए कई दिग्गज ब्लॉगर्स समीक्षा आदरणीय जीतूजी,मैथिलीजी,यशवंतजी और नीलिमा चौहान और कई मित्रों से संपर्क साधा। हां यशवंतजी और नीलिमाजी की ओर से जानकारी भी उपलब्ध कराई।
मैं चाहता हूं कि ब्लॉग खबरिया में सभी बडे ब्लॉगर्स और उनकी कहानी। ज्यादा नहीं तो कम से कम जो बडे अखबारों में कॉलम लिख रहे हैं या वेबदुनिया की ब्लॉग चर्चा में आ चुके हैं, ताकी हमारा अपना ब्लॉग जगत तेजी से आगे बढे जो लोग ब्लॉग के मामले में कम समझते हैं, जानकारी हासिल कर सकें।
लेकिन कुल मिलाकर मैंने महसूस किया की ब्लॉग जगत की अधिकृत जानकारी देने के लिए कोई मंच नहीं है। अगर आपको कोई आंकडा या अंदाजा चाहिए तो कैसे जुटाएंगे, यह बडी समस्या है। इसलिए मुझे यह आलेख सबमिट करने की आखिरी तारीख 30 दिसंबर तक मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि ब्लॉग की खबर रखने वाला भी एक ब्लॉग होना चाहिए। (हालांकि इस बीच बेनजीर भुटटो के निधन के कारण यह छपा जरूर 3 जनवरी को) मैंने एक ब्लॉग बनाया 'ब्लॉग खबरिया'(http://blogkhabaria.blogspot.com/), हालांकि अभी किसी एग्रीगेटर से अटैच नहीं होने के कारण यह अभी सभी को दिखाई नहीं दे पा रहा।
उम्मीद है आप सभी मेरी बात से सहमत होंगे और आपका आशीर्वाद मिलेगा।
बिल्कुल आपकी मदद ली गई रविजी
आदरणीय रविजी आप ब्लॉगिंग के द्रोणाचार्य हैं। मेरा जैसा नौसिखिया आप जैसे दिग्गजों के नाम सुनकर और सहायता से ही ब्लॉग की तरफ आकर्षित हुआ। साइबर आसमां में हिंदी ब्लॉगों की उडान आलेख आपसे प्रेरित है। बहुत लोगों से बातचीत या मेल के आदान प्रदान के अतिरिक्त मैंने दिलीप मंडल जी और आपके ब्लॉग को रेफरेंस की तरह इस्तेमाल किया। (मंडलजी के रिजोलुशन वाला हिस्सा संपादकजी की कैंची का शिकार हो गया।) जब ब्लॉगजगत की समीक्षा करनी थी तो बिना आपकी मदद के लिए यह कैसे संभव हो पाता। ये बात अलग है कि मैं आपाधापी में आपसे संपर्क नहीं कर पाया।
खबरें कई बार लिखीं पर एडिट पेज पर कुछ लिखना यह मेरे लिए पहली बार था। इसके लिए कई दिग्गज ब्लॉगर्स समीक्षा आदरणीय जीतूजी,मैथिलीजी,यशवंतजी और नीलिमा चौहान और कई मित्रों से संपर्क साधा। हां यशवंतजी और नीलिमाजी की ओर से जानकारी भी उपलब्ध कराई।
मैं चाहता हूं कि ब्लॉग खबरिया में सभी बडे ब्लॉगर्स और उनकी कहानी। ज्यादा नहीं तो कम से कम जो बडे अखबारों में कॉलम लिख रहे हैं या वेबदुनिया की ब्लॉग चर्चा में आ चुके हैं, ताकी हमारा अपना ब्लॉग जगत तेजी से आगे बढे जो लोग ब्लॉग के मामले में कम समझते हैं, जानकारी हासिल कर सकें।
लेकिन कुल मिलाकर मैंने महसूस किया की ब्लॉग जगत की अधिकृत जानकारी देने के लिए कोई मंच नहीं है। अगर आपको कोई आंकडा या अंदाजा चाहिए तो कैसे जुटाएंगे, यह बडी समस्या है। इसलिए मुझे यह आलेख सबमिट करने की आखिरी तारीख 30 दिसंबर तक मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि ब्लॉग की खबर रखने वाला भी एक ब्लॉग होना चाहिए। (हालांकि इस बीच बेनजीर भुटटो के निधन के कारण यह छपा जरूर 3 जनवरी को) मैंने एक ब्लॉग बनाया 'ब्लॉग खबरिया'(http://blogkhabaria.blogspot.com/), हालांकि अभी किसी एग्रीगेटर से अटैच नहीं होने के कारण यह अभी सभी को दिखाई नहीं दे पा रहा।
उम्मीद है आप सभी मेरी बात से सहमत होंगे और आपका आशीर्वाद मिलेगा।
बिल्कुल आपकी मदद ली गई रविजी
आदरणीय रविजी आप ब्लॉगिंग के द्रोणाचार्य हैं। मेरा जैसा नौसिखिया आप जैसे दिग्गजों के नाम सुनकर और सहायता से ही ब्लॉग की तरफ आकर्षित हुआ। साइबर आसमां में हिंदी ब्लॉगों की उडान आलेख आपसे प्रेरित है। बहुत लोगों से बातचीत या मेल के आदान प्रदान के अतिरिक्त मैंने दिलीप मंडल जी और आपके ब्लॉग को रेफरेंस की तरह इस्तेमाल किया। (मंडलजी के रिजोलुशन वाला हिस्सा संपादकजी की कैंची का शिकार हो गया।) जब ब्लॉगजगत की समीक्षा करनी थी तो बिना आपकी मदद के लिए यह कैसे संभव हो पाता। ये बात अलग है कि मैं आपाधापी में आपसे संपर्क नहीं कर पाया।
साइबर आसमां में हिंदी ब्लॉगों की उडान
जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका ग्रुप के हिंदी अखबार डेली न्यूज में 3 जनवरी को हिंदी ब्लॉग जगत पर समीक्षात्मक लेख छपा है। पूरा लेख आप यहां पढ सकते हैं।
हिंदी के गलियारों में ब्लॉग और चिटठाकारिता जैसे शब्द खूब चर्चित हुए, बीते साल भर में ब्लॉग की संख्या 500 से 1500 हो गई, अभिव्यक्ति को मानो पंख लग गए।
हम ब्लॉगिंग को ‘ईवेंट ऑफ द ईयर’ भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। बदलते परिदृश्य में ब्लॉग तेजी से लोकप्रिय हुआ। 2007 की शुरुआत में हिंदी ब्लॉग्स की संख्या करीब 500 थी, जो साल के अंत में 1500 हो गई।
ब्लॉग की जीत में सबसे बडी बात थी यूनिकोड फान्ट का प्रचार प्रसार, जिसने हिंदी चिटठाकारिता को प्राणवायु दी। हिंदी भाषा के डायनमिक फांट से हिंदी फांट को लेकर होने वाली सभी दिक्कतें खत्म हो गईं। अभिव्यक्ति जैसी हिंदी साहित्य की वेबसाइट यूनिकोड में आ गई। गूगल ने हिंदी सर्च और हिंदी वर्तनी की जांच सुविधा गूगल डॉक्स में उपलब्ध कराई। माइक्रो सॉफट ने विस्टा लॉन्च किया, जिससे हिंदी लिखना आसान हो गया और मुफ़्त फ़ॉन्ट परिवर्तक भी जारी किया। लिनिक्स भी पीछे नहीं रहा और भारत में बॉस जारी किया।
गूगल ने हिन्दी चिट्ठाकारों के लिए हिन्दी ट्रांसलिट्रेशन औजार जोड़ दिया। इसके बाद तो मानों हिंदी ब्लॉगिंग को पंख लग गए।
इस साल की सबसे बड़े ब्लाग इवेंट एग्रीगेटर नारद का मोहल्ला ब्लॉग से विवाद और इसके बाद मैथिली गुप्त का नया एग्रीगेटर ब्लागवाणी बनाना है। ब्लॉगवाणी तुरंत ही हिट हो गया और अब ब्लॉगवाणी पर 500 से ज्यादा ब्लॉग रजिस्टर है। अब तो इन चिट्ठासंकलकों यानी एग्रीगेटर्स के बीच जमकर प्रतियोगिताएं चल रही हैं कि कौन ज्यादा से ज्यादा सुविधाएँ दे सकता है। और इससे हिन्दी का ब्लॉग लेखक खुश है पर, उनकी आपसी खींचतान अप्रिय, व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के स्तर पर आ पहुंची थी जिसका अफसोस इस वर्ष हम सभी को रहेगा। संकलक अब हिन्दी चिट्ठों को आसान रोमन लिपि में भी दिखाने लगे।
साल की दूसरी बडी चिटठा हलचल कम्युनिटी ब्लॉग के रूप में भड़ास का जन्म, अचानक यशवंतजी का उसको खत्म करना और उसका पुर्नजन्म लेकर 100 सदस्य बनाना बडा मामला था।
बीते साल की एक और बडी घटना है ब्लागर्स मीट यानी चिटठा मिलन समारोह। इसमें ऑनलाइन पहचान के चलते लोग ऑफलाइन यानी कि साथ बैठकर दोस्ती को आगे बढाने की कोशिश में लग गए। ब्लॉग ने अभिव्यक्ति का एक मंच प्रदान किया।
नौसिखियाओं के साथ साथ साहित्यजगत के बड़े बडे नामधारी ब्लागिंग की दुनिया में आए। साहित्यकार और कथाकार उदय प्रकाश का ब्लाग, अभिनेता आमिर खान का ब्लाग। इसके अलावा ढेरों दिग्गज पत्रकार ब्लॉग लेकर आए।
ब्लॉग पर ऐसे ऐसे सब्जेक्टस पर चिंतन मनन हुआ जिसकी हम कम से कम हिंदी मीडिया में तो कल्पना नहीं कर सकते। हिंदी ब्लॉग्स पर इस साल व्यावसायिकता का सवाल बहुत दमदार तरीके से डिस्कस किया गया। हिंदी ब्लॉगिंग क्या रूप अख्तियार कर रही है और उसका क्या रूप होना चाहिए पर बहस पुरजोर तरीके से हुई है, सराय द्वारा प्रायोजित नीलिमा चौहान और गौरी पालीवाल की हिंदी चिट्ठाकारिता पर की गई रिसर्च भी इसी क्रम में काबिले गौर है। सामाजिक राजनीतिक और नैतिकता से जुडे मसलों पर तीखी बहसों को बहुत तवज्जो मिली ।
जुलाई में चलती रेलगाड़ी से पहला हिन्दी ब्लॉग लिखा गया। इसने हिन्दी में व्यवसायिक चिट्ठाकारी को सफल होने में खासा योगदान भी दिया।
ब्लॉग भी कम्यूनिकेशन का एक माध्यम है अगर इसकी चर्चा भी संचार के दूसरे माध्यमों पर होने लगे तो यह सही मायनों में ब्लॉग की जीत है। इस बात को हम ठीक उसी तरह समझ सकते हैं, जैसे फिल्म समीक्षा अखबार और टेलीविजन पर होती है। इसका मतलब है कि अखबार या टेलीविजन चैनल दोनों को पता है कि फिल्में अहम हैं और उसकी समीक्षा की जानी चाहिए। ब्लॉग की समीक्षा की शुरुआत को इसी परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चहिए कि ब्लॉग जगत में क्या चल रहा है, इससे लोग इत्तेफाक रखने लगे हैं।
हिन्दी ब्लॉग जगत में पत्रकारों के पदार्पण के बाद पहले प्रिंट मीडिया और फिर इलेक्टॉनिक मीडिया में हिन्दी ब्लॉगों के चर्चे होने लगे। यूं तो हलचल पहले भी हो रही थी, परंतु राष्ट्रीय अख़बार में पहली पहल हिन्दुस्तान टाइम्स में हुई, और बाद में एनडीटीवी के शनिवार सुबह के कार्यक्रमों में हिन्दी ब्लॉगों के अच्छे खासे चर्चे होते रहे। कादंबिनी में ब्लॉग पर लेख छपा, हिंदी अखबारों में ब्लॉग पर नियमित कॉलम शुरू हुए। जनसत्ता में टीवी पत्रकार और मोहल्ला वाले अविनाश ब्लॉग समीक्षा लिखते हैं। मतलब, हिंदी भाषियों की भावनाओं को ऑनलाइन पंख लग गए हैं। उम्मीद कीजिए, रोजगार का नया क्षेत्र खुलने वाला है।
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