Monday, April 27, 2009

काश! ऑनलाइन मिलता खाना


ये साला ऑनलाइन रहने का चस्‍का भी अजीब है। बाहर निकलना हो और पारा 42 डिग्री पार हो तो घर से निकलने का मन ही नहीं करता। कम से कम जब नेट अच्‍छी स्‍पीड में चल रहा हो।
यूं रोज रात देर से खाने की आदत है। पर कल एक दोस्‍त की सगाई थी, इसलिए शाम का खाना जल्‍दी खा लिया। सुबह सुबह राजगढ (मेरा पैतृक घर) से मैं जयपुर आ गया। घर पहुंचा तो बाई नदारद। बस अब खाना बनने का कोई चांस नहीं था।
यूं तो खाना बनना भी आता है, पर अब इतने दिन हो गए कि खाना बनाने का मन नहीं करता। भूख लगी थी, इसलिए “काश ऐसा होता कि खाना भी ऑनलाइन मिलता का स्‍टेटस मैसेज” जीमेल पर लगाकर कुछ जुगाड करने लगा।
जब तक किचन से लौटकर आया, चार पांच भारी भरकम सुझाव मिल चुके थे। उनमें से एक लगभग ऐसा ही था, जैसा मैं खुद चाहता था कि काश खाने का ऑर्डर भी ऑनलाइन चलता। यूं तो पिज्‍जा हट और मैकडी वाले आर्डर लेते ही हैं। पर बात यूं मजाक मजाक में ही चल रही थी खाना भी ऑनलाइन मिलता तो मजा आ जाता। न तो किचन में मेहनत करनी पडती न कुछ और!

Thursday, April 23, 2009

असमंजस, क्‍या हम सही हैं?

आफिस के बाद आजकल रोज चाय पीने का चस्‍का लग गया है। हम लोगों की एक मंडली भी तैयार हो गई है, जो अमूमन रोज चाय पीने जाती हैं। दो बजे के बाद सुबह लगभग चार बजे तक यहां बैठना हमारी आदत में शुमार हो गया है।
रोज वहां चाय के बहाने अड्डा जमाने से हम लोगों की चायवाले (जो दुकान पर चाय बनाता है) से भी जान पहचान हो गई है। पीने को पानी मांगते हैं तो ज्‍यादातर एक प्‍लास्टिक की बोतल थमा देता है। चार चाय बोलेंगे मन हुआ तो छह बनाकर ले आता है।
अभी कल परसों ही पता चला उसके ठंडे और पानी के अच्‍छे टेस्‍ट का राज। भाई ने बताया कि बस फ्रीजर से बोतल निकाली ढक्‍कन हटाया और रैपर फाडकर फेंकने से बिसलरी की बोतल पानी की आम बोतल में बदल जाती है।
मुझे एकाएक झटका लगा कि क्‍या हम रोज बिसलरी पी रहे हैं।
कल चाय पीने सिर्फ हमारी बेचलर्स यूनियन (मैं, तरुण और ऋचीक)
ही गई थी। हमने सोचा कि इस भाई को समझाया जाए कि क्‍यूं मालिक को चूना लगा रह। है। बातचीत की तो बोला, इतना काम करता हूं पता नहीं सेठ का कितना फायदा कर देता हूं। दिन भर लोगों को लूटते हैं अब आप लोगों को ठंडा पानी और अच्‍छी चाय पिला देते हैं तो इस सेठ का क्‍या बिगड जाएगा।

(कल ऋचीक ने खासतौर पर यह पोज खिंचवाया )
बातचीत और समझाइश का दौर चला तो पता चला कि वो तो अपने तरुण भाई के गांव के पास का ही रहने वाला है।
कहने लगा आप लोग इस चाय वाले को याद तो रखोगे। फिर अपने सेठ के कारनामे बताने लगा कि कैसे तीन रुपए की चाय पांच रुपए और दस रुपए कि ठंडी बिसलरी बीस रुपए में बेची जाती है। सेठ कहां ले जाएगा इतने पैसे थोडे आप लोगों पर खर्च हो जाएंगे तो सही रहेगा।

कल यह सब पता नहीं था, कल ही आधा ब्‍लॉग लिख चुका था पर आधी बात आज जानीं। अब तय नहीं कर पा रहा कि वो अकेले ही गलती कर रहा है या हम भी उसके काम में शामिल होकर और बुरा कर रहे हैं। वैसे तो मुझे लगता है कि शायद हमारे प्‍यार से बोलने और हमारी गपशप चायवाले को सुकून देते हों। रातभर की उसकी माथाफोडी में हम उसे अच्‍छे लगने लगे हों। पर मैं खुद तय नहीं कर पा रहा कि हम गलत हैं या सही।

Saturday, April 18, 2009

सर्किल नहीं मौत का कुआं है


जयपुर शहर सडक हादसों से कितना भयभीत है। इसका उदाहरण यह फोटो देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। जयपुर का एक बडा चौराहा है, गुर्जर की थडी। रोज रोज सडक दुर्घटनाओं के बाद यह इतना कुख्‍यात हो गया है कि एक सडक हादसे में एक दंपती की मौत के बाद लोगों ने दो दिन तक यहां प्रदर्शन किया। कॉर्नर में सडक हादसे की वजह रहे शनि मंदिर को लोगों ने खुद तोड डाला। और तो और अपने खर्चे पर एक बोर्ड लगवाया जिस पर सूचना लिखवाई गई कि यह चौराहा नहीं मौत का कुआं है। यह चित्र जयपुर में ही मेरे एक वरिष्‍ठ साथी और हम सबके चहेते अभिषेकजी ने मुझे खासतौर पर भेजा।

Tuesday, April 14, 2009

इतने डे कम थे, जो मेट्रीमोनी डे भी आ गया!

कल देर रात भारत मेट्रीमोनी डॉट कॉम का एक ईमेल मिला। इसमें 14 अप्रेल को मेट्रीमोनी डे के रूप में मानने की जानकारी मिली, कंपनी के सीईओ की ओर से एक ग्रीटिंग कार्ड मिला।
पहली बार सुना इस डे के बारे में। उत्‍सुकता थी तो गूगल पर खोजा, पता चला भारत मेट्रीमोनी ने लोगों को शादी के लिए प्रेरित करने के लिए इस दिन को चुना है। ताकी लोग शादी के बारे में सोचें। कंपनी का कहना है कि आज कि भागदौड की जिंदगी में लोग शादी के बारे में सोचे इसलिए इस दिन का ईजाद किया गया है। इसके लिए बाकायदा कंपनी ने एक वेबसाइट भी बनाई है। मैंने काफी कोशिश की पर कहीं कोई जानकारी नहीं मिली, अगर आपको पता चले तो बताइएगा प्‍लीज।

वैसे अपन बता दें, उनकी मेहनत बेकार चली गई। मैंने इस दिन से पहले ही सोच लिया शादी के बारे में। और मैंने भारत मेट्रीमोनी वालों को भी बता दिया कि टाइमपास के लिए बनाया मेरा मुफ़त आईडी प्‍लीज अब बंद कर दो। मेरी तलाश खत्‍म हो गई। वैसे तो यह बात आम हो गई है कि मेरी सगाई हो चुकी है। हमारे ब्‍लॉगर साथियों ने पोस्‍ट और कार्टून से इस घडी में मेरा खासा उत्‍साहवर्धन किया। वैसे मैं चाहता था कि डेट फिक्‍स हो तो यह खबर सार्वजनिक की जाए, पर साथियों ने पहले ही आप तक पहुंचा दी।
अब जब मैं भी इस श्रेणी में शामिल होने की तैयारी में हूं तो सभी कुंवारे-कुवारियों से अपील है कि भारत मैटीमॉनी के इस अभियान को सीरियसली लें और शादी के बारे में सोचें। ताकी उनके खाते में भी कुछ उपलब्धि दर्ज हो।

Sunday, April 12, 2009

बाप रे ! एक और मंदिर


धर्म एक अफीम है, शायद यह बात किसी ने धर्म परायण लोगों को देखकर कही गई थी। पर अब धर्म बडी से बडी दुकान चलाने में काम आ रही है। चाहे वो पीएम इन वेटिंग लालकृष्‍ण आडवाणीजी की हो, या मेरी वाली चाय की थडी की। धर्म ही ऐसा मसला है जिसकी आड में इस देश में कुछ भी आसानी से किया जा सकता है।
हां तो मैं बात कर रहा था बजाज नगर ( जयपुर में आजकल अपनी शरणस्‍थली ) में मेरी वाली चाय की थडी की। शायद चाय वाले को यह बात पहले से पता है कि अतिक्रमण करना है तो सबसे पहले मंदिर बनाने का प्रोसेस शुरू करो। ताकी वहां थडी लगाने में आसानी हो जाए। अतिक्रमण तोडने कोई आए तो उन पर दवाब बनाया जा सके।
दस ईंटों से एक छोटा अलमारीनुमा ढांचा बनाया। मूर्ति का आइडिया शायद अभी महंगा लगा हो इसलिए फिलहाल हनुमानजी की एक फोटो विराजित कर दी गई है। उसमें अगरबत्‍ती के पैकट और अगरबत्‍ती लगाने के लिए दो डिस्‍पोजेबल कप रखे हैं।
मैं बीस साल बाद की बात सोच रहा हूं। यहां बोर्ड लगा होगा, प्राचीन हनुमान मंदिर। और बाहर एक बडी से पुरानी थडी होगी। जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा होगा। हाईकोर्ट का स्‍टे!
यानी कुल मिलाकर धर्म की आड में एक और दुकान चलाने की साजिश।
पता नहीं कितने हजार अतिक्रमण होते रहेंगे ऐसे ?

Thursday, April 9, 2009

सिर्फ तस्‍वीरें और कैप्‍शन


मथुरा रेलवे स्‍टेशन पर लालूजी को ढूंढ रही थी उनकी गाय

जयपुर में प्रेस क्‍लब वालों की चली
तो शायद दोपहर का डिनर भी मिला करेगा


हवामहल की दीवारें
शायद
इनके प्रेम के इजहार के लिए ही ये जगह खाली छोडी गई थी

आवश्‍यकता अविष्‍कार की जननी है
ये फैक्‍स मशीन और कम्‍यूटर पर एक की दबाने से काम पूरा करना हो तो
लकडी का ये गुटका भी काम आ सकता है
ये हमारे उत्‍तमजी के दिमाग की उपज है।



गोवधर्नधाम की परिक्रमा में मिले मुझे ये पूर्वज जी
शायद इनको तस्‍वीरें खींचवाने का तगडा शौक है।

इसलिए भाग जाते हैं चोर, क्‍यूंकि पुलिस ही उनके साथ बैठकर ताश खेलने में व्‍यस्‍त है
(मैंने यह तस्‍वीर एक रेलयात्रा के दौरान बडे डरते डरते ली, कहीं पुलिस की नजर पडी और मुझे एक पडी)

Saturday, April 4, 2009

एक दम पकाऊ तस्‍वीर, गले नहीं उतरती कहानी


थिएटर मालिकों और डिस्‍टीब्‍यूटर्स में विवाद के चलते यूं ही नई फिल्‍में कम रिलीज हो रही हैं। “8 बाई 10 तस्‍वीर” रिलीज हुई तो ऐसी कि यूं समझिए अगर आप देखने पहुंच गए‍ तो लगेगा कि पैसे बेकार गए।
यूं तो फिल्‍म नागेश कुकनूर की है, अपन तो इसका सब्‍जेक्‍ट और नागेश का नाम देखकर पहुंच गए थिएटर। पर, क्‍या करें हॉ‍लीवुड स्‍टाइल कि कल्‍पना करके फिल्‍म बनाई है। पर स्‍टोरी इतनी अजब कि आप विश्‍वास ही नहीं करेंगे।
फर्स्‍ट हाफ तो बेहद कमजोर है, कई बार लगता है कि बस अब तो फिल्‍म खत्‍म होने को है पर उससे पहले ही एक नया पेंच आ फंसता है। फिल्‍म की कहानी कुछ यूं है कि नायक के पिता एक बिजनेसमैन हैं बडी कंपनी के मालिक हैं। पर बेटे जय (अक्षय) को उनके बिजनेस में इंटेरेस्‍ट नहीं है। वह इन्‍वायरमेंट प्रोटेक्‍शन सर्विस नाम से एक संस्‍था चलाता है। हालाकि काम करते हुए उसे फिल्‍म के शुरुआती पांच मिनट में बताया जाता है, उसके बाद तो हीरो काम पर ही नहीं जाता। बचपन में एक हादसे के बाद उसमें एक अजीब सी शक्ति आ जाती है। वह किसी भी फोटो को देखकर उसमें छिपा भूतकाल जान सकता है।
इस बीच उसके पिता की मौत हो जाती है। नौकरी से निकाले गए एक इंस्‍पेक्‍टर (जावेद जाफरी) के आगह करने पर उनका ध्‍यान इस ओर जाता है कि उनके पिता की हत्‍या की गई है। बस वो दोनों यह खोजने में जुट जाते हैं और फिल्‍म के अंत में पता चलता है कि दाल में काला नहीं पूरी दाल ही काली है।
मां के रोल में शर्मिला टैगोर और वकील के रूप में गिरीश कर्नाड को दो चार डायलॉग मिले हैं। अक्षयय की प्रेमिका शीला के रूप में आयशा टाकिया आजमी (शादी के बाद यही नाम है फिल्‍म की क्रेडिट में ) अक्षय के आजू बाजू खूब दिखती हैं। पर डायलॉग नहीं दिखते। (संस्‍पेंस है इसलिए यह नहीं बता रहा कि उन्‍होंने क्‍या गुल खिलाए)
फिल्‍म कनाडा में शूट की गई है। सीनरी बहुत प्‍यारी है। बस एक यही प्‍लस प्‍वाइंट है, दो गाने हैं एक फिल्‍म में और दूसरा फिल्‍म खत्‍म होने के बाद आता है। कुल मिलाकर नागेशजी संस्‍पेंस बनाने चले थे। और एकदम बिकाऊ सितारे अक्षय का साथ लिया उसके बावजूद फिल्‍म में चल पाने जैसे कोई लक्षण नहीं हैं।

हॉल में सिर्फ एक बार ठहाका गूंजता है
सीन कुछ इस तरह है कि एक बिस्‍तर में जय और शीला सो रहे हैं। आधी रात एक सपने के बाद जय की नींद टूटती है। शीला भी जागती है, हीरो को नार्मल करती है। एक बार आईलवयू बोलती है। तब तक लगता है कि शायद यह हीरो की पत्‍नी है, पर जब अगला डायलॉग बोलती है कि जय हम शादी कर लें। तो अचानक थिएटर में ठहाका लगता है, शायद इंडियन कल्‍चर का सत्‍यानाश हो गया है कि आधी रात बिस्‍तर से निकलकर नायिका हीरो को ये बोले। मेरे मुंह से भी यही निकला कि बस यही देखना बाकी रह गया था।

दिखते हैं अक्षय के सफेद बाल
पता नहीं ऐसा कैसे हो गया। अक्षय ने 30-35 साल के युवा की भूमिका निभाई है। फौजीकट छोटे बाल हैं पर पता नहीं किसकी गलती है। गर्दन के पास सफेद बाल साफ दिखाई देते हैं।

Wednesday, April 1, 2009

मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार!

आठ साल की एक लड़की के एक मर्डर के बाद घटनास्थल से लौटे एक साथी रिपोर्टर ने यह टिप्पणी की तो मैं चौंक गया। मैंने पूछा क्या हुआ यार। अखबार में काम करते हैं तो हत्या, बलात्कार जैसी चीजों से रोज रोज वास्ता पड़ता है। और एक क्राइम रिपोर्टर यह कहे कि मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार, तो सूट नहीं करता।
पूरी बात सुनी तो मैं भी उसकी बात से सहमत था। असल में जयपुर में बुधवार रात करीब आठ बजे घरवालों को घर के पिछवाड़े में ही आठ साल की मासूम बेटी का शव पड़ा मिला। छह भाई बहनों में सबसे छोटी चौथी क्लास में पढ़ने वाली रिषिता की किसी ने गला दबाकर हत्याकर दी। रात करीब दस बजे मीडियाकर्मी उसके घर पहुंचे।
बच्ची के पिता से सवाल करने लगे। कैसे क्या हुआ। आपको किस पर शक। एक बाप जिसकी आठ साल की बच्ची की हत्या हुई थी, शव उसके पास ही पड़ा है। हो सकता है किसी ने कुकर्म की कोशिश भी की हो। ऐसे में बाप क्या बोल पाता। हर शब्द के बाद रुआंसा हो उठता। इतने में किसी टीवी पत्रकार ने पीछे से जोर से कहा जरा जोर से बोलिए।
हो सकता है किसी को मेरी बात बुरी लगे। पर मेरे साथी रिपोर्टर को शायद यही बात खल गई, कि ऐसे में बाप से ही क्या सब कुछ पूछना जायज है। इधर-उधर किसी ओर से भी पूरी बात मालूम की जा सकती है। पर टीवी पर शायद बाप का फुटेज ज्यादा प्रभावित करता। टीवी पत्रकारों की इस मजबूरी ने शायद उस पत्रकार को विवश किया हो।
पर अपने ही साथियों की हरकत से परेशान एक युवा क्राइम रिपोर्टर ने ऐलान कर दिया कि मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार।

आज तो सही में गार्ड ने भगा दिया!


अखबार की नौकरी है। दिनभर सोना और देर रात तक आफिस में रुकना अपनी आदत में शुमार है। शायद इसी बात को ध्‍यान में रखकर अपने मित्र सुधाकर ने मेरे जन्‍मदिन पर आफिस के नोटिस बोर्ड पर ऐसा ही एक कार्टून लगाया जिसमें मैं ढाई बजे तक आफिस में हूं और गार्ड मुझे जाने के लिए संकेत दे रहा है।
पर कल रात तो सचमुच यही हो गया। मेरा छोटा भाई भी आजकल आफिस के किसी प्रोजेक्‍ट में फंसा हुआ है। इसलिए देर से घर जाता है। कल रात मैं निकलने की तैयारी में ही था कि उसने ऑनलाइन देखकर पूछ लिया कि घर चल रहे हो क्‍या। मैंने कहा हां। तो उसने कहा कि आप कितनी देर में बाहर निकल रहे हो। मैंने कहा कि दस मिनट में, और मैं अपने काम में लग गया।
इतना होते होते करीब पंद्रह मिनट लग गए और ढाई बज गए।
और सचमुच गार्ड आ गया। शायद उसे नींद आ रही थी। बोला कितनी देर में जाओगे ढाई बज गए।
मुझे लगा कि शायद आज वो कार्टून वाली बात हकीकत बन गई है। और मैं घर पहुंचते ही इसे लिखने में जुट गया। क्‍योंकि आज ही तो पूजाजी की लिखी बात पढी कि सच्‍चा ब्‍लॉगर वही है, जो जिंदगी में घटी हर बात में कुछ ऐसा ढूंढे कि एक ब्‍लॉग लिख सके।