Wednesday, February 4, 2009

चवन्नी चैप के ब्लॉग पर मैं

वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रहामत्ज ने इस बार अपने ब्लॉग चवन्नी चैप में हिंदी टाकिज सीरिज लिखने के लिए मुझे मौका दिया है। यह पूरा की पूरा मैटर मैं यहां भी लगा रहा हूं। पूरी सीरिज उनके ब्लॉग पर उपलब्ध है।
अजयजी ने मुझे मौका दिया मैं इसके लिए उनका आभारी हूं।- राजीव जैन


हिंदी टाकीज
कभी सोचा नहीं था कि फिल्‍म देखने और उससे जुडे अनुभव लिखने का मौका मिलेगा। पर एक दिन अजयजी सर का मेल मिला कि आप हिंदी टाकीज के लिए एक कडी लिखिए तो ऑफ के दिन समय निकालकर यादें ताजा करने बैठ गया। कोशिश की है कि फिल्‍मों से जुडे कुछ अच्‍छे बुरे अनुभव आपके साथ बांट सकूं।

राम तेरी गंगा मैली
मुझे अब याद नहीं कि इस फिल्‍म में क्‍या था, मैं शायद तब बमुश्किल छह-सात साल का रहा होगा। पर यह मेरी पहली फिल्‍म होने के साथ साथ ऐसी इकलौती फिल्‍म है जो मैंने अपने पूरे परिवार के साथ देखी हो। पापा, मां, दादी और हम दोनों भाइयों को लेकर शायद इसलिए यह फिल्‍म दिखाने ले गए हों कि फिल्‍म का टाइटल ‘राम तेरी गंगा मैली’ था। अगर फिल्‍म का पोस्‍टर न देखा हो तो फिल्‍म न देखने वाले को धार्मिक फिल्‍म जैसा अहसास देता है। खैर मुझे एक दो सीन याद आ जाते हैं और यह भी याद है कि हम फिल्‍म खत्‍म होने से थोडा पहले ही ही उठकर चले आए, ताकी फिल्‍म खत्‍म होने के बाद बाहर निकलने के लिए धक्‍का-मुक्‍की न करनी पडे।


मेरी पहली फिल्‍म
इसके बाद मैं शायद स्‍कूल से ही पहली बार फिल्‍म देखने गया था। शायद फिल्‍म का नाम छोटा जादूगर था। हमें सातवीं और आठवीं में साल में एक बार टॉकिज ले जाया जाता था। टैक्‍स फ्री फिल्‍म थी सो टिकट भी दो या तीन रुपए से ज्‍यादा नहीं होता था। क्‍यूंकि उस समय हमारे शहर में पांच रुपए के आसपास तो पूरा टिकट ही था।
इन दिनों वैसे मैं फिल्‍में भले ही न देखता रहा हों, लेकिन फिल्‍म के पोस्‍टर जरूर देखता था। क्‍यूंकि हमारी स्‍कूल बिल्डिंग के एक कॉर्नर में ही पोस्‍टर लगाए जाते थे।

प्रचार का अनोखा स्‍टाइल
उस समय फिल्‍म के प्रचार का स्‍टाइल भी अब के स्टाइल से थोडा अलग हुआ करता था। एक उदघोषक महोदय रिक्‍शे में बैठकर निकलते थे और एक फिल्‍मी गाने के साथ साथ बीच बीच में माइक पर चिल्‍लाते हुए जाते थे ‘आपके शहर के नवरंग टाकिज में लगातार दूसरे सप्‍ताह शान से चल रहा है आंखें। आप देखिए अपने परिवार यार दोस्‍तों को दिखाइये। फिल्‍म में हैं गोविंदा::, चंकी पांडेय।‘ इसी का असर था कि हम स्‍कूल से पैदल लौटते हुए भी इसी तरह चिल्‍लाते हुए अपने मौहल्‍ले तक पहुंचते थे।

एग्‍जाम के बाद फिल्‍म का साथ
नवीं क्‍लास के बाद हम लोग बडे बच्‍चों की गिनती में आ गए थे। वैसे टाकिज तक तो मैं रोज जाता था। मेरे शहर कि सार्वजनिक लाइब्रेरी भी उसी बि‍ल्डिंग में ही थी और मैं दसवीं तक रोज लाइब्रेरी रोज जाता था। दसवीं और उसके बाद तो एग्‍जाम के बाद पिक्‍चर देखना जाना बीएससी फाइनल ईयर के लास्‍ट एग्‍जाम तक उत्‍सव की तरह चला। यही वह दिन होता था जब मां को कहकर जाते कि खाना जल्‍दी बना दो पिक्‍चर देखने जाना है और छह से नौ बजे के शो के लिए भी वो कुछ न कहती थीं।

कोटा और हर टेस्‍ट
पीएमटी के लिए एक साल डॉप किया और कोचिंग करने हम कई दोस्‍त कोटा चले गए। कोचिंग में हर सात या चौदह दिन में रविवार को यूनिट के हिसाब से टेस्‍ट होता था। इसकी रैं‍किंग लिस्‍ट भी बनती थी। यानी टैस्‍ट होने तक मारकाट मची रहती थी। संडे को 3से 5 बजे तक टेस्‍ट हुआ करता था। और उसके बाद छह से नौ बजे तक के शो के लिए हम लोग ऑटो करके टॉकिज तक सबसे पहले पहुंचने की कोशिश करते। इस साल जितनी फिल्‍में मैंने टाकिज में देखीं उतनी एक साल में अभी तक कभी नहीं देखीं। घर से बाहर मनोरंजन का इकलौता साधन यही हुआ करता था। फिल्‍म के बाद लौटते और खाना खाकर सो जाते अगले दिन से पिफर वही भागदौड।
इस दौर में जुडवा जैसी हिट फिल्‍म भी देखी, तो जैकी श्राफ की भूला देनी वाली फिल्‍म ‘’ भी देख डाली। जुडवां की टिकट खिडकी पर मैंने पहली बार कोटा के टॉकिज में लोगों को डंडे खाते देखा।(मेरे अपने गांव राजगढ में टिकट जुगाडना मेरे लिए बडी बात नहीं थी। हमारे शहर का लाइब्रेरियन ही पार्ट टाइम टिकट कीपर हुआ करता था) बाद में इंतजार इतना करना पडा कि छह से नौ की टिकट नहीं‍ मिली तो जुडवा का नौ से बारह बजे का शो देखना पडा।

एक फिल्‍म और कई दिन की चुप्‍पी
फायर एक ऐसी फिल्‍म थी जिसने मेरे घर में काफी गफलत कराई। शायद बीएससी सैकंड ईयर की बात थी। मम्‍मी पापा शहर से बाहर थे। मैं और मेरा बडा भाई घर पर थे। भाई ने हम दोनों का खाना बनाया। मां घर पर नहीं होती तो हमेशा ऐसा ही होता था। इतने में मेरा एक दोस्‍त आया और बोला कि तगडी फिल्‍म लगी है फायर, देखने चलें क्‍या। मैंने उसके बारे में सुन रखा था, इसलिए मैंने उसे मना किया। मैंने कहा कि भाई को बोलकर चलेंगे क्‍या? पता नहीं कैसे हुए कि भाई के दोस्‍तों ने भी फिल्‍म का प्‍लान बना रखा था। मेरी तो अपने भाई से ज्‍यादा खुला हुआ नहीं था पर मेरे दोस्‍त ने उनसे कहा कि हम फिल्‍म देखने जा रहे हैं आप भी चलो। उन्‍होंने कहा कि हां मुझे भी जाना है। मेरे हिसाब से उन्‍हें तब तक फायर की स्‍टोरी लाइन का पता नहीं था। हम दोनों चले गए। छोटा शहर था एक ही हॉल था बॉक्‍स में 25 के आसपास ही सीट थी। हम दोनों भाई एक लाइन में ही आगे पीछे ही बैठे थे। फिल्‍म में जब शबाना आजमी और नंदिता दास के अंतरंग दृश्‍य आने लगे तो मैंने दोस्‍त से कहा यार चल यहां से भाई भी यही हैं, अच्‍छा नहीं लगता। दोस्‍त नहीं उठा, हम कुछ करते इससे पहले ही हमारे भाई की मित्र मंडली में से मेरे भाई सहित कुछ लोग बाहर चले गए। और मैं नौ बजे पूरी फिल्‍म देखकर ही घर लौटा। भाई ने लौटने के बाद कुछ नहीं पूछा, घर में शांति रही। और हम दोनों भाइयों ने शरमाशर्मी में कई दिन तक आपस में बात भी नहीं की।
मेरी दिल्‍ली 2002 से 2005 तक दिल्‍ली-नोएडा रहा। तीन साल में टॉकिज पर बमुश्किल आठ-दस फिल्‍में देखी होंगी, लेकिन अगर टीवी पर देखी गई फिल्‍में मिलाकर कहूं तो शायद अपने जीवन की सबसे ज्‍यादा फिल्‍में मैंने इन्‍हीं दिनों में देखीं।
दिल्‍ली में शुरुआती दिन थे, मैं दिल्‍ली के बारे में ज्‍यादा कुछ नहीं जानता था। ऑफ वाले दिन मयूर विहार से सीधी बस में बैठकर कनॉट प्‍लेस के लिए निकलता। रीगल में अगर कोई ठीकठाक फिल्‍म होती तो देख लेता, क्‍यूंकि अकेले या किसी एक और दोस्‍त के साथ कहीं और टॉकिज ढूंढने से अच्‍छा यही होता। अग्निवर्षा जैसी फिल्‍म मैंने इसी टाकिज में देखी। कोंडली से दरियागंज में गोलछा तक पहुंचना आसान हुआ करता था, देवदास इसी हॉल में देखी गई।
इन्‍हीं दिनों की बात है मुगल ए आजम कलर में दोबारा रिलीज हुई। अट़टा पर नोएडा में पहला म‍ल्‍टीप्‍लेक्‍स बनकर तैयार हुआ। बचपन से ही इस फिल्‍म को बडे पर्दे पर देखने की इच्‍छा थी। इसलिए री रिलीज के अगले दिन ही हम देखने पहुंच गए। फिल्‍म में मजा भी आया पर मेरे पीछे बैठे एक प्रेमी युगल की कलाकारी और फिल्‍म में उर्दू के डायलॉग का मजाक उडाना बीच बीच में परेशान करता रहा।

एमजेएमसी की मस्‍ती
सही मायनों में फिल्‍म को मस्‍ती करते हुए एंजाय करना मैंने इन्‍हीं दिनों में सीखा । सत्‍तर अस्‍सी रुपए से ज्‍यादा की टिकट खरीदकर ग्रुप में फिल्‍म देखने का मजा यहीं लिया। धूम और रंग दे बसंती जैसी फिल्‍में देखीं। सही मायनों में यही वही ऐज थी जब मैं नौकरी करते हुए फिर से कॉलेज लाइफ जी रहा था और हम एक साथ लडके, लडकियां यूनिवर्सिटी के बाद आमतौर पर बिना किसी को बताए हुए ही फिल्‍म चले जाते थे।

पीसी और फिल्‍में
2005 और उसके बाद सीडिज इतनी सुलभ हो गई कि कई सालों से जिन जिन फिल्‍मों का नाम सुना था, देख नहीं पाया। वे सभी कम्‍प्‍यूटर पर देखीं। वाटर, मैंने गांधी को नहीं मारा, निशब्‍द जैसे विवादास्‍पद फिल्‍में शामिल है। और अब लैपटॉप लेने के बाद तो फिल्‍म देखना और आसान हो गया है। मैंने जुरासिक पार्क से लेकर पुरानी देवदास तक जो मेरा मन करता है। कहीं से भी पैन डाइव सीडी, नेट या किसी की हार्ड डिस्‍क कॉपी करके देखीं। दो घंटे या उससे थोडे ज्‍यादा में फिल्‍म खत्‍म। यानी कुल मिलाकर अब फिल्‍म देखना आसान हो गया है।

:::और अब
टाकिज में अकेले जाने का मन नहीं करता और फिल्‍म देखना इतना महंगा हो गया है कि अब सावरिया, गजनी, वैलकम टू सज्‍जनपुर जैसे अच्‍छी और बडे बजट वाली फिल्‍में ही टॉकिज में देखता हूं। बाकी लैपटॉप पर देखकर ही काम चला लेता हूं।

10 comments:

Udan Tashtari said...

पहले तो चवन्नी चैप पर मौका मिलने की बहुत बहुत बधाई. बेहतरीन उपलब्धि है. मगर आपका जब अनुभव पढ़ा और शैली इतनी रोचक, तब लगा कि Well Deserved. आपको तो यह मौका मिलना ही चाहिये था.

काफी बातें फिल्मों/टाकीज़ से जुड़ी बचपन की याद आई.

पुनः बधाई एवं आभार.

Unknown said...

बहुत बधाई चवन्नी चैप में लिखने का अवसर मिला .लिखा भी खूब है भाई .

mamta said...

बहुत अच्छा लिखा है और हिन्दी टाकीज पर लिखने के लिए बधाई ।

अनिल कान्त said...

गुरु मान गये ...अच्छा लेख लिखा है अपनी पुरानी यादों पर ...फिल्मी यादों पर

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

प्रिय राजीव, चन्नी चैप पर आपकी यही पोस्ट देखी. मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा. आपके साइडबार में कई सारे गैरज़रूरी विजेट्स हैं जिनको निकाल लें तो ब्लॉग और ज्यादा सुंदर लगेगा.

प्रदीप मानोरिया said...

सुंदर संस्मरण

sudhakar soni,cartoonist said...

badhai is nai uplabdhi k liye bahut hi umda likha h aur rochak bhi

sandeep sharma said...

क्या लिखा है....
गजब....

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

राजीव, आपने तो फिल्मों की हिस्ट्री ज्योग्राफी भी पूरे दिल से लिखी है, मजा आ गया, आपका राम तेरी गंगा मैली से लेकर वाटर तक। मजा आ गया।

varsha said...

badhai..