Wednesday, December 31, 2008

आत्‍मविश्‍वास, घमंड और ये जरा सा अंतर

आत्‍मविश्‍वास या घमंड इन दो शब्‍दों के बीच जरा सा अंतर है। मैं यह कर सकता हूं, यह मेरा विश्‍वास है और सिर्फ मैं ही यह कर सकता हूं यह घमंड है। बात बहुत मजेदार और एक बडा सत्‍य है। इस बात को मैंने भी अपनी जिंदगी में देखा है और आप में से भी कई लोगों ने महसूस किया होगा। मैं इस बात को काफी पहले से जानता हूं और मानता हूं कि कभी कभी अति आत्‍मविश्‍वास में आदमी घमंडी हो जाता है।
यह सीधा सा फंडा मुझे एक बार फिर याद आया आमिर खान की नई फिल्‍म गजनी देखने के बाद। फिल्‍म में अपनी कंपनी एयर वायस सेल्‍यूलर के एमडी के रूप में बोर्ड मीटिंग में आमिर यह बात कहते नजर आते हैं। शायद आमिर इस बात को अच्‍छी तरह पचा चुके हैं। इसलिए वे आत्‍मविश्‍वासी है पर घमंडी नहीं।
(पर यह बात शायद अपने शाहरुख और यशराज बैनर वाले नहीं जानते। अपना सिक्‍का चलता देख सिर्फ 18 दिनों में बिना मेहनत के लिखी गई कहानी पर एक अवश्विसनीय फिल्‍म रब ने बना दी जोडी बना दी। और ये घमंड उन्‍हें ले बैठा)
नया साल चंद घंटों में आने वाला है। हम इसमें यह वचन लें कि अपने आत्‍मविश्‍वास को घमंड में न बदलने दें और जिंदगी को यूं ही चलने दें।

पथ पर
चलते रहो निरंतर.
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है गत-स्वन हो
पथिक,
चरण ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरंतर ....!

(जनकवि त्रिचोलन के संकलन से साभार)

सभी को नववर्ष मंगलमय हो इसी उम्‍मीद के साथ।

Friday, December 26, 2008

गजब की है गजनी


बहुत दिनों बाद टॉकिज में फिल्‍म देखी, बीच में कई देखी भी तो आप लोगों से शेयर नहीं कर पाया। न समय मिला और न ही मूवी इतनी अच्‍छी थी कि आपसे शेयर करना जरूरी होता।
पर आज गजनी देखी। और मेरी राय है कि अगर आप नई फिल्‍में देखने के जरा भी शौकीन हैं, तो यह जरूर देखें। कुछ लोग इसे एक्‍शन मूवी कहकर भी प्रचारित कर रहे हैं। पर सच्‍चाई यह है कि एक्‍शन के साथ साथ यह एक अच्‍छी प्रेम कहानी भी है। यह एक प्रेम कहानी ही थी, कि इतना बडा बिजनेसमैन बदला लेने के लिए इतना कुछ करता है, वो भी तब जब वह शॉर्ट टर्म मैमोरी का पेशेंट है।
फिल्‍म की कहानी कुछ ऐसी है कि संजय सिंघानिया यानी आमिर खान एक सेल्‍यूलर कंपनी के मालिक हैं। एक दिन अचानक एक खबर सुनते हैं कि उनका किसी से चक्‍कर चल रहा है।
न्‍यूज चैनलों पर जब यह खबर फलैश होती है तो वे भी उससे मिलने की इच्‍छा जताते हैं। वे कल्‍पना यानी असीन ने मिलने पहुंचते हैं और उसके चुल‍बुलेपन पर फिदा हो जाते हैं। बिना अपनी असलियत बताए लौट आते हैं। प्रेम कहानी धीरे धीरे आगे बढती है। इतनी बडी कंपनी के मालिक और एक स्‍टगलिंग मॉडल के प्रेम प्रसंग में कई सारी नई चीजे हैं, जिससे आपका मनोरंजन होता है।
(जैसे कि गोलगप्‍पे के ठेले पर क्रेडिट कार्ड नहीं चलता) चुलबुली हीरोइन के कई ऐसे मजेदार क्रिएटिव आइडिया हैं जैसे विकलांग ल‍डकियों को गेट पार करवाना।

कहानी और फलैशबैक में प्रेम कहानी आसानी से चल रही होती है कि इस बीच काम के सिलसिले में कल्‍पना को गोवा जाना होता है। इस बीच टेन में उसके साथ एक ऐसा हादसा होता है कि उसके पीछे कहानी का विलेन गजनी लग जाता है। किडनी गिरोह का सरगना और अब एक दवा कंपनी का मालिक गजनी धर्मात्मा कल्‍पना को मार देता है।

इसके बाद संजय यानी आमिर पूरी फिल्‍म में उससे बदला लेने में जुटे रहते हैं। एक ऐसा आदमी जो किसी भी बात को सिर्फ 15 मिनट तक ही याद रख सकता है। उसका संघर्ष, इस सबमें नयापन है, जो लोग थोडी बहुत मारपीट सहन नहीं कर सकते वे लोग भी इस तरह के नएपन से परिचित हो सकते हैं। मेडिकल स्‍टूडेंट के रूप में जिया खान ने भी ठीकठाक काम किया है, वो उनके केस में रुचि दिखाकर कहानी को लगातार आगे बढाती हैं। गजिनी के रूप में विलेन प्रदीप सिंह रावत हैं, जिनकी आमिर ने खूब पिटाई की।
प्रसून जोशी ने सुंदर गीत लिखे हैं फिल्‍म में एक कविता भी लिखी हुई आती है, जिसे बाद में आगे गीत के रूप में आगे बढा दिया है। ए.आर. रहमान का संगीत बहुत अच्‍छा है। कुल मिलाकर आमिर ने फिल्‍म में जबरदस्‍त मेहनत की है, खासकर अपनी बॉडी और लुक्‍स के लिए। फिल्‍म के निर्देशक: ए आर मुरूगदोज हैं, ये वही हैं, जिन्‍होंने ऑरिजनल गजिनी बनाई थी। वैसे दक्षिण की अभिनेत्री असीन ने भी इस फिल्‍म में गजब की एक्टिंग की है, वे उत्‍तर भारतीयों की भी पसंद बनकर उभरेंगी।

पर शायद
मुझे फिल्‍म में दो गडबडियां लगीं एक तो आमिर खान प्‍लेन में फाउनटेन पेन से डायरी लिख रहे होते हैं। मैं कभी प्‍लेन में नहीं बैठा पर शायद प्‍लेन में फाउनटेन पैन काम नहीं करता।

और मरते समय हीरोइन कल्‍पना उसे संजय कहकर संबोधित करती है, जबकि तब तक की कहानी के हिसाब से वह आमिर को सचिन नाम से जानती थीं। (हॉल में मुझे ऐसा सुनाई दिया, कन्‍फर्म करना होगा)

Sunday, December 7, 2008

एक शाम दिल बहुत उदास था


एक शाम दिल बहुत उदास था
इतने में रिशेप्सन से फोन आया
कोई मिलना चाहता है आपसे
मैं बोला जो भी हो कह दो बिजी हूं
आज छह दिसंबर है
रिशेप्सनिस्ट बोली आज तो सब शांति है न
यही तो परेशानी है,दो घंटे बाद लाइव शो है
क्या दिखाउंगा पुरानी क्लिपिंग के सिवाय
देश में पत्ता भी न जला,बस मुझे यही गम है

Tuesday, December 2, 2008

सबसे अलग है इस बार का राजस्थान चुनाव


राजस्थान में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। इस बार चुनावी और जातिगत समीकरण उलट पुलट हैं। दोनों पार्टियां महीनों से प्रत्याशी खोजने के लिए पता नहीं कौन कौन से दावे कर रही थी, युवा होगा, क्रिमिनल केसेज वाला नहीं होगा। लेकिन चुनाव आते आते चाहे भाजपा हो या कांग्रेस दोनों ये ही बोलने लगे कि प्रत्याशी का आधार जिताऊ होगा।
यानी बात साफ है कि पार्टियां खुद नहीं चाहतीं कि साफ सुथरी छवि वाले आदमी को प्रत्याशी बनाया जाए।
घोषणा पत्र देखिए भाजपा ने 29 नवंबर और कांग्रेस ने 22 नवंबर को अपने घोषणा पत्र रीलिज किया। यानी 4 दिसंबर को मतदान है और चुनाव अब तक बिना घोषणा पत्र के लिए लडा जा रहा था। चुनाव घोषणा पत्र आए तो भाजपा ने गरीबों को 2 रुपए किलो और मध्यम वर्ग को 5 रुपए किलो गेंहू का वायदा किया है। वहीं कांग्रेस ने महिला की पहली डिलेवरी पर पांच किलो घी देने का वायदा किया है। पर सबको पता है कि घोषणा पत्र देखकर वोट देने वालों की संख्या कितनी है।
दोनों ही पार्टियां महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की बात करती हैं। कमाल की बात ये है कि देश की दोनों ही बडी पार्टियों की महिला मोर्चा की राष्टीय अध्यक्ष किरण माहेश्वरी और प्रभा ठाकुर राजस्थान की हैं और तो और कांग्रेस कोटे से ही महिला आयोग की चेयरमैन गिरिजा व्यास भी अपने उदयपुर संभाग में अभी भी खासी सक्रिय है। भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष किरण महेश्वरी तो इस बार चुनाव भी लड रही हैं। लेकिन वे अपने ही प्रदेश में 33 फीसदी महिलाओं को टिकट नहीं दिलवा पाईं। भाजपा ने जहां 192 में से 32 टिकट महिलाओं के लिए दिए वहीं कांग्रेस ने 200 में 23 टिकट ही दिए। 150 साल पुरानी का ये हाल तो तब है जब कांग्रेस की राष्टीय अध्यक्ष भी महिला है वहीं भाजपा राज्य में दुबारा वसुंधरा राजे के नेतृत्व में चुनाव लड रही है।
परिसीमन के बाद यह पहला चुनाव है, इसलिए किसी के समीकरण फिट नहीं बैठ सकते। दूसरा जनता आजकल हमेशा बदलाव चाहती है। सबको पता है कि दो चोरों में से किसी एक चोर को चुनना है। मैंने खुद कितने ही लोगों से बात की सभी यही कहते हैं। इसी को ध्यान में रखकर दोनों ही पार्टियों ने नए चेहरों पर दांव खेला है जमे जमाए लोगों के टिकट काट दिए गए। भाजपा ने पिछले चुनाव में प्रदेश में सबसे ज्यादा मार्जिन से जीतने वाले जालोर के विधायक का पत्ता साफ कर दिया वहीं कांग्रेस ने पांच बार विधायक रह चुके एक व्यक्ति का टिकट काट दिया।
यही कारण है कि इस बार दोनों ही पार्टियां बागियों की समस्या से जूझ रही है। पार्टियों ने इन नेताओं को प्रलोभन देने की कोशिश की पर अभी भी दोनों ही पार्टियों में पचास पचास से ज्यादा बागी मैदान में हैं। बसपा भी राज्य में अपनी ताकत दिखाने के पूरे मूड में है। तीस से ज्यादा सीटों पर बसपा त्रिकोणीय संघर्ष में है। कई जगह कांग्रेस या बीजेपी के मुकाबले उम्मीदवार ज्यादा प्रभावी नजर आ रहे हैं। गुर्जर फैक्टर से निपटने के लिए इस बार भाजपा ने गुर्जरों को ज्यादा टिकट दिए हैं।
पूर्वी राजस्थान में भाजपा भीतरघात से जूझ रही है अलवर, भरतपुर, धौलपुर, दौसा, करौली और सवाई माधोपुर में समीकरण काफी उलट पुलट हो गए हैं। पिछले चुनाव में भाजपा के लिए जी जान एक करने वाले मीणा नेता किरोडीलाल मीणा, जाट नेता विश्वेंद्र सिंह इस बार भाजपा के लिए खाई खोदने में जुटे हैं, दोनों ही किसी भी कीमत पर भाजपा को नहीं जीतना देना चाहते।
कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे नटवर सिंह बीएसपी के रास्ते अब भाजपा के समर्थन में हैं। यही वो इलाका है जहां के लोगों ने गुर्जरों के आरक्षण आंदोलन को करीब से देखा है। बीएसपी फैक्टर भी यहीं ज्यादा काम कर रहा है। यानी इन इलाकों में भाजपा और कांग्रेस की सीट ही तय करेंगी कि सरकार किसकी बन रही है।
वैसे एक खास फैक्टर जो इस बार सबसे अलग है वो ये कि इस बार एसटी सीट पर आम लोगों का खासा विरोध है या तो वे वोट देना ही नहीं चाहते या फिर ऐसे आदमी को सपोर्ट कर रहे हैं, जो एसटी हो लेकिन मीणा नहीं हो। इसी का परिणाम है एक धानका समाज।
मेरी अपनी सीट राजगढ का हाल
मैं खुद भी मूलत अलवर जिले से हूं हमारा विधानसभा क्षेत्र राजगढ एसटी रिजर्व है अब यहां का किस्सा देखिए। मेरे एक मित्र ने मुझे एसएमएस भेजा है, उस पर गौर कीजिए।
जौहरी के जौहर देखे, समरथ हो गयो फुस्स
शीला की पतंग काटकर, सूरजभान को कर दो खुश

अब इसका मतलब समझ लीजिए
जौहरी लाल मीणा कांग्रेस से चुनाव लड रहे हैं और 11वीं विधानसभा में जीते थे
समरथ लाल मीणा भाजपा से हैं वर्तमान में विधायक है और शीला किरोडी समर्थित उम्मीदवार के रूप में अपना भाग्य आजमा रही हैं। साइकिल के सहारे विधानसभा पहुंचने की चाह रखने वाले सूरजभान के साथ दो प्लस प्वाइंट हैं पहला वो राजगढ में मर्ज हुई लक्ष्मणगढ सीट से ताल्लुक रखने वाले एकलौते उम्मीदवार हैं दूसरा प्लस प्वांट ये है कि वो एसटी में जरूर हैं, लेकिन मीणा नहीं हैं। वर्षों से एसटी सीट रही राजगढ के मतदाता इस बार परंपरागत पार्टी को छोडकर सूरजभान के साथ आ रहे हैं। यानी कुल मिलाकर भाजपा और कांग्रेस को बारी बारी परखने वाले राजगढ में इस बार साइकिल दौड रही है।
शेष 8 दिसंबर को

Thursday, November 27, 2008

कितना उचित है मुठभेड़ का लाइव


मुंबईमें 11 स्थानों पर आतंकियों ने हमला बोल दिया। हमने कई मुंबई एटीएस के चीफ हेमंत करकरे और उन जैसे 16 जाबाजों समेत 125 लोगों को खो दिया। 300 से ज्यादा लोग अस्पताल में हैं। हमारे टीवी चैनल पिछले 32 घंटों से लाइव कवरेज कर रहें हैं। पर इस लाइव कवरेज के लिए खुद अपनी जान पर खेल रहे हैं साथ ही सैन्य कारüवाई में जुटे हजारों लोगों की जान को संकट में डाल रहे हैं।खबर है कि अति उत्साही न्यूज चैनलों ने अपनी लाइव कवरेज में सीएसटी स्टेशन के पास कारवाई के दौरान हैलमेट और बुलेटप्रूफ जाकेट पहनते हुए दिखाया। टीवी पर यह भी दिखाया गया कि इस कारüवाई की अगुवाई करकरे खुद ही कर रहे हैं। हो सकता है कि आतंकवादी लाइव कवरेज देख रहे हों, इसलिए उन्होंने उनकी गर्दन पर निशाना लगाते हुए गोली चलाई और एक जाबाज शहीद हो गया।ऐसा नहीं है कि पहली बार इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने अपनी सीमाएं तोड़ी हों। आतंकी हमले हो या देश में कोई भी बड़ा हादसा एक्सक्लूसिव और सबसे पहले के चक्कर में ऐसी ऐसी सूचनाएं भी सार्वजनिक कर देते हैं, जिनका जनता से कोई लेना देना नहीं। लगातार इस मुठभेड़ का लाइव देखने वाले किसी मित्र ने बताया कि एक टीवी चैनल ने यह भी बता दिया कि एक आतंकी का मोबाइल गिर गया और पुलिस ने उसे जब्त कर लिया है। हो सकता है दूसरे आतंकी उससे कभी संपर्क साधते, और पकड़े जाते पर सूचना पहले ही सार्वजनिक कर दी गई। मीडिया में होकर मीडिया की बुराई करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा फिर भी लगता है कि अब वक्त आ गया है, जब लाइव कवरेज या इस तरह की आतंकी घटनाओं के समय कवरेज के तरीके पर विचार किया जाए।

लीजिए देश का हर आदमी शोक मग्न है और हमारी राष्ट्रपति हनोई में एक इंटरनेशनल कान्वोकेशन में टोस्ट कर रही हैं।

Wednesday, November 19, 2008

बस यूं ही

एक महीने से ज्यादा हो गया। ब्लॉग पर कुछ लिख नहीं पाया, हालांकि इतना बिजी भी नहीं था कि कुछ लिख न सकूं। पर मुझे लगता है कि कई बार लिखने के क्रम में ऐसा ब्रेक लगता है कि सारी तारतम्यता बिगड़ जाती है। इतने दिनों में कई फिल्में देखीं, लैपटॉप ले लिया, दिवाली आकर चली गई, कई लिखी हुई पोस्ट भी ब्लॉग पर लगा नहीं पाया।
इस बीच कई लोगों ने यह जानने के लिए फोन किया, कुछ ने मेल की, क्या मैं जिंदा हूं। कुछ ने पूछा कि आजकल लिख क्यूं नहीं रहे। पता नहीं ऐसा कैसे हो गया। खैर आज बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं। वो भी बस यूं ही। इस उम्मीद के साथ कि ये न लिखने का क्रम टूटेगा।

Monday, October 13, 2008

गीत चांदनी

शनिवार रात में श्रोता बना जयपुर में तरुण समाज की ओर से आयोजित वार्षिक कार्यक्रम गीत चांदनी का । कार्यक्रम में संचालक हास्य कवि सुरेंद्र दुबे के अलावा छह गीतकार थे। इस मौके पर कानपुर के आत्म प्रकाश शुक्ल ने बुजुर्ग बाप पर एक कविता सुनाई। शुक्ल का कहना था कि एक कवि सम्मेलन में एक श्रोता बुजुर्ग ने कहा था कि ’यादातर कवि सम्मेलन में मां पर कविताएं सुनने को मिलती हैं लेकिन बाप पर कोई कविता नहीं करता । उसके बाद उन्होंने यह गीत लिखा। इसकी कुछ पंक्तियां मैं भूल गया हूं।

आंसुओं की धार है, फालतू अखबार है

गçर्दशों की मार है बूढ़े पिता की जिंदगी

देह दुबüल, संास निबüल

रेत की दीवार है बूढ़े पिता की जिंदगी इस मंदी के शोक में, टूटता आधार है.................. , बूढ़े पिता की जिंदगीइस उम्र से गुजरेंगे जब आज के युवा, तो समझेंगे वेप्यार की हकदार है बूढ़े पिता की जिंदगी जिंदगी जाती नहीं, मौत भी आती नहीं ख्ाून दे पाला जिन्हें, याद उन्हें आती नहीं बूढ़े पिता की जिंदगी।।
उन्हीं की एक और कविता है: ना तो मस्जिद न शिवालय पर खत्म होती है। भूख की आग निवाले पे खत्म होती है।।जुगनुओं लाख उड़ो पंखों में बांधे कंदील। रात ताते दिन के उजाले पे खत्म होती है।।
बलराम श्रीवास्तव, मैनपुरी ने छूने को अपनी मांं के चरण भूल गए हैं, मां की दुआ दुआ है कोई खेल नहीं गीत सुनाया। इंद्रा गौड़, सहारनपुर ने मैं सतह पर जी न पाई, एक पिंजरा देह का था, एक खुद हीबना लिया। राजेंद्र राजन, सहारनपुर ने भीनी ख्ाुशबू एक तरफ है, सारा गुलशन एक तरफ। शाहपुरा के कैलाश मंडेला ने मेवाड़ी में अकाल पर कविता सुनाई, जिसके बोल मुझे याद नहीं रहे लेकिन गीत के बोेल मुझे याद नहीं है। चित्तौड़गढ़ के रमेश शर्मा ने `ठंडी हवाएं, सौंधी खुशबू लाता है तेरा सावन´ जैसी रचनाएं पेश कर वाहवाही लूटी।
उनको नहीं सुन
पायामैं गीत चांदनी में थोड़ी देर से पहुंचा इसलिए कार्यक्रम की शुरुआत नहीं देख पाया। बाद में पता चला कि कार्यक्रम की शुरुआत राजस्थान पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी ने की। वैसे मुझे लगता है कि कोठारीजी सिर्फ संपादक की हैसियत से वहां नहीं गए थे, बल्कि तरुण समाज, कवि सम्मेलन और गीत चांदनी से उनका पुराना रिश्ता है, इसलिए गए होंगे। कुलिशजी तरुण समाज के संरक्षक मंडल में थे और गुलाबजी भी कवि सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।

Sunday, October 12, 2008

बर्थ डे और वन नाइट एट ए कॉल सेंटर

कल मेरा बर्थ डे था, दिन भर घर पर ही था, शाम को ऑफिस जाना था। निकलने से पहले दो दोस्‍तों को जेकेके कॉफी पीने बुलाया तो अचानक प्‍लान बना कि फि‍ल्‍म देखी जाए और ऑफिस से छुटटी के लिए बॉस को फोन किया और उन्‍होंने छुटटी भी दे दी। दो ऑप्‍शन थे किडनैप देखी जाए या हैलो क्‍योंकि चार लोगो में यही दो फिल्‍में कॉमन थीं, जो हममें से किसी ने नहीं देखी।
यह फ‍िल्‍म चेतन भगत की मशहूर किताब वन नाइट एट ए कॉल सेंटर पर आधारित थी, इसलिए मैंने किडनैप पर इसको तरजीह दी। कुल मिलाकर कहानी है एक कॉल सेंटर और उसमें काम करने वाले छह लोगों की। पिछली कई फिल्‍मों की तरह यह भी फ़लैशबैक में ही थी। सलमान खान को कैटरीना कैफ अजीब लगने वाली यह पूरी कहानी सुनाती है।
कहानी के छह किरदार है
पहला सिद़धार्थ यानी सरमन जोशी – कॉल सेंटर की उस टीम का हैड, अपने साथ काम करने वाली प्रियंका (गुल पनाग, से प्‍यार करता है। लेकिन प्रियंका की मां चाहती है कि उसकी बेटी किसी एनआरआई के साथ घर‍ बसाए। मां की जिद के आगे प्रियंका भी उससे शादी न करने की सोचती रहती है।
तीसरा है वरुण (सोहेल खान (- स्‍टॉरंग बॉडी वाला वरुण गुसैल है, लेकिन जो मन आता है वही करता है। फिल्‍म में हंसी मजाक करने और उसकी स्‍पीड को बनाए रखने का काम यही करता है। यूं तो वह दिलफेंक है पर आफिस में ही काम करने वाली मॉडल
ईशा कोप्पिकर को चाहता है।
पांचवां किरदार है राधिका, अमृता अरोडा के रूप में शादीशुदा भारतीय नारी। सास के तानों से परेशान है फिर भी रात भर कॉल सेंटर में काम करने के बाद दिन भर सास की सेवा करती है, पति बेंगलूर में काम करता है। आधी फिल्‍म बाद पता चलता है कि उसका पति किसी और लडकी को चाहता है।
मिलिटरी अंकल, आर्मी से रिटायर्ड हैं, बेटा नफरत करता है और अमेरिका में रहता है। उन्‍हें गम है कि वे अपने पोते को दादा के हिस्‍से का प्‍यार नहीं दे पा रहे। इस स्‍टोरी के सबसे बुजुर्ग हैं।
एक रात उनकी नौकरी पर तलवार लटकी है। सारे लोग अलग अलग निजी समस्‍याओं को लेकर परेशान हैं। सरमन और गुल पनाग की समस्‍या है कि अगली सुबह गुल को देखने के लिए लडकेवाले आने वाले हैं। उनकी लव स्‍टोरी का आखिरी दिन है।
ईशा का मॉडलिंग असाइनमेंट कैंसिल हो गया। राधिका को आज ही पता चला है कि उसके पति की जिंदगी में कोई और लडकी है। मिलिटरी अंकल को उनके बेटे ने पोते से दूर रहने की हिदायत दी है। ऐसी मनहूस रात में सभी लोग एक टवेरा में जाते हैं, पूरी बोतल गटक चुका वरुण गाडी डाइव कर रहा होता है और कार एक पुल पर लटक जाती है। मदद के लिए मोबाइल निकालते हैं तो पता चलता है कि नेटवर्क नहीं है। इतने में डेशबोर्ड के पास पडा एक टूटा हुआ बिना सिम का मोबाइल बजता है। सामने से भगवान बोल रहे होते हैं। वे चार सूत्री संदेश देते है ::: दिमाग, :::: और आत्‍मविश्‍वास।
बस सभी लोग इस संदेश को आगे फैलाने की कसम खाते हैं और इतनी देर में रेसक्‍यू टीम आ जाती है और सभी लोग बच जाते हैं।
इसके बाद सभी की जिदंगी का अंदाज बदल जाता है। पहले अपने बॉस को बहार निकलवाकर अपनी नौकरी बचाते हैं। उसके बाद सब कुछ फिल्‍म की हैप्‍पी एंडनिंग।

हां अंत में सिदधार्थ और वरुण अपनी कंपनी खोलते हैं। सिदधार्थ प्रियंका से शादी कर लेता है, वो काम छोडकर अब बीएड कर रही है, बच्‍चों की स्‍कूल टीचर बनना चाहती है। राधिका हाउसवाइफ है और उसके पति ने अपनी गलती मान ली। मॉडलिंग छोड ईशा अब एनजीओ में है और मल्‍टीनेशनल्‍स से फंड रेज करती है।

खास बात
पहली ये कि फिल्‍म कामचलाऊ है, लेकिन परिवार के साथ शायद नहीं देखी जा सकती। सीन ऐसे नहीं हैं, पर कॉल सेंटर पर आधरित फिल्‍म है इसलिए कई चीजें खुलेआम दिखाई हैं। जैसे पब के बाहर टेवेरा जैसी बडी गाडी का मिसयूज। यह लाइन आपको फिल्‍म देखने के बाद समझ आएगी।
फिल्‍म में कई चीजों का खूब एड किया है, जैसे एनडीटीवी का टॉक शो, टवेरा। सनफीस्‍ट बिसकुट और कोला की वाट भी लगाई है।
फिल्‍म में एक सॉ‍लिड आइडिया है
रेडियो मिर्ची के नाम से वरुण, राधिका के पति को रात तीन बजे फोन करता है कि हम आपके बताए गए एक एडेस पर बुके भेज सकते हैं। बताइये किसको भेजना चाहते है। माता, पिता, बहन, प्रेमिका या पत्‍नी को। उधर से जवाब आता है कि सोलानी नाम की उसकी प्रेमिका को वह बुके भेजना चाहता है। बस इधर राधिका का दिल टूट जाता है।
फिल्‍म के बीच में बहुत सारे फोन आ गए, इसलिए कई अच्‍छे डायलॉग्‍स और सीन्‍स की वाट लग गई इसलिए आपको भी कुछ दिखे तो बताएं।

Tuesday, September 30, 2008

कविता और उससे संबंध रखने वालों के लिए खुशखबरी


कविता, कवि सम्मेलन और उससे संबंध रखने वाले लोगों के लिए खुशखबरी है। जयपुर के हास्य कवि सुरेंद्र दुबे ने `कवि सम्मेलन समाचार´ नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू की है। इस मैग्जीन के हर अंक की कीमत 25 रुपए रखी गई है, वार्षिक शुल्क 150 रुपए है।
पहला अंक बाकी मैग्जीन्स के प्रवेशांक की तुलना में सुंदर और पठनीय बन पड़ा है। यह अपने आप में इकलौती पत्रिका है, जिसमें कविता और उससे जुड़ी जानकारी विस्तार से है।
पहले अंक में `कवि सम्मेलन परिचय´ में जयपुर में 1971 से चल रहे `महामूखü सम्मेलन का जिक्र किया गया है। देश भर में पिछले माह हुए कवि सम्मेलनों की भी एक संक्षित रिपोर्ट दी गई है। बहस के अंतर्गत कवि सम्मेलन में पैरोडिया़ क्यों हो न हो है। कहत कबीर सुनो भई साधो में राजनीतिक खबरों पर क्षणिकाओं के जरिए कटाक्ष किया गया है। ताराप्रकाश जोशी, किशन सरोज और डॉ. कीर्ति काले के गीतों को जगह दी गई है। पाकिस्तानी शायर अहमद फराज को श्रद्धांजलि स्वरूप एक लेख लिखा गया है। मैग्जीन में चार हास्य लेखों को भी जगह दी है। ब\"ाों की दुनिया, भविष्य फल और कविता से जुड़ी पुस्तक की समीक्षा भी नियमित रूप से दी जाएगी। यानी कुल मिलाकर 64 पन्नों में कवि, कविता और उससे जुड़े सभी पक्षों को जगह दी गई है।
पुस्तक प्राप्त करने के लिए सुरेंद्र दुबे से 7 झ 9 जवाहर नगर, जयपुर (मो. 9829070330) और डॉ. कीर्ति काले, द्वारका नई दिल्ली (मो. 9868296259) पर संपर्क किया जा सकता है। आप kavi@surendradube.com पर ई मेल भी कर सकते हैं।

Monday, September 29, 2008

बिना पुलिसवाले के रेडलाइट की भी इज्जत नहीं

दिन में छोटे भाई को सिंधी कैंप बस स्टैंड (जयपुर का के ंद्रीय बस स्टैंड) छोड़ने गया। यूं तो मैं थोड़ी तेज ड्राइव करता हूं, लेकिन बेतरतीब नहीं। जाते समय एक कार वाले ने पीछे से हॉनü बजाया तो मैंने बाइक रोकी। उनकी समस्या थी कि मैं बाइक एक तरफ नहीं चला रहा। खैर मुझसे निपटने इससे पहले ही पीछे से आ रही एक बाइक उनकी कार से टकरा गई।
बस स्टैंड तक पहुंचने से पहले ही भीलवाड़ा जाने वाली बस दिखी। छोटे भाई को भीलवाड़ा तक ही जाना था इसलिए मैंने समय बचाने के लिए बाइक वहीं से मोड़कर बस के पीछे लगा दी। रविवार का दिन था चौराहों पर एक भी ट्रैफिक पुलिस वाला नहीं था। पहली लालबत्ती पर बस ने बिना रोके निकाल ली। गणपति प्लाजा के सामने लगी दूसरी लाल बत्ती ग्रीन थी बस निकल गई उसके पीछे पीछे मैं भी था। मेरे आगे निकलने से पहले ही सामने का ट्रैफिक बिना ग्रीन लाइट हुए ही आने लगा। इसबीच में सही दिशा में जा रहा था। मुझे देख एक बाइक सवार ने ब्रेक लगाए और क मबख्त टूटी सड़क की वजह से बाइक çस्लप हो गई। बाइक पर सवार दोनों लोग गिर पड़े। मुझे बस पकड़नी थी इसलिए मैंने एक बार बिना रुके आगे बढ़ने की सोची। गिरा पड़ा बाइक सवार मानों पीटने के लिए उठा और मेरी और दौड़ा, मैंने भी मौके की नजाकत को समझते हुए बाइक रोक ली। अगर भागता तो हो सकता है लोग मेरी गलती समझ सकते थे। मैं रुका और उनको दिखाया कि अभी तक उनकी वाली तरफ लालबत्ती थी और मेरी तरफ ग्रीन सिग्नल। मैंने उनसे कहा कि भाई साहब आप तो बुजुर्ग हो कम से कम लाइटों की इज्जत करा करो।
थोड़ी गर्मा गर्मी के बाद मैं उस बस का पीछा करने लगा और दो लाल बत्ती के बाद अजमेर पुलिया पर बस को पकड़ ही लिया।
कुल मिलाकर बात यह हिंदुस्तान में ट्रैफिक को कंट्रोल के लिए केवल रेडलाइट लगाने से ही काम नहीं चल सकता। जब तक वहां पुलिसवाला न खड़ा हो लोग उसकी इज्जत ही नहीं करते।
(वैसे कई बार मैं भी जंप कर चुका हूं, पर अमूमन पालना करता हूं)

Sunday, September 28, 2008

कौनसा लैपटॉप खरीदना चाहिए, राय दें

लैपटॉप खरीदना है। सभी तकनीकी साथियों से राय चाहिए। ज्यादा काम नहीं है, बस घरेलू काम धाम गाने सुनने, ब्लॉगिंग और छोटा मोटी जरूरतों में काम आ सके।उम्मीद है सही राय मिलेगी

Friday, September 26, 2008

गांव की जिंदगी और खूबसूरत कहानी यानी `सज्जनपुर´


बुधवार को ऑफ था और `वेलकम टू सज्जनपुर´ देखकर मनाया। श्याम बेनेगल ने ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खूबसूरत फिल्म बनाई है। (अब आप यह मत कह दीजिए कि राजीव आजकल कोई काम-वाम है कि नहीं, फिल्में ही देखते रहते हो। पता नहीं ऐसा कैसे हो गया, इस महीने कई फिल्में देख डालीं और आपकी किस्मत देखिए कि फिल्में थी भी अच्छीं।)
तो अब सुनिए कहानी

`वेलकम टू सज्जनपुर´ कहानी है एक गांव की, जहां इकलौता महादेव यानी श्रेयस तलपड़े ग्रेजुएट है, गांव के बाकी लोग उससे अपनी चि_ी लिखवाने और पढ़वाने आते हैं, अब यही उसका धंधा हो गया है। इसलिए सारे गांव का दुख दर्द और खुशी की खबरें उनके पास रहती है। पिछली कई फिल्मों की तरह (ए वेडनस डे, बचना ए हसीनो) यह फिल्म भी फ्लैशबैक में है। चि_ी लिखवाने आए लोगों से बातचीत के साथ-साथ ही फिल्म पीछे भी चलती रहती है। महादेव के पास एक दिन उनकी दूसरी क्लास की क्लासमेट कमला (अमृता राव)आती है। तब पता चलता है कि महादेव भी कितना रसिक हुआ करता था। फिल्म में एक सीन पर जरा गौर कीजिए।दूसरी क्लास का दृश्य है महादेव क्लास का सबसे होनहार बच्चा है। गुरुजी बाकी बच्चों को उसकी तरह बनने के लिए कहते हैं। उधर, कमला की हैंडराइटिंग सबसे खराब है। क्लास के बाद कमला, महादेव से कहती है कि तू मुझे अपनी तरह सुंदर लिखना सिखा दे तो मैं तुझे लaå दूंगी। शरारती महादेव कहता है `गाल के लaå खिलाएगी क्या´! कमला हां करती है और शरारती महादेव उसे `किस` कर देता है और टीचर के देखने पर बखेड़ा हो जाता है। यूं तो फिल्मों में `किस´ करना आजकल सामान्य सी बात है, पर इस फिल्म के लिहाज से सीन थोड़ा गड़बड़ सा लगता है।


हां तो कहानी आगे बढ़ती

हैकमला का पति (कुणाल कपूर) कमाने के लिए मुंबई गया हुआ है और कमला शादी के बाद चार साल से सास के साथ गांव में ही रह रही है। कमला खत लिखवाने और पढ़वाने के बहाने महादेव के पास आती रहती है और महादेव के मन में बचपन का प्यार जागने लगता है। अब उसके मन का खोट धीरे धीरे उसकी लिखी चि_ी में दिखने लगता है और वह उसके पति को उकसाने वाली चि_ी लिखता है कि उनका रिश्ता टूट जाए। लेकिन जब उसका जवाब आता है तो महादेव को पता चलता है कि कमला का पति बंसी उसे कितना चाहता है। पैसों के लिए वह गुदाü बेचने को तैयार है। बाद में महादेव को गलती का अहसास हो जाता है और वह अपनी जमीन गिरवी रखकर बंसी को पचास हजार रुपए सौंप देता है। बंसी और कमला झुग्गी खरीदकर एक साथ मुंबई रहने लग जाते हैं।
अब सुनिए गांव और कहानी

महादेव और कमला की कहानी के अलावा गांव में कई और कहानी साथ साथ चलती रहती हैं। उनमें से एक है ब्रिगेडियर की बाल विधवा बहू की कहानी। गांव के इकलौते हॉçस्पटल का कम्पाउंडर (रवि किशन) उसकी खूबसूरती पर फिदा है, इलाज कराने आती है तो दिल दे बैठता है। हालांकि ब्रिगेडियर ऐसा होने पर ख्ाुश है पर गांव वाले दोनों को फांसी पर लटका देते हैं।गांव में एक महिला (ईला अरुण) की बेटी को मंगल दोष है। उसको दूर करने के लिए कुत्ते से शादी कराई जाती है। `अपनी भी कोनो जिंदगी है कि नहीं´ का सैट फॉमूüला रखने वाली लड़की समझदार है वह मंडप से भाग आती है। फिल्म के लास्ट सीन में पता चलता है कि अब वह हीरो महादेव की पत्नी हो गई है।इन दो कहानियों से श्याम बेनेगल ने गांव में अंधविश्वास और रुçढ़वादी समाज को दिखाया है। इसके अलावा एक और कहानी है, जो लोकतंत्र में आस्था को और मजबूत करती है। गांव में दबंग के सामने कोई भी चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं रखता, सबसे मजबूत मुçस्लम दावेदार खुद को आईएसआई का एजेंट बताने पर नाम वापस ले लेता है, लेकिन लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए उन दबंगों के सामने एक किन्नर चुनाव लड़ता है। हालांकि उसे डराया धमकाया जाता है, लेकिन महादेव की मदद और गांव वालों के साथ के कारण जीत जाता है। यह एक सीन है जिसे ख्ाूबसूरती से फिल्माया गया है। फिल्म में किन्नर को चुनाव लड़ने पर दबंगों के डराने के बाद उसका आकर महादेव के पास रोना और उसकी मदद की गुहार करने वाला सीन श्याम बेनेगल ने दिल से फिल्माया है। अगर आप थोड़े भी संवेदनशील हैं तो रो सकते हैं।
फिल्म में गाने भी हैं, बोल अच्छे हैं। कुल मिलाकर फिल्म देखने लायक है।


बस एक बात, जो मुझे कई बार फिल्म में लगी कि क्या आज भी सज्जनपुर जैसा कोई गांव है!

Tuesday, September 23, 2008

तो आखिर खिसक गया कॉमनमैन का दिमाग


`ए वैडनेस डे´ फिल्म में नसरुद्दीन शाह का यह डायलॉग तगड़ा हिट करता है कि जिस दिन कॉमनमैन का दिमागा खिसक गया तो आतंकवाद खत्म हो जाएगा। हाल के दिनों में आतंकवाद पर बनी यह सबसे नई फिल्म है। लेखक-निर्देशक नीरज पांडेय की इस फिल्म में नसरुद्दीन शाह और अनुपम खेर (प्रकाश राठौड़, कमिश्नर मुंबई पुलिस) ने दमदार अभिनय किया है। फिल्म का कथानक बहुत ही कसावट भरा हुआ है। फिल्म दिखाती है कि एक कॉमनमैन मोबाइल-लैपटॉप की मदद और अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से किसी बिçल्डंग की छत पर बैठे बैठे ही मुंबई की पुलिस को बेवकूफ बनाकर तीन घंटे में किस तरह चार खूंखार आंतकवादियों को मरवा देता है। काम खत्म होने के बाद सब्जी का थैला लेकर लौट जाता है।
फिल्म शुरू होती है नसरुद्दीन शाह के पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने जाने से और वहीं से फिल्म इतनी तेज गति पकड़ती है कि अंत तक नहीं रुकती। फिल्म को देखकर लगता है कि अगर स्क्रिप्ट सॉलिड हो तो न तो आइटम सॉन्ग की जरूरत है और न ही बदनदिखाऊ दृश्यों की। दीपल शॉ जैसी गरमा-गरम हिरोइन के बावजूद फिल्म में एक भी `सीन´ छोडि़ए, गाना तक नहीं है। इसके बावजूद फिल्म कहीं भी बोर नहीं करती।
हालांकि, फिल्म में थोड़ा मनोरंजन दिखाने के लिए तीन डायलॉग है।

पहला : रिपोर्टर दीपल शॉ का बिजलीबाबा से इंटरव्यू

दूसरा : पुलिस मुख्यालय में हैकिंग के लिए बुलाए गए एक युवा का अपनी प्रेमिका को थोड़ी देर में आने के लिए  आश्वस्त करना। 

तीसरा : फिल्म में डॉन (तब तक पता नहीं चलता कि नसरुद्दीन शाह कौन हैं) को ऑफिस से लौटते वक्त पत्नी का सब्जी लाने का आग्रह। 

फिल्म वास्तविकता के आसपास है, फिल्म दिखाती है कि आम आदमी में आतंकवाद के खिलाफ गुस्सा इतना ज्यादा हो गया है कि वह अब उससे अपने तरह से निपटना चाहता है। मुंबई में धमाकों के बाद गुस्साए नसरुद्दीन शाह इस बात का खुलासा भी करते हैं। कमिश्नर जब उनसे पूछते हैं कि वे बदला लेना क्यों चाहते हैं, क्या उनका कोई धमाकों में खोया है। वो कहते हैं हां, एक था नाम नहीं पता। बस रोज ट्रेन में मिलता था, मुस्करा देता था, कल ही उसने अपनी रिंग दिखाई कि उसकी शादी होने वाली है। शुक्र था कि धमाकों के दिन मेरी ट्रेन मिस हो गई और वे बच गए।
क म ही फिल्मों में दिखने वाले जिम्मी श्ोरगिल ने भी एटीएस में इंस्पेक्टर के रॉल को बखूबी निभाया है। डायरेक्टर ने फिल्म में छोटी छोटी बातों का बड़ा ख्याल रखा गया है मसलन मुçस्लम आतंकवादियों से बात करते वक्त पुलिस अधिकारी का ताबीज छुपाना  ताकि कहीं उसे भी यह न लगे वह भी मुसलमान है।
(मेरी सलाह है कि आप फिल्म जरूर देखें, इसलिए कहानी जानबूझकर नहीं लिख रहा हूं ताकी आपका मजा रहे बरकरार)
अपनी राय जरूर बताएं

Sunday, September 21, 2008

क्या इनको लिफ्ट देनी चाहिए थी

रविवार का दिन था, दिन में घर पर ही फिल्म देखने के चक्कर में पहले ही थोड़ी देर से आफिस के लिए निकला। रास्ते में ऑफिस से एक चौराहे पहले लकड़ी थामे एक बुजुर्ग ने लिफ्ट मांग ली। मैं वैसे भी कभी लिफ्ट देने से मना नहीं करता, पर किसी बुजुर्ग को पहली बार लिफ्ट दी। हालांकि मुझे किसी को उसकी मंजिल तक पहुंचाने की खुशी थी, पर अनुभव कुछ ठीक नहीं रहा।हुआ यूं कि बाइक रोकते ही मैंने पूछा अंकल कहां जाना है। मैं सिर्फ अगले चौराहे पर पानी की टंकी तक जाऊंगा उसके पास ही मेरा आफिस है, वो बोले कि बस उससे थोड़ा आगे ही जाना है। मैंने कहा ठीक है, बैठ जाइए। बस बैठते ही अंकल लोगों को ड्राइविंग सेंस के लिए गाली देने लगे। चार कदम ही चले कि मुझे कहने लगे कि आराम से चलाओ। मुझे जहां तक जाना था, वहां उनको उतरने के लिए बाइक रोकी तो बोले बेटा जरा सा आगे है, डॉक्टर से मिलना है देर हो जाएगी, जरा छोड़ दो।हालांकि मुझे देर हो रही थी। (वैसे तो मैं ऑफिस टाइम से एक घंटे पहले ही आ गया था पर बॉस ने कुछ काम बता रखे थे इसलिए और पहले निकला था) खैर मैं उन्हें छोड़ने के लिए आगे बढ़ा तो यूनिवçर्सटी के प्ले ग्राउंड में बास्केटबॉल खेल रहे लोगों को एक नजर देखा, तो बुजुर्गवार बोले, क्या देख रहे हो। मैंने कहा अंकल देख रहा हूं किसका मैच हो रहा है। (हो सकता है मैं अपनी जगह गलत हूं, लेकिन अपनी आदत से परेशान हूं, रास्ते में हमेशा देखते हुए निकलता हूं कि कोई परिवर्तन या नई चीज)। वो बोले, मैच देखना है टीवी पर देखो, अभी तो चलो।मुझे गुस्सा आया पर क्या करता उम्रदराज थे, चुप ही रहा। आगे बढ़ा पूछा कहां छोडूं तो बोले थोड़ा सा आगे है। इस बीच उनके डायलॉग चलते रहे। मसलन आगे तेज रफ्तार में स्कूटी पर जा रही लड़की को देखकर बोले इस लड़की को चलाना नहीं आता फिर भी चला रही है, पर अपने को धीरे चलना है। उसके बाद थोड़े भीड़ भरे इलाके से गुजरा तो आगे झुंड में जा रहे राहगीरों को देखकर बोले, ये बिहारी हैं इनको नहीं पता कैसे चलना है। बस गांव से यहां आ गए हैं, न चलने का ढंग है न कुछ और। खैर मैं बिड़ला मंदिर से चला चला सेठी कॉलोनी के पागलखाने तक पहुंचकर पक चुका था। मेरा ऑफिस दो किमी पीछे छूट चुका था और उनके डॉक्टर का मकान नहीं आया। मैंने दो तीन बार पीछा छुड़ाने के लिए धीरे से कहा अंकल कहा गया आपका डॉक्टर का मकान। पर उन्होंने पांच किमी का सफर कराकर करीब-करीब ट्रांसपोर्ट नगर चौराहे के पास तक ले जाकर ही दम लिया। उतरते ही बोले, मैं तुम्हें उस रास्ते से लाया हूं, जहां ट्रैफिक सबसे कम था अब ऐसे ऐसे करके चले जाना, रास्ता तो जानते हो न। और बिना धन्यवाद दिए मकान में अंदर घुस गए!

Saturday, September 20, 2008

इससे, बचना ए हसीनो!



यशराज की नई फिल्म बचना हसीनो ( रिलीज हुए काफी समय हो गए, पर इसे मेरे लिए नई कह सकते हैं) कल ही डीवीडी पर देखी। फिल्म में कहानी है एक दिलफेंक युवा `राज´ यानी रणवीर कपूर के तीन अफेयर्स की।
पहली कहानी


18 साल का युवा `राज´ दोस्तों के साथ स्विट्जरलैंड टूर पर जाता है, वहां वह अपनी दिलफेंक अदा से ट्रेन छूट रही लड़की का साथ पाने के लिए अपनी ट्रेन भी मिस करता है। एक रात स्कूटी पर सफर करके अपने आखिरी स्टॉपेज तक पहुंचता है। इस बीच हिरोइन माही यानी मिनीषा लांबा से टाइमपास करता है। एयरपोर्ट पहुंचने पर 24 घंटे में जो कुछ होता है, वह अपने अंदाज में बीफ्र कर ही रहा होता है कि हिरोइन सुन लेती है। और उसे पता चलता है कि वह फ्रॉड है और सिर्फ टाइमपास कर रहा था। पहली कहानी उसके मन में प्यार के प्रति नफरत जन्म लेकर यहीं दम तोड़ देती है।
दूसरी कहानी


शुरू होती है मुंबई में बिपासा बसु के साथ। एक मल्टीनेशनल में सीनियर पॉजिशन वाला युवा राज इससे पहले तक किसी के साथ `लिव इन रिलेशनशिप´ में रहता है। काफी पैसे बचाने के बाद वह एक फ्लैट लेता है और वहां पड़ोसी राधिका यानी बिपाशा बशु से मिलता है। धीरे धीरे बातचीत होती है और वो बिना शादी ही एक साथ रहने लगता है(हमनें दोनो फ्लैट के बीच की दीवार गिरा दी, फिल्म का डायलॉग्), करीब साल भर बाद राज का ट्रांसफर हो जाता है और वह राधिका को सिडनी जाने की बात बताता है। राज की राजगिरी को राधिका इतने दिनों से प्यार समझ रही होती है और वह उसे शादी के लिए कहती है। राज सीधे मना नहीं कर पाता और अपने दोस्त से फामूüला पूछता है। फाइनली जिस दिन चर्च में शादी करनी होती है उस दिन सुबह ही राधिका को बिना बताए सिडनी चला जाता है। राधिका उसका चर्च में रात तक इंतजार करके चली जाती है और उधर हीरो नई सैटिंग की तैयारी में !
कहानी नंबर तीन


हीरो अंडरवीयर-बनियान में रोड पर बैंच पर बैठा होता है कि टैक्सी ड्राइवर तीसरी हीरोइन गायत्री यानी दीपिका पादुकोण आती है। वह सीधे पूछती है आप ऐसी ड्रेस पहनकर ही सड़क पर बैठे रहते हैं या कोई और बात है। इतने में ही ऊपर से एक लड़की कपड़े फेंकती है तो समझ में जाता है कि माजरा क्या था। थोड़ी गपशप के बाद पता चलता है कि वह बिजनेस स्कूल की स्टूडेंट है और जरूरत पूरा करने के लिए दिन में शॉप पर नौकरी और रात में टैक्सी चलाती है। पहली ही मुलाकात में वह बता देती है कि वह शादी में विश्वास नहीं करती और उसकी जिंदगी साथी के बिना ही ठीक है। हीरो भी अपनी जैसी मानकर उससे सैटिंग में लग जाता है।
एडिटर्स कट


अब तक मैं यही समझ रहा था कि इतनी शानदार फिल्में बनाने वाले बैनर यशराज की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं, जो युवाओं को प्रभावित करने वाली स्टोरी की बात कहकर ऐसी घटिया फिल्म बनाई है, जिससे हम निजी जिंदगी में कोई प्रेरणा नहीं ले सकते। प्रेरणा तो दूर कई जगह तो लड़कियां इतनी जल्दी सैट होने लगती हैं कि आपको कहानी ही फर्जी लगने लगती है।


हीरो चला गंगा नाहने


गायत्री से कुछ मुलाकातें होती हैं कि अब राज का हीरो वाला स्वरूप जागने लगता है कि उसने पहले वाली दो लड़कियों उसने धोखा दिया है। शायद यह पहली हिंदी फिल्म हो जिसमें हीरो खुद को कमीना और धोखेबाज कहते हुए स्वीकार करता हो। अब हीरो निकल पड़ता है प्रायश्चित करने और पहली हिरोइन माही के घर जाता है। वहां वह जैसे-तैसे उसे मनाने की कोशिश करता है पता चलता है कि धोखा खाई माही को अब प्यार में विश्वास नहीं है, यहां तक कि उसके दो बच्चे जरूर है, लेकिन उसने अपने पति से 15 साल में कभी रोमांस नहीं किया। बाद में राज के प्रवचन काम जाते हैं और वह माही को पति से प्यार करने की सलाह देकर जाता है। राज अपना दूसरा प्रायश्चित पूरा करने के लिए इटली जाता है, जहां उसकी पहली रूममेट राधिका (जो अब एक बड़ी मॉडल हो चुकी है) से क्षमा मांगता है। वह कई शर्तें रखती है और बाद में सुलह हो जाती है। इसके बाद हीरो सिडनी लौटता है। गायत्री प्यार का इजहार करती है और फिल्म की हैप्पी एंडिंग हो जाती है।


मेरी सलाह


इतनी अनैतिक और अजीब कहानी के बाद भी यह समझ से परे है कि फिल्म हिट कैसे हो गई। गाने बेशक अच्छे हैं, फिल्मांकन उससे भी सुंदर। तीन सुंदर हीरोइन है और एक लड़कियों का चहेता हीरो। मिनिषा कि ही çक्टंग ही थोड़ी कमजोर है, बिपाशा और दीपिका हॉट लग रही हैं। साथ में यशराज का बैनर, शायद इन्हीं सब ने फिल्म को हिट बनाया। यशराज की फिल्म समझकर अब उसे पारिवारिक मानना खतरे से खाली नहीं है। फिल्म में कई लिपलॉक हैं। बिपाशा ने तो मॉडल होने के नाते जितना अपना बदन çछपाया, उससे ज्यादा दिखाया है। फिल्म देखें सिर्फ कहानी पढ़कर काम चलाएं!




अगर आप भी कुछ राय रखते हों तो जरूर दें

Tuesday, September 16, 2008

उन अनजान पलों की भूल हमारी माफ़ करें


उत्तम क्षमा ......
अनजाने में बिन चाहे भी भूल सभी से हो सकती है
जीवन के क्रूर पलों में बुध्दि भी तो खो सकती है
उन अनजान पलों की भूल हमारी माफ़ करें
क्षमा पर्व पर क्षमा दान दे भूल हमारी माफ करें
उत्तम क्षमा .....
"क्षमा वीरस्य भूषणम्"
राजीव जैन

Sunday, September 14, 2008

इंतजार कीजिए इंटरनेट पर राज करेगी हिंदी


इंटरनेट पर हिंदी का तेजी से विकास हुआ है। फोंट की समस्या अब लगभग खत्म हो चुकी है, यूनिकोड फोंट के बाद हिंदी की लगभग सभी वेबसाइट इसी फोंट में आ गई हैं। दो साल पहले तक हिंदी भाषी इंटरनेट पर या तो टूटी-फूटी अंग्रेजी में मेल करता था या फिर रोमनाइज भाषा में, पर अब स्थिति बदल रही है वह अपनी मातृभाषा में ही लिख सकता है, और फोंट भी अटैच करके भेजने का झंझट खत्म। इंटरनेट पर हिंदी में लिखने के लिए अब लिपिका जैसे ऑनलाइन यंत्र आ गए हैं। किसी भी फोंट को यूनिकोड में परिवर्तित करने के लिए ढेरों फोंट परिवर्तक मौजूद हैं।
ब्लॉगिंग ने भी इंटरनेट पर हिंदी के विकास में अहम योगदान दिया है, लोगों को हिंदी में लिखना सिखाया। मैं ऐसे बहुत सारे लोगों से परिचित हूं, जिन्होंने ब्लॉगिंग के लिए ही हिंदी टाइपिंग सीखी, जो नहीं सीख पाए वे भी आसानी से ट्रांसलिट्रेशन के जरिए हिंदी में लिख रहे हैं।
हिंदी लिखने में आसानी का ही असर है कि 2007 की शुरुआत में 500 चिट्ठे वाला ब्लॉगजगत अब छह हजार का आंकड़ा पार कर गया है। 4300 हिंदी ब्लॉग तो अकेले चिट्टाजगत पर ही रजिस्टर्ड हैं। जुलाई 2007 में चिट्टाजगत पर कुल 4000 पोस्ट लिखी गई, जो जून 2008 में 10 हजार से ज्यादा हो गई।
हमें हिंदी के पिछड़ेपन का रोना छोड़कर देखना होगा कि आम आदमी अपनी जुबान में क्या कहना चाहता है। अब लोग ऑरकुट पर भी हिंदी में स्क्रैप भेज रहे हैं, भले ही वो अंग्रेजी को देवनागरी में लिखने से आए। हर वक्त भाषा की शुद्धता का ध्यान रखने वाले हिंदी के बड़े विद्वानों को सोचना होगा कि हम हिंदी को कैसे आमजन की भाषा बनाएं।
बस हमें चिंता इस बात की करनी चाहिए कि कि इंटरनेट पर हिंदी की संदर्भ सामग्री (जैसे विकिपीडिया) को कैसे और ज्यादा समृद्ध बनाया जाए। हमें विषय आधारित चिट्ठे बनाने होंगे। अभी का हाल यह है कि तीस फीसदी लोग तो हिंदी ब्लॉग पर सिर्फ क वितागिरी करते हैं, बाकी इधर-उधर की बातें और समसामयिक चर्चा। एक और चिंता की बात हम हिंदी माध्यम वाले अंग्रेजी विकिपीडिया से सामग्री लेते हैं, लेकिन उसकी एवज में अनुवाद करके हिंदी विकिपीडिया नहीं डालते। हम रोज सिर्फ उस अनुवाद को ही हिंदी विकिपीडिया पर डाल दें तो सालभर बाद यह परिदृश्य बदल जाएगा।
हिंदी के रेफरेंस के लिए काम करने वाले शब्दों का सफर जैसे नियमित चिट्ठों की संख्या एक फीसदी से भी कम है। अब जैसे-जैसे लोगों का इस ओर रुझान बढ़ेगा,विषयों की विविधता बढ़ेगी,लोग जुड़ेंगे। धीरे धीरे ही सही,एक दिन हिंदी भी नेट पर राज करेगी।
(डेली न्यूज़ में हिंदी दिवस पर प्रकाशित असंपादित लेख)

Saturday, September 13, 2008

जरा बैकअप से पुरानी वाली एहतियात दे दो


दिल्ली में शनिवार को ब्लास्ट हुआ। जयपुर, अहमदाबाद से पहले ब्लास्ट का शिकार बन चुका है। मीडिया की नौकरी है संवेदनशील मामला है, इसलिए हमें भी अपने शहर के दर्द को फिर से कवर करना था। इतने में बॉस का आदेश मिला कि बम से बचने के लिए एहतियात भी जरा छाप देना। रिपोर्टर को चीफ रिपोर्टर साहब का आदेश मिला, भई वो बैकअप से पुलिस की एहतियात वाली जानकारी क्या करें, न करें चला दो।
बस इसी लाइन से मुझे लगा कि हम कितने आदी हो गए हैं इन सब चीजों के (पहले सिर्फ एक्सिडेंट थे, अब ब्लास्ट भी शामिल हो गए हैं) कि तीन महीनों में तीन बार ये एहतियात छापनी पड़ गई।

Thursday, September 11, 2008

रॉक ऑन यानी जिंदगी दोबारा मौका नहीं देती


बुधवार को ऑफ था दोस्तों के साथ रात नौ से 12 फिल्म देखने चला गया रॉक ऑन। मुझे फिल्म जबरदस्त लगी, इसलिए इतनी मेहनत करके पूरी की पूरी कहानी लिख दी है। जिंदगी दोबारा मौका नहीं देती, जो करना है इसी जिंदगी में कर डालिए। कुछ यही संदेश देती है फरहान अख्तर की नई फिल्म `रॉक ऑन´। अगर आप फिल्म देखते हैं तो मेरी सलाह मानिए और फिल्म देख डालिए। म्यूजिक बैंड की कहानी है, इसलिए गाने और म्यूजिक बहुत हैं। पर यकीन मानिए धैर्य के साथ फिल्म देखेंगे तो लगेगा कि कहानी कुछ प्रेरणा देती है। हां अगर सीडी पर देखेंगे तो हो सकता है कि आपको फिल्म थोड़ी कम पसंद आए।

कुछ इस तरह है कहानी
चार दोस्तों ने मैजिक नाम से एक बैंड बनाया है। केडी, जोए और रोब के इस बैंड का लीड सिंगर है फरहान अख्तर यानी आदित्य। सभी दोस्त कुछ कर गुजरना चाहते हैं, इसलिए एक रियलिटी शो में पाटिüसिपेट करते हैं। मेहनत करके जीत भी जाते हैं और उसके बाद एक वीडियो बनाने का कॉन्ट्रेक्ट साइन करते हैं। वीडियो की शूटिंग चल रही होती है कि बैंड के बाकी साथियों को लगता है कि उनका दोस्त आदित्य ही प्राइम पोजिशन पर है, बाकी लोगों को वजन नहीं दिया जा रहा। इससे गुस्साए जोए यानी अजुüन रामपाल बैंड छोड़कर चला जाता है। इससे बैंड और कॉन्ट्रेक्ट दोनों टूट जाते हैं, सिर्फ जोए और रॉब ही इसी पेशे में रहते हैं। आदित्य एमबीए करके बड़ी कंपनी में इनवेस्टमेंट बैंकर और केडी अपने पिता के फैमिली बिजनेस में चले जाते हैं।
करीब दस साल बाद आदित्य की पत्नी उसके बथüडे पर शॉपिंग के लिए केडी की शॉप पर जाती है और बातों ही बातों में वहां उसे पता चलता है कि उसका पति कभी एक सिंगर था और हंसमुख हुआ करता था। पति को खुश करने के लिए साक्षी यानी प्राची देसाई बैंड के सभी लोगों को एक साथ लाने की कोशिश करती है। जोए को छोड़कर दोनों आ भी जाते हैं, लेकिन जोए नहीं आता। उधर आदित्य को भी बुरा लगता है कि उसकी पत्नी ने उसे भूली हुई बात याद दिला दी। कुल मिलाकर सामान्य सी लगते वाली कहानी यहां काफी दमदार तरीके से पेश की गई है।
पार्टी के बाद इस बात को लेकर साक्षी और आदित्य में थोडी सी कहासुनी होती है, उसका तर्क था कि वह चार साल से पति के साथ है, लेकिन उसे पता ही नहीं चलता कि उसके पति को कब क्या अच्छा लगेगा। एक तगड़ा डायलॉग है `हम दोनों के पोस्टल एड्रेस एक है, लेकिन एक दूसरे का समझते नहीं।´ उधर, दोस्त उसे कहकर जाते हैं कि वह कल मिले बैंड को रीयूनियन करने और उधर साक्षी पति से रूठकर घर चली जाती है।
आदित्य को अपनी गलती का अहसास होता है वह साक्षी को मनाने के लिए फोन करता है और वह अपने दोस्तों से मिलने चला जाता है। थोडी मान मनोव्वल के बाद जोए भी आ जाता है और उसी के घर बैंड की प्रैçक्टस करते हैं। अब वे रोज शाम को प्रैçक्टस करने लगे और फिर से एक शो में पाटिüसिपेट करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
इस बीच बेरोजगार जोए के लिए उसकी पत्नी डेबी जो उस समय बैंड की डिजाइनर बनना चाहती थी शिप पर नौकरी खोज लेती और जिस दिन उसके शो की रिकॉडिüZग होनी है, उसी दिन शिप जाना है। इसी बीच पता चलता है कि रोब को ब्रेन टयूमर है और वह कभी भी जिंदगी को अलविदा कह देगा। रिकॉडिüZग के समय बाकी तीनों आ जाते हैं, पत्नी के अरमान पूरे क रने के लिए जोए शिप के रास्ते में था कि एफएम पर प्रोग्राम लाइव आ रहा होता है और हीरो पत्नी व बच्चे को छोड़ यह कहकर की मेरे पास आखिरी मौका है, रिकॉडिüZग के लिए पहुंच जाता है। चारों दोस्त स्टेज पर धमाल मचाते हैं और मैजिक बैंड का जादू चल जाता है। रोब का यह शो आखिरी होता है।

गजब की एçक्टंग की है
जावेद अख्तर और हनी ईरानी के बेटे ने पहली बार फिल्म में अभिनय किया है। फिर भी कहीं से नहीं लगता कि उनकी बतौर हीरो पहली फिल्म है। दिल चाहता है जैसी फिल्म बना चुके फरहान जानते हैं कि फिल्म कैसे बनाई और बनवाई जाती है।

गीत अनोखे
फिल्म के गीतों के बोल बडे़ अनोखे हैं। पहली बार सुनेंगे तो अजीब लगेंगे। एकदम अलग ही तरह की तुकबंदी की गई है, लेकिन रॉक एलबम के लिए एक रॉक स्टार कैसे गीत लिखेगा और कहानी के साथ देखेंगे तो निश्चित रूप से अच्छे लगेंगे।

शुक्रिया दोस्त
फिल्म की कहानी कभी आगे चलती है तो कभी फ्लैशबैक में लेकिन स्टोरी है जबरदस्त। सामान्य सी लगने वाली कहानी ने मुझे तो खासा प्रभावित किया। सौ रुपए से ज्यादा का टिकट पूरी फिल्म में कहीं नहीं कचोटता। हालाकि मेरे पैसे मेरे मित्र ने दिए।
सबसे खास
कुछ डायलॉग्स लिखना चाहता था पर समीक्षा इतनी बडी हो गई है कि शायद आपको मुझ पर गुस्सा आ जाए, इसलिए छोड़ दिए हैं। अपनी राय जरूर बताइयेगा।