Saturday, February 28, 2009
यार, किसी कॉलगर्ल का नंबर दे !
एक पुराना दोस्त घर आया। पहले एक कोचिंग सेंटर खोल रखा था, कुछ नया करने की सूझी तो इंश्योरेंस कंपनी ज्वाइन कर ली। मेरा फेवर चाहता था तो कुछ रेंफरेंस मांगने लगा। मैंने कहा यार ये इंश्योरेंस एजेंट इतने हो गए हैं कि आजकल हर घर में कोई न कोई मिल ही जाता है। तो बोला यार ऐसा कर किसी कॉलगर्ल का नंबर दे।
मैंने कहा यार मुझे क्या पता
बोला यार पत्रकार हो, तुम्हारे तो लिंक होते हैं, कहीं कोई पकडी गई होगी, किसी से जान पहचान होगी। मैंने कहा तुझे क्या करना है।
बोला, इंश्योरेंस करना है!
मैंने कहा कॉलगर्ल के इंश्योरेंस का क्या फंडा है
बोला यार काम के साथ साथ समाजसेवा भी करो, मैंने कहा इसका मतलब बोला कि इंश्योरेंस उस आदमी को बेचो जिसको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत हो। मैंने कहा कि कॉलगर्ल ही क्यूं
बोला यार चालीस पार कौनसी कॉलगर्ल काम की रहती है, न जॉब सिक्योरिटी न कोई सामाजिक प्रतिष्ठा इसलिए इंश्योरेंस की जरूरत तो सबसे ज्यादा उन्हें ही है। और कंपनी को क्या फर्क पडता है कि इंश्योरेंस का खरीदार कौन है। मैंने कहा बात तो सही है।
वो कहने लगा कि काम करो पर नए स्टाइल से, शायद ये यूनिक आइडिया है और इसके हिसाब से ही मेरा काम आगे बढ जाए। मैंने कहा सही है पर यार अपन के पास ऐसा कोई रेफरेंस नहीं है।
फिर उसने सुनाया कॉलगर्ल को इंश्योरेंस पॉलिसी समझाने का पहला किस्सा
आप भी गौर फरफाइये
बोला किसी से रेफरेंस लेकर नंदपुरी में एक ब्यूटी पार्लर की आड में चल रहे अडडे में कॉलगर्ल से मिलने गया। वहां जाकर फोन किया। वो नीचे आने को तैयार नहीं हुई तो ऊपर चला गया। दिल में धुकधुकी थी कि किसी ने देख लिया या रेड पडी तो क्या होगा। मुलाकाता नहीं थी तो उसने अंदर पहुंचने पर मिसकॉल करके देखा। मिलने के लिए आई समझाने की कोशिश की तो बोली हम पढे लिखे नहीं है, ये सब नहीं समझते आपको सॉरी बोलते हैं इसके लिए।
दोस्त कहता है कि इससे पहले कोई एक बॉडी बिल्डर कमरे से निकलकर बाहर आ गया था, वह डर के मारे कांप रहा था। कहीं बाहर निकलते ही पीट न दे। खैर वो थैंक्स बोलकर बाहर निकल आया। बाइक स्टार्ट की और चौराहे पर पहुंचकर बंद कर ली। पांच मिनट रुका एक पुडिया खाई और फिर जाकर दम लिया। यह कॉलगर्ल से मिलने के बाद की हालत थी , फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी है।
उसी क्रम में मुझ से ही पूछ लिया कि कॉलगर्ल का नंबर है क्या, उसे उम्मीद है कि एक बार वह कॉलगर्ल को कन्वेंस करने में कामयाब हो गया तो बस उसकी निकल पडेगी।
Friday, February 27, 2009
जरा सा बदलाव
नाचना मेरे बस की बात नहीं है। पर आजकल मैं अपनी कमियां दूर करने में लग रहा हूं। दोस्तों की शादियों में उनके घरवालों की यही शिकायत रहती थी कि तुम लोग काम बहुत करते हो, समझदार हो पर डांस वैगरह नहीं करते। थोडा एंजाय भी किया करो, इस बार एक दोस्त की शादी में मैं भी कूद पडा डांस करने
सारी शर्म हया छोडकर इतना डांस किया कि अगले दिन शाम तक पैरों में दर्द होता रहा, पर एक बात जो मुझे समझ में आई कि जिंदगी में जरा सा बदलाव भी ताजगी ला देता है।
जिंदगी में छोटी छोटी बाते नयापन लाती हैं। मुझे हमेशा यही झिझक रहती थी कि डांस की प्रोपर टेनिंग नहीं ली तो लोग यूं ही उछलते कूदते देखकर हसेंगे। यूं भी शादी में मैं पूरे समय रहता था पर एक कोने में खडे होकर लोगों को डांस करते देखता था, पर इस बार मैं डांस करने वालों के बीच था। इतना नाचा कि पसीने में तरबतर और सूट से शर्ट में आ गया। बस फिर क्या था, मेरे डांस की फोटो एक दोस्त न ऑरकुट पर लगाई है और कैप्शन दिया है कि सब पियेले हैं।
चलिए इस बहाने ही सही
सभी मस्त होकर नाचते तो नजर आए ।
Wednesday, February 25, 2009
स्लमडॉग से आगे की कहानी है दिल्ली-6
दिल्ली 6 वहां से शुरू होती है, जहां स्लमडॉग मिलेनियर खत्म होती है। स्लमडॉग में भारत की गंदगी और गरीबी दिखाई है वहीं दिल्ली 6 में भारतीयों का प्यार दिखाया गया है।
फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि रोशन यानी अभिषेक बच्चन अपनी दादी यानी वहीदा रहमान को भारत छोडने आता है। दादी की अंतिम इच्छा है कि वह अपने देश में अपने मकान में ही मरे। घरवाले सभी अमेरिका रहते हैं पर वो अपने देश में ही मरना चाहती हैं। रोशन दादी को लेकर भारत आता है और यहां कि संस्कृति से रूबरू होता है और पडोसियों और मोहल्ले वालों के प्यार से रूबरू होता है।
फिल्म की कहानी को आगे बढाने के लिए सहारा लिया गया है काले बंदर और रामलीला का। जिसकी कहानी स्टोरी के साथ साथ आगे बढती रहती है। इसी दौरान रोशन को अपनी पडोसन बिटटू से प्यार हो जाता है। बिटटू सीधी साधी भारतीय लडकी है, जो अपनी खुद की पहचान बनाना चाहती है, वह इंडियन आइडल में सलेक्ट होकर सिंगर बनना चाहती है। पर घर शादी के लिए पिता का विरोध भी नहीं कर सकती, इसलिए जहर पीने का डामा करती
है।
उधर रोशन भारत को समझने की कोशिश करता है, अपनी दादी की मदद के लिए इतने पडोसियों को देखकर कहता है कि वो अमेरिका में अपनों के पास थीं या यहां अपनों के पास हैं।
बुराई का प्रतीक काला बंदर फिल्म का मेन कान्सेप्ट है, इसी के जरिए डायरेक्टर ने कई संदेश देना का महत्वपूर्ण काम किया है।
बस पूरी फिल्म में कई गडबडझाले हैं, जैसे काले बंदर वाली मेन ईवेंट अगर 95 के आसपास की थी, तो टीवी में जिन दूसरी खबरों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे चंद्रयान 2008 की हैं। कहानी उसी समय की बताकर कुछ चीजे नए जमाने की हैं जैसे दिल्ली मेटो। पर कुल मिलाकर राकेश मेहरा ने एक काले बंदर के सहारे समाज को कई बडे संदेश देने का काम किया है। इस फिल्म में भी बहुत सारी दूसरी फिल्मों की तरह कहानी को स्थापित करने के लिए टीवी चैनलों का भरपूर प्रयोग किया गया है। पर मंकीमैन के समय आईबीएन सेवन दिखाते हैं, खटकता है। गाने बहुत ही कर्णप्रिय हैं और बोल बहुत प्यारे हैं। मसकली और गेंदाफूल तो बजोड हैं, वैसे सही मायनों में आस्कर की एंटी के लिए एक संपूर्ण भारतीय फिल्म तो यही है। सही मायने में इस दौर में आई ये दो फिल्में स्लमडॉग और दिल्ली 6 मिलाकर भारत की सही तस्वीर बनाती हैं।
फिल्म में कई नए प्रयोग हैं, गाने हीरो हिरोइन नहीं गाते शायद बैकग्राउंड में चलते हैं। अपने करियर में अभिषेक इस फिल्म में सबसे खूबसूरत नजर आए हैं, फिल्म में भी अपनी कंपनी मोटोरोला के हैंडसेट का प्रचार करते रहते हैं। सीधी सादी से कहानी को खूबसूरती से पिरोया है। जैसे कि दिल्ली 6 टाइटल का मतलब पिनकोड के हिसाब से दिल्ली के चांदनी चौक इलाके से है उसी तरह कई चीजें सामान्य सी हैं पर उनके पीछे सामान्य सा कान्सेप्ट है, जैसे चंद्रयान को सेक्स का प्रतीक बताया गया है।
Wednesday, February 4, 2009
चवन्नी चैप के ब्लॉग पर मैं
वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रहामत्ज ने इस बार अपने ब्लॉग चवन्नी चैप में हिंदी टाकिज सीरिज लिखने के लिए मुझे मौका दिया है। यह पूरा की पूरा मैटर मैं यहां भी लगा रहा हूं। पूरी सीरिज उनके ब्लॉग पर उपलब्ध है।
अजयजी ने मुझे मौका दिया मैं इसके लिए उनका आभारी हूं।- राजीव जैन
हिंदी टाकीज
कभी सोचा नहीं था कि फिल्म देखने और उससे जुडे अनुभव लिखने का मौका मिलेगा। पर एक दिन अजयजी सर का मेल मिला कि आप हिंदी टाकीज के लिए एक कडी लिखिए तो ऑफ के दिन समय निकालकर यादें ताजा करने बैठ गया। कोशिश की है कि फिल्मों से जुडे कुछ अच्छे बुरे अनुभव आपके साथ बांट सकूं।
राम तेरी गंगा मैली
मुझे अब याद नहीं कि इस फिल्म में क्या था, मैं शायद तब बमुश्किल छह-सात साल का रहा होगा। पर यह मेरी पहली फिल्म होने के साथ साथ ऐसी इकलौती फिल्म है जो मैंने अपने पूरे परिवार के साथ देखी हो। पापा, मां, दादी और हम दोनों भाइयों को लेकर शायद इसलिए यह फिल्म दिखाने ले गए हों कि फिल्म का टाइटल ‘राम तेरी गंगा मैली’ था। अगर फिल्म का पोस्टर न देखा हो तो फिल्म न देखने वाले को धार्मिक फिल्म जैसा अहसास देता है। खैर मुझे एक दो सीन याद आ जाते हैं और यह भी याद है कि हम फिल्म खत्म होने से थोडा पहले ही ही उठकर चले आए, ताकी फिल्म खत्म होने के बाद बाहर निकलने के लिए धक्का-मुक्की न करनी पडे।
मेरी पहली फिल्म
इसके बाद मैं शायद स्कूल से ही पहली बार फिल्म देखने गया था। शायद फिल्म का नाम छोटा जादूगर था। हमें सातवीं और आठवीं में साल में एक बार टॉकिज ले जाया जाता था। टैक्स फ्री फिल्म थी सो टिकट भी दो या तीन रुपए से ज्यादा नहीं होता था। क्यूंकि उस समय हमारे शहर में पांच रुपए के आसपास तो पूरा टिकट ही था।
इन दिनों वैसे मैं फिल्में भले ही न देखता रहा हों, लेकिन फिल्म के पोस्टर जरूर देखता था। क्यूंकि हमारी स्कूल बिल्डिंग के एक कॉर्नर में ही पोस्टर लगाए जाते थे।
प्रचार का अनोखा स्टाइल
उस समय फिल्म के प्रचार का स्टाइल भी अब के स्टाइल से थोडा अलग हुआ करता था। एक उदघोषक महोदय रिक्शे में बैठकर निकलते थे और एक फिल्मी गाने के साथ साथ बीच बीच में माइक पर चिल्लाते हुए जाते थे ‘आपके शहर के नवरंग टाकिज में लगातार दूसरे सप्ताह शान से चल रहा है आंखें। आप देखिए अपने परिवार यार दोस्तों को दिखाइये। फिल्म में हैं गोविंदा::, चंकी पांडेय।‘ इसी का असर था कि हम स्कूल से पैदल लौटते हुए भी इसी तरह चिल्लाते हुए अपने मौहल्ले तक पहुंचते थे।
एग्जाम के बाद फिल्म का साथ
नवीं क्लास के बाद हम लोग बडे बच्चों की गिनती में आ गए थे। वैसे टाकिज तक तो मैं रोज जाता था। मेरे शहर कि सार्वजनिक लाइब्रेरी भी उसी बिल्डिंग में ही थी और मैं दसवीं तक रोज लाइब्रेरी रोज जाता था। दसवीं और उसके बाद तो एग्जाम के बाद पिक्चर देखना जाना बीएससी फाइनल ईयर के लास्ट एग्जाम तक उत्सव की तरह चला। यही वह दिन होता था जब मां को कहकर जाते कि खाना जल्दी बना दो पिक्चर देखने जाना है और छह से नौ बजे के शो के लिए भी वो कुछ न कहती थीं।
कोटा और हर टेस्ट
पीएमटी के लिए एक साल डॉप किया और कोचिंग करने हम कई दोस्त कोटा चले गए। कोचिंग में हर सात या चौदह दिन में रविवार को यूनिट के हिसाब से टेस्ट होता था। इसकी रैंकिंग लिस्ट भी बनती थी। यानी टैस्ट होने तक मारकाट मची रहती थी। संडे को 3से 5 बजे तक टेस्ट हुआ करता था। और उसके बाद छह से नौ बजे तक के शो के लिए हम लोग ऑटो करके टॉकिज तक सबसे पहले पहुंचने की कोशिश करते। इस साल जितनी फिल्में मैंने टाकिज में देखीं उतनी एक साल में अभी तक कभी नहीं देखीं। घर से बाहर मनोरंजन का इकलौता साधन यही हुआ करता था। फिल्म के बाद लौटते और खाना खाकर सो जाते अगले दिन से पिफर वही भागदौड।
इस दौर में जुडवा जैसी हिट फिल्म भी देखी, तो जैकी श्राफ की भूला देनी वाली फिल्म ‘’ भी देख डाली। जुडवां की टिकट खिडकी पर मैंने पहली बार कोटा के टॉकिज में लोगों को डंडे खाते देखा।(मेरे अपने गांव राजगढ में टिकट जुगाडना मेरे लिए बडी बात नहीं थी। हमारे शहर का लाइब्रेरियन ही पार्ट टाइम टिकट कीपर हुआ करता था) बाद में इंतजार इतना करना पडा कि छह से नौ की टिकट नहीं मिली तो जुडवा का नौ से बारह बजे का शो देखना पडा।
एक फिल्म और कई दिन की चुप्पी
फायर एक ऐसी फिल्म थी जिसने मेरे घर में काफी गफलत कराई। शायद बीएससी सैकंड ईयर की बात थी। मम्मी पापा शहर से बाहर थे। मैं और मेरा बडा भाई घर पर थे। भाई ने हम दोनों का खाना बनाया। मां घर पर नहीं होती तो हमेशा ऐसा ही होता था। इतने में मेरा एक दोस्त आया और बोला कि तगडी फिल्म लगी है फायर, देखने चलें क्या। मैंने उसके बारे में सुन रखा था, इसलिए मैंने उसे मना किया। मैंने कहा कि भाई को बोलकर चलेंगे क्या? पता नहीं कैसे हुए कि भाई के दोस्तों ने भी फिल्म का प्लान बना रखा था। मेरी तो अपने भाई से ज्यादा खुला हुआ नहीं था पर मेरे दोस्त ने उनसे कहा कि हम फिल्म देखने जा रहे हैं आप भी चलो। उन्होंने कहा कि हां मुझे भी जाना है। मेरे हिसाब से उन्हें तब तक फायर की स्टोरी लाइन का पता नहीं था। हम दोनों चले गए। छोटा शहर था एक ही हॉल था बॉक्स में 25 के आसपास ही सीट थी। हम दोनों भाई एक लाइन में ही आगे पीछे ही बैठे थे। फिल्म में जब शबाना आजमी और नंदिता दास के अंतरंग दृश्य आने लगे तो मैंने दोस्त से कहा यार चल यहां से भाई भी यही हैं, अच्छा नहीं लगता। दोस्त नहीं उठा, हम कुछ करते इससे पहले ही हमारे भाई की मित्र मंडली में से मेरे भाई सहित कुछ लोग बाहर चले गए। और मैं नौ बजे पूरी फिल्म देखकर ही घर लौटा। भाई ने लौटने के बाद कुछ नहीं पूछा, घर में शांति रही। और हम दोनों भाइयों ने शरमाशर्मी में कई दिन तक आपस में बात भी नहीं की।
मेरी दिल्ली 2002 से 2005 तक दिल्ली-नोएडा रहा। तीन साल में टॉकिज पर बमुश्किल आठ-दस फिल्में देखी होंगी, लेकिन अगर टीवी पर देखी गई फिल्में मिलाकर कहूं तो शायद अपने जीवन की सबसे ज्यादा फिल्में मैंने इन्हीं दिनों में देखीं।
दिल्ली में शुरुआती दिन थे, मैं दिल्ली के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता था। ऑफ वाले दिन मयूर विहार से सीधी बस में बैठकर कनॉट प्लेस के लिए निकलता। रीगल में अगर कोई ठीकठाक फिल्म होती तो देख लेता, क्यूंकि अकेले या किसी एक और दोस्त के साथ कहीं और टॉकिज ढूंढने से अच्छा यही होता। अग्निवर्षा जैसी फिल्म मैंने इसी टाकिज में देखी। कोंडली से दरियागंज में गोलछा तक पहुंचना आसान हुआ करता था, देवदास इसी हॉल में देखी गई।
इन्हीं दिनों की बात है मुगल ए आजम कलर में दोबारा रिलीज हुई। अट़टा पर नोएडा में पहला मल्टीप्लेक्स बनकर तैयार हुआ। बचपन से ही इस फिल्म को बडे पर्दे पर देखने की इच्छा थी। इसलिए री रिलीज के अगले दिन ही हम देखने पहुंच गए। फिल्म में मजा भी आया पर मेरे पीछे बैठे एक प्रेमी युगल की कलाकारी और फिल्म में उर्दू के डायलॉग का मजाक उडाना बीच बीच में परेशान करता रहा।
एमजेएमसी की मस्ती
सही मायनों में फिल्म को मस्ती करते हुए एंजाय करना मैंने इन्हीं दिनों में सीखा । सत्तर अस्सी रुपए से ज्यादा की टिकट खरीदकर ग्रुप में फिल्म देखने का मजा यहीं लिया। धूम और रंग दे बसंती जैसी फिल्में देखीं। सही मायनों में यही वही ऐज थी जब मैं नौकरी करते हुए फिर से कॉलेज लाइफ जी रहा था और हम एक साथ लडके, लडकियां यूनिवर्सिटी के बाद आमतौर पर बिना किसी को बताए हुए ही फिल्म चले जाते थे।
पीसी और फिल्में
2005 और उसके बाद सीडिज इतनी सुलभ हो गई कि कई सालों से जिन जिन फिल्मों का नाम सुना था, देख नहीं पाया। वे सभी कम्प्यूटर पर देखीं। वाटर, मैंने गांधी को नहीं मारा, निशब्द जैसे विवादास्पद फिल्में शामिल है। और अब लैपटॉप लेने के बाद तो फिल्म देखना और आसान हो गया है। मैंने जुरासिक पार्क से लेकर पुरानी देवदास तक जो मेरा मन करता है। कहीं से भी पैन डाइव सीडी, नेट या किसी की हार्ड डिस्क कॉपी करके देखीं। दो घंटे या उससे थोडे ज्यादा में फिल्म खत्म। यानी कुल मिलाकर अब फिल्म देखना आसान हो गया है।
:::और अब
टाकिज में अकेले जाने का मन नहीं करता और फिल्म देखना इतना महंगा हो गया है कि अब सावरिया, गजनी, वैलकम टू सज्जनपुर जैसे अच्छी और बडे बजट वाली फिल्में ही टॉकिज में देखता हूं। बाकी लैपटॉप पर देखकर ही काम चला लेता हूं।
अजयजी ने मुझे मौका दिया मैं इसके लिए उनका आभारी हूं।- राजीव जैन
हिंदी टाकीज
कभी सोचा नहीं था कि फिल्म देखने और उससे जुडे अनुभव लिखने का मौका मिलेगा। पर एक दिन अजयजी सर का मेल मिला कि आप हिंदी टाकीज के लिए एक कडी लिखिए तो ऑफ के दिन समय निकालकर यादें ताजा करने बैठ गया। कोशिश की है कि फिल्मों से जुडे कुछ अच्छे बुरे अनुभव आपके साथ बांट सकूं।
राम तेरी गंगा मैली
मुझे अब याद नहीं कि इस फिल्म में क्या था, मैं शायद तब बमुश्किल छह-सात साल का रहा होगा। पर यह मेरी पहली फिल्म होने के साथ साथ ऐसी इकलौती फिल्म है जो मैंने अपने पूरे परिवार के साथ देखी हो। पापा, मां, दादी और हम दोनों भाइयों को लेकर शायद इसलिए यह फिल्म दिखाने ले गए हों कि फिल्म का टाइटल ‘राम तेरी गंगा मैली’ था। अगर फिल्म का पोस्टर न देखा हो तो फिल्म न देखने वाले को धार्मिक फिल्म जैसा अहसास देता है। खैर मुझे एक दो सीन याद आ जाते हैं और यह भी याद है कि हम फिल्म खत्म होने से थोडा पहले ही ही उठकर चले आए, ताकी फिल्म खत्म होने के बाद बाहर निकलने के लिए धक्का-मुक्की न करनी पडे।
मेरी पहली फिल्म
इसके बाद मैं शायद स्कूल से ही पहली बार फिल्म देखने गया था। शायद फिल्म का नाम छोटा जादूगर था। हमें सातवीं और आठवीं में साल में एक बार टॉकिज ले जाया जाता था। टैक्स फ्री फिल्म थी सो टिकट भी दो या तीन रुपए से ज्यादा नहीं होता था। क्यूंकि उस समय हमारे शहर में पांच रुपए के आसपास तो पूरा टिकट ही था।
इन दिनों वैसे मैं फिल्में भले ही न देखता रहा हों, लेकिन फिल्म के पोस्टर जरूर देखता था। क्यूंकि हमारी स्कूल बिल्डिंग के एक कॉर्नर में ही पोस्टर लगाए जाते थे।
प्रचार का अनोखा स्टाइल
उस समय फिल्म के प्रचार का स्टाइल भी अब के स्टाइल से थोडा अलग हुआ करता था। एक उदघोषक महोदय रिक्शे में बैठकर निकलते थे और एक फिल्मी गाने के साथ साथ बीच बीच में माइक पर चिल्लाते हुए जाते थे ‘आपके शहर के नवरंग टाकिज में लगातार दूसरे सप्ताह शान से चल रहा है आंखें। आप देखिए अपने परिवार यार दोस्तों को दिखाइये। फिल्म में हैं गोविंदा::, चंकी पांडेय।‘ इसी का असर था कि हम स्कूल से पैदल लौटते हुए भी इसी तरह चिल्लाते हुए अपने मौहल्ले तक पहुंचते थे।
एग्जाम के बाद फिल्म का साथ
नवीं क्लास के बाद हम लोग बडे बच्चों की गिनती में आ गए थे। वैसे टाकिज तक तो मैं रोज जाता था। मेरे शहर कि सार्वजनिक लाइब्रेरी भी उसी बिल्डिंग में ही थी और मैं दसवीं तक रोज लाइब्रेरी रोज जाता था। दसवीं और उसके बाद तो एग्जाम के बाद पिक्चर देखना जाना बीएससी फाइनल ईयर के लास्ट एग्जाम तक उत्सव की तरह चला। यही वह दिन होता था जब मां को कहकर जाते कि खाना जल्दी बना दो पिक्चर देखने जाना है और छह से नौ बजे के शो के लिए भी वो कुछ न कहती थीं।
कोटा और हर टेस्ट
पीएमटी के लिए एक साल डॉप किया और कोचिंग करने हम कई दोस्त कोटा चले गए। कोचिंग में हर सात या चौदह दिन में रविवार को यूनिट के हिसाब से टेस्ट होता था। इसकी रैंकिंग लिस्ट भी बनती थी। यानी टैस्ट होने तक मारकाट मची रहती थी। संडे को 3से 5 बजे तक टेस्ट हुआ करता था। और उसके बाद छह से नौ बजे तक के शो के लिए हम लोग ऑटो करके टॉकिज तक सबसे पहले पहुंचने की कोशिश करते। इस साल जितनी फिल्में मैंने टाकिज में देखीं उतनी एक साल में अभी तक कभी नहीं देखीं। घर से बाहर मनोरंजन का इकलौता साधन यही हुआ करता था। फिल्म के बाद लौटते और खाना खाकर सो जाते अगले दिन से पिफर वही भागदौड।
इस दौर में जुडवा जैसी हिट फिल्म भी देखी, तो जैकी श्राफ की भूला देनी वाली फिल्म ‘’ भी देख डाली। जुडवां की टिकट खिडकी पर मैंने पहली बार कोटा के टॉकिज में लोगों को डंडे खाते देखा।(मेरे अपने गांव राजगढ में टिकट जुगाडना मेरे लिए बडी बात नहीं थी। हमारे शहर का लाइब्रेरियन ही पार्ट टाइम टिकट कीपर हुआ करता था) बाद में इंतजार इतना करना पडा कि छह से नौ की टिकट नहीं मिली तो जुडवा का नौ से बारह बजे का शो देखना पडा।
एक फिल्म और कई दिन की चुप्पी
फायर एक ऐसी फिल्म थी जिसने मेरे घर में काफी गफलत कराई। शायद बीएससी सैकंड ईयर की बात थी। मम्मी पापा शहर से बाहर थे। मैं और मेरा बडा भाई घर पर थे। भाई ने हम दोनों का खाना बनाया। मां घर पर नहीं होती तो हमेशा ऐसा ही होता था। इतने में मेरा एक दोस्त आया और बोला कि तगडी फिल्म लगी है फायर, देखने चलें क्या। मैंने उसके बारे में सुन रखा था, इसलिए मैंने उसे मना किया। मैंने कहा कि भाई को बोलकर चलेंगे क्या? पता नहीं कैसे हुए कि भाई के दोस्तों ने भी फिल्म का प्लान बना रखा था। मेरी तो अपने भाई से ज्यादा खुला हुआ नहीं था पर मेरे दोस्त ने उनसे कहा कि हम फिल्म देखने जा रहे हैं आप भी चलो। उन्होंने कहा कि हां मुझे भी जाना है। मेरे हिसाब से उन्हें तब तक फायर की स्टोरी लाइन का पता नहीं था। हम दोनों चले गए। छोटा शहर था एक ही हॉल था बॉक्स में 25 के आसपास ही सीट थी। हम दोनों भाई एक लाइन में ही आगे पीछे ही बैठे थे। फिल्म में जब शबाना आजमी और नंदिता दास के अंतरंग दृश्य आने लगे तो मैंने दोस्त से कहा यार चल यहां से भाई भी यही हैं, अच्छा नहीं लगता। दोस्त नहीं उठा, हम कुछ करते इससे पहले ही हमारे भाई की मित्र मंडली में से मेरे भाई सहित कुछ लोग बाहर चले गए। और मैं नौ बजे पूरी फिल्म देखकर ही घर लौटा। भाई ने लौटने के बाद कुछ नहीं पूछा, घर में शांति रही। और हम दोनों भाइयों ने शरमाशर्मी में कई दिन तक आपस में बात भी नहीं की।
मेरी दिल्ली 2002 से 2005 तक दिल्ली-नोएडा रहा। तीन साल में टॉकिज पर बमुश्किल आठ-दस फिल्में देखी होंगी, लेकिन अगर टीवी पर देखी गई फिल्में मिलाकर कहूं तो शायद अपने जीवन की सबसे ज्यादा फिल्में मैंने इन्हीं दिनों में देखीं।
दिल्ली में शुरुआती दिन थे, मैं दिल्ली के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता था। ऑफ वाले दिन मयूर विहार से सीधी बस में बैठकर कनॉट प्लेस के लिए निकलता। रीगल में अगर कोई ठीकठाक फिल्म होती तो देख लेता, क्यूंकि अकेले या किसी एक और दोस्त के साथ कहीं और टॉकिज ढूंढने से अच्छा यही होता। अग्निवर्षा जैसी फिल्म मैंने इसी टाकिज में देखी। कोंडली से दरियागंज में गोलछा तक पहुंचना आसान हुआ करता था, देवदास इसी हॉल में देखी गई।
इन्हीं दिनों की बात है मुगल ए आजम कलर में दोबारा रिलीज हुई। अट़टा पर नोएडा में पहला मल्टीप्लेक्स बनकर तैयार हुआ। बचपन से ही इस फिल्म को बडे पर्दे पर देखने की इच्छा थी। इसलिए री रिलीज के अगले दिन ही हम देखने पहुंच गए। फिल्म में मजा भी आया पर मेरे पीछे बैठे एक प्रेमी युगल की कलाकारी और फिल्म में उर्दू के डायलॉग का मजाक उडाना बीच बीच में परेशान करता रहा।
एमजेएमसी की मस्ती
सही मायनों में फिल्म को मस्ती करते हुए एंजाय करना मैंने इन्हीं दिनों में सीखा । सत्तर अस्सी रुपए से ज्यादा की टिकट खरीदकर ग्रुप में फिल्म देखने का मजा यहीं लिया। धूम और रंग दे बसंती जैसी फिल्में देखीं। सही मायनों में यही वही ऐज थी जब मैं नौकरी करते हुए फिर से कॉलेज लाइफ जी रहा था और हम एक साथ लडके, लडकियां यूनिवर्सिटी के बाद आमतौर पर बिना किसी को बताए हुए ही फिल्म चले जाते थे।
पीसी और फिल्में
2005 और उसके बाद सीडिज इतनी सुलभ हो गई कि कई सालों से जिन जिन फिल्मों का नाम सुना था, देख नहीं पाया। वे सभी कम्प्यूटर पर देखीं। वाटर, मैंने गांधी को नहीं मारा, निशब्द जैसे विवादास्पद फिल्में शामिल है। और अब लैपटॉप लेने के बाद तो फिल्म देखना और आसान हो गया है। मैंने जुरासिक पार्क से लेकर पुरानी देवदास तक जो मेरा मन करता है। कहीं से भी पैन डाइव सीडी, नेट या किसी की हार्ड डिस्क कॉपी करके देखीं। दो घंटे या उससे थोडे ज्यादा में फिल्म खत्म। यानी कुल मिलाकर अब फिल्म देखना आसान हो गया है।
:::और अब
टाकिज में अकेले जाने का मन नहीं करता और फिल्म देखना इतना महंगा हो गया है कि अब सावरिया, गजनी, वैलकम टू सज्जनपुर जैसे अच्छी और बडे बजट वाली फिल्में ही टॉकिज में देखता हूं। बाकी लैपटॉप पर देखकर ही काम चला लेता हूं।
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