Wednesday, April 1, 2009

मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार!

आठ साल की एक लड़की के एक मर्डर के बाद घटनास्थल से लौटे एक साथी रिपोर्टर ने यह टिप्पणी की तो मैं चौंक गया। मैंने पूछा क्या हुआ यार। अखबार में काम करते हैं तो हत्या, बलात्कार जैसी चीजों से रोज रोज वास्ता पड़ता है। और एक क्राइम रिपोर्टर यह कहे कि मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार, तो सूट नहीं करता।
पूरी बात सुनी तो मैं भी उसकी बात से सहमत था। असल में जयपुर में बुधवार रात करीब आठ बजे घरवालों को घर के पिछवाड़े में ही आठ साल की मासूम बेटी का शव पड़ा मिला। छह भाई बहनों में सबसे छोटी चौथी क्लास में पढ़ने वाली रिषिता की किसी ने गला दबाकर हत्याकर दी। रात करीब दस बजे मीडियाकर्मी उसके घर पहुंचे।
बच्ची के पिता से सवाल करने लगे। कैसे क्या हुआ। आपको किस पर शक। एक बाप जिसकी आठ साल की बच्ची की हत्या हुई थी, शव उसके पास ही पड़ा है। हो सकता है किसी ने कुकर्म की कोशिश भी की हो। ऐसे में बाप क्या बोल पाता। हर शब्द के बाद रुआंसा हो उठता। इतने में किसी टीवी पत्रकार ने पीछे से जोर से कहा जरा जोर से बोलिए।
हो सकता है किसी को मेरी बात बुरी लगे। पर मेरे साथी रिपोर्टर को शायद यही बात खल गई, कि ऐसे में बाप से ही क्या सब कुछ पूछना जायज है। इधर-उधर किसी ओर से भी पूरी बात मालूम की जा सकती है। पर टीवी पर शायद बाप का फुटेज ज्यादा प्रभावित करता। टीवी पत्रकारों की इस मजबूरी ने शायद उस पत्रकार को विवश किया हो।
पर अपने ही साथियों की हरकत से परेशान एक युवा क्राइम रिपोर्टर ने ऐलान कर दिया कि मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार।

10 comments:

Anil Kumar said...

साठ साल में जिस तरह "नेता" कहलाना गरूर से गाली बन गया, इसी तरह अगले कुछ सालों में "पत्रकार" कहलाना भी कहीं गाली न बन जाये!

दिनेशराय द्विवेदी said...

आखिर सब से अधिक आहत व्यक्ति जो अभी होश में भी नहीं। उसे टीवी पर प्रस्तुत करना क्या भदेसपन नहीं है। लगता है यह भदेसपन धीरे धीरे पूरे समाज में व्याप्त होता जा रहा है।

Udan Tashtari said...

पेशेगत मजबूरियाँ हैं-जीना सीखना होगा आपके मित्र को इनके साथ अन्यथा तो जो निर्णय लिया है वही रास्ता है.

संगीता पुरी said...

हर क्षेत्र के प्राइवेटाइजेशन होने से इस प्रकार की अनेक पेशेगत मजबूरियां सामने आएंगी ... हमें जीना तो पडेगा ही न।

निशाचर said...

भैया, अभी तक जूता लेकर चढाई नहीं की न किसी ने इन साडे का तेल बेचने वालों पर इसी लिए बौराए हुए हैं............

varsha said...

peshegat majboori nahin yah sanvednaon ka mar jana hai.

Ashish Maharishi said...

एक ऐसा ही वाकया मेरे साथ इंदौर में हुआ था। अमेरिका में एक बैंक मैनेजेर के बेटे की मौत हो गई थी और मुझे उनके मां बाप से पूरी डिटेल निकालनी थी। बहुत तकलीफदायक था वह सब।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

शुक्र है ...उसने नहीं कहा कि जोर जोर से रो के दिखा.

Arkjesh said...

peshe men samvedasheelata aur kaam ke beech saamjasya karana seekhanaa padata hai.

aise peshon men samvedansheelata ko bacha paana badi chunauti hai.

aise hi samaaj ke andheron ko ujaagar karate rahiye...

कडुवासच said...

... नजरिया को व्यवहारिक बनाकर कार्य करना उचित जान पडता है, खासतौर पर संवेदनशील मुद्दों पर यह अत्यंत आवश्यक है।