Wednesday, June 3, 2009

आखिर बेच डाली छह सौ किलो रद्दी


कई शौक भारी पड़ जाते है। ऐसा ही है मेरा और अखबार का रिश्ता। खाना मिले न मिले अखबार जरूर हो। मेरे इस प्रेम के चक्कर में मेरे बिस्तर के चारों और हमेशा अखबारों का ढेर होता है। 


मेरे सारे परिचित और दोस्त इससे वाकिफ है। हाल तक मैं जिस मकान में रहता था वहां करीब आठ बाई आठ का स्टोर रूम तो खचाखच भर गया। आते जाते परिवार वालों की टोकाटाकी के बावजूद मैंने अखबार नहीं बेचे। पर अब रूम चेंज करना था तो करीब सात çक्वंटल रद्दी एक जगह से दूसरी जगह शिट करना माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने से कहीं ज्यादा कठिन था। वो भी तब जब आप पहले से ही व्यस्तता के चरम पर हों। इसी चक्कर में इन दिनों कई दिन तक ब्लॉगिंग की दुनिया से दूर था। 

पर शिçटंग की मजबूरी और किराए के मकान में इतनी रद्दी मेनटेन रख पाना बड़ा मुश्किल है। 28 मई को मैंने रूम चेंज कर लिया और तीन मई तक मैं उस रद्दी को बेचने का मानस न बना सका। पर फाइनली डेडलाइन आ गई और पुराने मकान में नया किराएदार आ गया तो मुझे अपनी 610 किलो रद्दी बेचनी ही पड़ी। 
कितना कष्टकर थी यह अंतिम यात्रा!  

पर दिल पर पत्थर रखकर मैंने आखिर इसको अंजाम दे ही दिया। इससे मिले करीब साढे तीन हजार रुपए तंगी के महौल में मुझे जरा भी खुशी न दे पाए मैं आखिरी समय तक ऐसे आदमी को खोजता रहा जो इसे संभाल कर रख सके।