Tuesday, October 30, 2007
जयपुर में नाइट शिफ्ट में महिला पत्रकार
मुझे याद है कि नीलिमाजी ने ही एक दिन लिखा था कि अखबारों में महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम क्यूं नहीं दिया जाता। अखबार में नाइट शिफ्ट में महिलाएं क्यूं नहीं होतीं। उन्हें सिटी सप्लीमेंट और महिलाओं से जुडे परिशिष्ठों पर ही क्यूं लगाया जाता है।
लगता है उनके ब्लॉग पर उनके अखबार के मैंनेजमेंट वालों की नजर पड गया। नीलिमाजी का आजकल पहले पेज पर ट्रान्सफर हो गया है और अब वे देश के सबसे तेजी से बढते अखबार के पहले पेज की टीम में शामिल हो गई हैं। जयपुर में संभवतय वो पहली महिला हैं, जो रात्रि पाली यानी करीब दो बजे तक रुक कर काम कर रही हैं।
मुझे लगा कि इस गौरव पर हम ब्लागर्स को उनका उत्साह बढाना चाहिए।
उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ।
जय ब्लॉग
जय जयपुर
Tuesday, October 23, 2007
रद़दी पेपरवाला !
अखबार में काम करता हूं, इसलिए देर से घर लौटता हूं। अभी शादी नहीं हुई और जयपुर में छोटे भाई के साथ ही रहता हूं, डांटने वाला कोई नहीं है तो रात को ऑफिस के बाद पंचायती के लिए भी रुक जाता हूं, इसलिए अमूमन एक बजे के आसपास ही घर लौटता हूं। आजकल यह ब्लॉगिंग की आदत और लग गई है तो रात को सोते सोते अमूमन चार तो बज ही जाते है।
अब आप रूबरू होइये मेरी पीडा से....
दिवाली का त्योहार आने वाला है और आजकल घरों मे सफाई का दौर है। इस लिहाज से कबाडियों का सीजन है, इसलिए आजकल पौ फटते ही कबाडी सडकों पर दिखने लग जाते हैं। अब शुरू होती है मेरी समस्या
बस कबाडी गली में घुसा नहीं कि आवाज लगाना शुरू कर देता है, रददी पेपरवाले, रददी पेपरवाले....। और मेरी नींद अमूमन रोज इसी आवाज को सुनकर टूटती है। ये भाईसाहब इतनी जोर से चिल्लाते हैं कि आप कितना भी तकिया कान पर दबा लें या चददर मुंह पर रख लें, लेकिन ये कमबख्त आवाज इसे पार करके कान तक पहुंच ही जाती है। इतना सब करके मैं परेशान हो जाता हूं और फिर चाय पीकर अखबार पढकर भी दुबारा नींद नहीं आती।
रोज सोचता हूं कि या तो धमकाकर या समझाकर इसे मेरे घर के नीचे खडे होकर रददी पेपरवाला चिल्लाने से रोक दूं। पर अब तक हिम्मत नहीं कर सका सोचता हूं यार गरीब आदमी का बिजनेस है, चिल्लाएगा नहीं तो पब्लिक को कैसे पता चलेगा कि कबाडी आया है। खैर बाकी सबके लिए भले ही इसका मतलब कबाड से हो पर मुझे यह रददी पेपर वाला शब्द ही द्विअर्थी सा सुनाई पडता है, और शायद इसीलिए मैं लाख कोशिश करके भी सो नहीं पाता, लगता है जैसे कोई रददी पेपरवाला कहकर चिढा रहा हो।
अब कोई और पत्रकार पढ रहा हो और उसने भी अपनी बडी सी जिंदगी में यह छोटी सी बात अनुभव की हो तो भैया जरूर सूचित करना। कोई उपाय सोचा हो तो भी बताना और अगर रददीवालों की यूनियन की मीटिंग बुलाकर उनको आवाज में कोई और शब्द जैसे कबाडवाला या रददीवाला कहलवाने का सुझाव हो तो भी बताइएगा। हो सकता है दो-चार सौ मीडिया वाले अगर जोर डालकर इनकी यूनियन को बोलें तो ये बेचारे समझ जाएं। आखिर कबाड में सबसे ज्यादा तो अखबार ही होते हैं।
Monday, October 22, 2007
ब्रेकिंग न्यूज : मुंबई से पुणे की दूरी 170 किमी
हैडिंग पढकर परेशान होने का कष्ट न करें, यह दूरी कल भी इतनी ही थी और आज भी इतनी ही है। बस मैं तो जिक्र कर रहा हूं, भारत के सबसे तेज न्यूज चैनल आजतक पर सोमवार रात एक बजे की ब्रेक्रिंग न्यूज का।
संजय दत्त को मुंबई धमाकों पर स्पेशल टाडा कोर्ट ने दोपहर में ही फैसले की कॉपी दे दी। इसके तुरंत बाद उन्होंने सरेंडर कर दिया और रात करीब 11:30 बजे तो वे पुणे की यरवदा जेल भी पहुंच गए। इसके बाद रात एक बजे आजतक पर ब्रेकिंग न्यूज के तीन फ़लैश से आपको जबरन रूबरू करा रहा हूं।
1. संजय दत्त को पुणे की यरवदा जेल ले जाया गया
2. मुंबई से पुणे की दूरी 170 किमी
3. चार घंटे का सफर तीन घंटे में ही किया तय
अब अपने मुन्ना भाई कोई महात्मा गांधी तो हैं नहीं कि वे कितनी दूर पहुंचे जनता को इस बात की पल पल की खबर दी जाए। सेलिब्रिटी हैं इसलिए खबर इतने बडे पैमाने पर दिखाई जानी चाहिए थी, यह तर्क भी यहां कोई खास फिट नहीं बैठता। उनका पिछली बार जेल जाना वाकई बडी खबर हो सकती थी, लेकिन इस बार तो उनको जेल तय थी। खुद मीडिया रोज गिन गिनकर दिन बता रहा था। जनता जनार्दन को भी पता था कि दशहरे के बाद तो संजू बाबा को एक बार जेल जाना पडेगा। अब चलिए मान भी लिया जाए कि खबर बडी थी तो यह बता देते कि यरवदा जेल तीन घंटे में पहुंच गए। और ज्यादा था तो टाइम बता देते पर ब्रेकिंग न्यूज में मुंबई से पुणे की दूरी 170 किमी चलाना तो एकदम चिरकुटाई है।
अब अपने अटल बाबा किसी दिन स्वर्ग सिधार जाएंगे तो भी इसी फोन्ट साइज में फलैश चलेगा अटलजी नहीं रहे। अब इलेक्टॉनिक वालों कम से कम ब्रेकिंग न्यूज का कही तो सम्मान करो।
और अपने सबसे तेज चैनल को एक फोकट की सलाह कि मेरी न मानों तो अपने प्रतिस्पर्धी एनडीटीवी इंडिया से ही कुछ सीख लो यार, जो कम से कम ताजा खबर तो चलाता है, यूं ही कुछ भी ब्रेक तो नहीं करता।
आजतक और मीडिया के ठेकेदारों से क्षमा सहित।
(आदर्श परिस्थिति के अनुसार मुझे मीडिया में होने के कारण इस विषय पर टिप्पणी से बचना चाहिए था, पर मैं इस तरह की ब्रेकिंग न्यूज देखकर खुद को रोक न सका)
Friday, October 19, 2007
हनुमान चालीसा पर इश्क पहली बार देखा
यशराज बैनर की नई नवेली फिल्म लागा चुनरी में दाग देखने का मौका मिला। फिल्म में कई चीजें हैं, जो पचाए नहीं पचती। मसलन मैंने पहली बार देखा कि हनुमान चालीसा पढते हुए एक लडकी को प्लेन में हीरो ने देखा तो वह उसके इश्क में इस कदर पागल हो गया कि वह यह जानकर भी कि हीरोइन एस्कॉर्ट का काम करती है (फिल्म की ही लैग्वेज में कहुं तो बनारस की वेश्याओं का मुंबईया रूप), उससे शादी को तैयार हो गया।
फिल्म की कहानी रानी मुखर्जी यानी बडकी के आसपास ही चलती है। बडकी की एक बहन है छुटकी (कोकणा सेन) और मां (जया बच्चन) और पिता रिटायर्ड लेक्चरर अनुपम खेर। फिल्म की शुरुआत से ही रोना धोना मध्यमवर्गीय परिवार का वही किस्सा कि कमाने वाला घर में बीमार हो जाए और परिवार में और कोई पुरुष न हो तो क्या होता है। बेटा बनकर पिता के सारे अरमानों को पूरा करने और बहन की एमबीए की पढाई पूरी हो जाए इसे ध्यान में रखकर दसवीं पास रानी मुखर्जी मायानगरी मुंबई निकल पडती हैं। वही परेशानियों का पुलंदा और इस बीच सुंदर रानी को देखकर नजर फिसली और नौकरी देने के लिए कास्टिंग काउच सरिका प्रस्ताव। रानी अपने परिवार और पिता की खातिर तैयार हो जाती है, चुनरी मे दाग भले ही लग जाता, लेकिन रानी को नौकरी नहीं मिलती।
इसके बाद मुंबई में किसी की सलाह और परिवार की लाज के लिए रानी एस्कॉर्ट बिजनेस में कूद जाती है, और खूब पैसा कमाती है। उसकी मां सावित्री को यह बात पता होती है। पढाई पूरी होने के बाद छुटकी भी मुंबई आ जाती है और ऐड एजेंसी में नौकरी करने लगती है।
इसके बाद पर्दे पर रोना धोना कुछ कम होता है। कुनाल कपूर एजेंसी के क्रिएटिव डायरेक्टर के रूप में अच्छा अभिनय करते दिखाई देते हैं। दोनों की पटरी बैठ जाती है और शादी की तैयारी हो जाती है। बडकी भी छुटकी के शादी के लिए जब बनारस जाती है तो वहां उसकी फिर मुलाकात होती है अभिषेक बच्चन से जो कुनाल कपूर यानी विवान का बडा भाई होता है। अभिषेक और रानी विदेश में पहले ही मिल चुके होते हैं और एक और शादी की तैयारी होती है। और वही बेवकूफी जिससे एक अच्छी खासी हिंदी फिल्म का कचरा हो जाता है। रानी और अभिषेक की शादी हो जाती है। जबकी अभिषेक को रानी क्या करती है यह जानकारी पहले से होती है। फिल्म के गाने सुनने लायक है और हेमामालिनी भी दो बार पर्दे पर आती हैं। बहुत समय बाद कामिनी कौशल को भी देख सकते हैं।
फोकट की सलाह
कुल मिलाकर सभी ने एक्टिंग ठीक की है, लेकिन फिल्म में रोना धोना इतना ज्यादा है कि सहन नहीं होता, फिल्म जरूरत से ज्यादा स्लो है और एक फ्रेम के जाने से पहले ही दर्शक यह अंदाजा लगा लेता है कि अगला सीन क्या होगा। यशराज की टीम ने कहानी पर थोडा अच्छा काम किया होता तो पिफल्म चल सकती थी यूं भी फेस्टिव सीजन में रोना धोना कौन बर्दाश्त करता। एक और बात कि भैया पीसीओ से एक रुपए का सिक्का डालकर एसटीडी कॉल कैसे हो सकती है किसी को पता हो तो मुझे भी बताना। रानी के कंगाली के दिनों में अक्सर वो ऐसे ही फोन करती थी।
(मेरी छीछा लेदर करने वालों से क्षमा चाहता हूं, पिछले पूरे सप्ताह आफिस की व्यस्तता के चलते मैं प्रकट नहीं हो सकता)
Wednesday, October 10, 2007
चुनाव कैसे जीतते हैं गिरधारीलालजी से सीखो
जयपुर के जवाहर कला केंद्र में इन दिनों एक मेला चल रहा है। एक शाम की बात है मैं दोस्तों के साथ बाहर खडे होकर गपशप कर ही रहा था कि अचानक नजर पडी की मेनगेट पर चना जोरगरम बेच रहे एक आदमी के सामने शायद जानी पहचानी शक्ल वाला बुजुर्ग खडा है।
मैंने घूरकर देखा तो याद आया ओह ये तो अपने सांसद गिरधारीलाल भार्गवजी हैं। आजू बाजू देखा तो उनके साथ एक महिला भी थी और शायद एक युवक जो संभवतय उनकी पत्नी और रिश्तेदार ही होंगे।
इतने में ही सपरिवार भार्गवजी का सपरिवार नाश्ता खत्म हुआ और भार्गवजी ने रुपए देने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला और उनकी इस अदा का कायल हुए बिना दुकानदार भी न रहा और पैरों की ओर झुककर उनका अभिवादन करके रुपए न देने की गुजारिश करने लगा। बस सांसद साहब ने कब के गले लगाया दो मिनट बात की और अपनी कार में बैठकर विदाई ली।
बस यही एक अदा है जो भार्गव साहब को लगातार छह बार से संसद तक पहुंचा देती है। जयपुर वाले तो इस बात को जानते ही हैं अब बाकी भी पढ ले कि भार्गव साहब जब जयपुर में होते हैं तो सुबह उठकर सारे उखबारों से तीये की बैठक की जगह नोट करते हैं और निकल पडते हैं वहां के लिए। बस ये अदा है कि भले ही उन्होंने काम धाम कुछ कराया हो या न हो लेकिन एक मध्यमवर्गीय आदमी को यह बात ताजिंदगी याद रहती है। मुझे पता है कि कोई सांसद इसे तो नहीं पढ रहा होगा। गलती से कभी पढ ले तो भैया सीख लीजिएगा चुनाव जीतने के गुर। वोट आम आदमी ही देता है, वो नहीं जो फाइव स्टार में मिलते हैं क्यूंकि उन्हें तो वोट डालने की फुर्सत ही नहीं होती।
Tuesday, October 9, 2007
मायावती को भी लगी परिवारवाद की बीमारी
राजनीति ने अच्छे अच्छों को "ठीक" कर दिया है। फिर मास्टरनी मायावती कोई दूसरी मिटटी की थोडे ही हैं।
देर से सही लेकिन सत्ता में रहते हुए माननीय कांशीराम की सेवा की आड में मायावती ने सही टाइमिंग के साथ छोटे भाई आनंद कुमार को लखनऊ की रैली में मंच पर लाकर राजनीति में आगे करने का काम किया है।
यूं तो राजनीति में परिवारवालों का आगे आना न तो नया मामला है न इसमें चिंतित होने जैसी बात। पर दलित राजनीति और कांग्रेस के परिवारवाद को कोस कोसकर आगे बढी मायावती को यह शोभा नहीं देता।
वहीं उनके दलित वोटरों और कार्यकर्ताओं से जुगाडे गए करोडों रुपए से बना बहुजन प्रेरणा स्थल, जिसे आजकल बहुजन प्रेरणा टस्ट बना दिया गया है, उसके सर्वेसर्वा भी श्रीमान आनंदजी ही हैं।
मायावती ने कितनी साफगोई से जनसभा में कहा कि पार्टी के कामकाज और व्यस्तता में मेरी सेहत गिर गई और इस दौरान आनंद ने मुझे खून दिया और बसपा के मिशन को आगे बढाया। नोएडा में तैनात भाई ने अपनी सरकारी नौकरी भी छोड दी। मायावती का कहना है कि आनंद ने कांशीराम की भी खूब सेवा की।
अब यह लगभग तय है कि बसपा में माया के वारिस यही होंगे। सोश्यल इंजीनियरिंग के "जनक" सतीश चंद्र मिश्राजी आप भी खुद को ज्यादा होशियार मत समझिए। हो सकता है मायामेम ने आपकी बढती ताकत को कंटोल करने के लिए यह कार्ड खेला हो!
जयपुर की पहली ब्लॉगर्स मीट
यूं तो जयपुर में गिने चुने पांच या छह ही ब्लॉगर्स हैं अब तक और इत्तेफाक से वे भी एक दूसरे को जानते हैं। अब मुंबई से आशीष चला तो पहले ही भडास पर संदेश चस्पा कर दिया था कि भई जयपुर आ रहा हूं। इसलिए मिलने की प्लानिग करना। सोमवार को ऑफिस से ऑफ मिला तो शाम को मैंने आशीष और नीलिमाजी को जवाहर कला केंद्र ही बुला लिया। शाम छह बजे से शुरू हुई पिंकसिटी की पहली आफिशियल ब्लॉगर्स मीट। इस बीच पांच या छह और भी परिचित आते रहे। हम सब मिलकर उन्हें ब्लॉग के किस्से सुना सुनाकर बोर करते रहे। हमनें कई लोगों को याद किया, तकनीक पूछी कि हिंदी कैसे लिखते हो। तय हुआ कि जयपुर में ज्यादा से ज्यादा ब्लॉगर्स बनाए जाएंगे और जल्द ही एक बडी ब्लॉगर्स मीट रखी जाएगी। सबने एक दूसरे से शेयर किए कुछ आइडिया कुछ पारिवारिक डिटेल और ऐसे ही बतियाते बतियाते साढे आठ बज गए। नीलिमाजी को अपने घर की याद आ गई और करीब ढाई घंटे में हमारी ब्लॉगर्स मीट खत्म हुई। इस मीटिंग के दौरान खाने पीने का कुल बिल हुआ 106 रुपए जो नीलिमाजी के खाते में ही गया।
अब एक खास लतीफा
ईमानदार पुलिसवाला
हुआ यूं कि मीट खत्म करके आशीष का एक परिचित भी आ गया था उससे वहां मिलने और वे दोनों वहां बाहर सिगरेट पीने लगे और मैं और एक मेरा मित्र उनसे गपशप तो मेरा ध्यान पडा उस थडीनुमा तिपहिया रिक्शे के सामने जेकेके में चल रहे मेले में ही तैनात राजस्थान पुलिस का एक जवान आया और टेलीफोन बीडी का एक बंडल मांगा। बदले में जब उसने दस का नोट थमाया तो जितना खुश वो दुकानदार था उससे ज्यादा मैं। अब आप पूछेंगे क्यूं भई। ईमानदारी से मैंने पहली बार देखा की किसी पुलिसवाले ने बीडी के बंडल के
पैसे दिए हों। वो भी अपने इलाके में।
Sunday, October 7, 2007
जय हो जयपुर की
रविवार शाम जयपुर में साहित्यिक वेबपत्रिका इंद्रधनुष इंडिया का पहला बर्थडे मनाया गया। मेरे पास ईमेल से एक चिट़ठी आई थी तो मैं अपने साथी और मुंबई से आए ब्लॉगर मित्र आशीष महर्षि को साथ लेकर वहां पहुंच गया। खुशी थी कि जयपुर में कम से कम बेव जनर्लिज्म उसके सगे संबंधियों पर सीरियसली काम तो हो रहा है। वैसे मुझे लगता है कि ऐसा पहली बार हुआ होगा कि किसी ने वेबसाइट का जन्मदिन भी इस धूमधाम से सलिब्रेट किया हो।
कार्यक्रम के आयोजक प्रगतिशील लेखक संघ को इस आयोजन के लिए साधुवाद देना चाहिए जिन्होंने इस नई वैचारिक क्रांति के लिए भी फुरसत निकाली। कार्यक्रम को भले ही वेब जनर्लिज्म गोष्ठी का नाम दिया गया हो, लेकिन इसमें हॉल की सारी कुर्सिया भरी हुई थीं। लोग कार्यक्रम में जिसके भी बुलावे पर आए हों, लेकिन तय है कि आयोजकों के हौसले निश्चित रूप से बढे होंगे। वर्ना आजकल परिचर्चा जैसे कार्यक्रमों में गिनती के लोग होते हैं। एक और चीज पर मुझे खुशी हुई कि यहां ब्लॉगर्स की भी चर्चा हुई। बार बार टीवी पत्रकारों और चैनलों को गरियाने वाले हिंदी के बुदि़धजीवियों ने ब्लॉगर्स और एक टीवी पत्रकार रवीशकुमार के ब्लॉग की चर्चा करके उनकी टीवी पत्रकारों की तारीफ की। कहा, भले ही ये लोग टीवी पर कितना भी बुरा बुरा दिखाएं, लेकिन ब्लॉगिंग के जरिए अपनी बात तो खुल कर कह रहे हैं।
हालांकि समय पर आफिस पहुंचने की भागदौड में मैं आखिरी दो महत्वपूर्ण वक्ता भास्कर समूह की मैग्जीन आह जिंदगी के प्रबंध संपादक यशवंत व्यास और जयपुर दूरदर्शन केन्द्र के निदेशक नंद भारद्वाज को नहीं सुन पाया और न ही इस पत्रिका की प्रबंध संपादक अंजली सहाय को धन्यवाद दे पाया।
जब तक मैंने सुना तब तक डेली न्यूज के परिशिष्ठ प्रभारी रामकुमार सिंह ने अपने अनुभवों के जरिए बताया कि कितने तेजी से युग बदला दस साल पहले जहां अखबारों के दफ़तर में कम्प्यूटर के ठीक ऊपर बडा सा हिदायत का बोर्ड लगा होता था कि बिना अनुमति हाथ न लगाएं। आज साफ कहा जाता है कि अगर कम्प्यूटर चलाना न आए तो अखबार के ऑफिस में आने की भी न सोचें। इस पत्रिका के संपादक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि वे चाहते हैं कि उन्हें ऐसी ही साहित्यिक वेब पत्रिकाओं से अगर कॉम्पिटीशन करना पडे तो खुशी होगी। अंजली सहाय ने इस मिशन को आगे बढाने में आई परेशानियों का भी जिक्र किया।
चलते चलते
दो बातें जो मुझे पूरे कार्यक्रम के दौरान परेशान करती रहीं
पहला जिन अगर गलती से किसी ने वहां दिखाई गई स्लाइड से इंद्रधनुष का स्पैलिंग उतारा हो वे सभी ठीक कर लें, http://www.indradhanushindia.org ही खोलें। वहां इंद्रधनुष से एस गायब हो गया था।
दूसरा अगर आगे से कभी ऐसे किसी प्रोग्राम में जाएं तो प्लीज अपना मोबाइल साइलेंट मोड में रख लें, बेवजह कार्यक्रम में व्यवधान न डालें।
सभी नेटीजन्स को हार्दिक बधाई
इसी आशा के साथ की हमारा परिवार बडा हो रहा है
Saturday, October 6, 2007
भडास के बाद क्या ?
ब्लॉगर बुंधुओं
चिंता की बात है, ब्लॉगिंग पर अपना नाम जमा चुके आदरणीय यशवंतजी ने अचानक
http://Bhadas.blogspot.com को बंद कर दिया। मेरी यशवंतजी से बात हुई उन्होंने बताया कि वो भडास के कारण खुद को बहुत दिनों से व्यस्त महसूस कर रहे थे, इसलिए उन्हें यह फैसला करना पडा। अब भडास नहीं रहा, उम्मीद है हम सभी लोग इस महाअभियान को किसी ने किसी रूप में जिंदा रखेंगे।
सभी से सुझाव सादर आमंत्रित हैं, ज्यादा नहीं तो कम से कम एक चैनल जहां पत्रकारों की आवाजाही और पत्रकारिता से जुडी खबरें मिल सकें। ऐसा मंच बनाने में सहयोग करें।
वैसे यशवंतजी ने नया पर्सनल ब्लॉग बनाया है http://syashwant.blogspot.com आप सभी उस पर उनसे बातचीत कर सकते हैं।
इसी आशा के साथ
राजीव जैन
Friday, October 5, 2007
दिल दोस्ती ईटीसी
मेरे लिए कोठे और कॉलेज में अंतर करना मुश्किल था। सिर्फ इस लाइन की वजह से मैंने दिल दोस्ती ईटीसी देखने का प्लान बनाया। रिलीज के ठीक सात दिन बाद मैंने यह फिल्म देखी। हालांकि फिल्म शायद चल नहीं पाई, लेकिन फिल्म जिस कॉलेज लेवल वाले यूथ के लिए बनाई गई है। उसे पसंद आएगी इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।
फिल्म की कहानी दो युवकों के इर्द गिर्द है। पहला है् संजय तिवारी के रूप में श्रेयस तलपडे और दूसरा अपूर्व के रूप में इमाद शाह। दिल्ली यूनिवर्सिटी के एसआर कॉलेज और उसके बॉयज हॉस्टल के इर्द गिर्द बुनी गई इस कहानी में तीन नायिकाओं ने स्टोरी को आगे बढाया है। इन दोनों युवाओं का लक्ष्य अलग है, स्टाइल अलग है और दोनों ही ने अपनी प्रतिभा का अच्छा उपयोग किया है। बिहार की मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि वाला संजय तिवारी, जहां स्टूडेंट पॉलीटिक्स में जाना चाहता है। अपूर्व मेटोसेक्सुअल यूथ के रूप में रईस बाप की औलाद है, जो लडकियों के ईर्द गिर्द ही रहता है। हॉस्टल में रैगिंग से बचने के लिए दिन भर हॉस्टल में सोना और रात भर कोठे में एक वेश्या वैशाली यानी स्मृति मिश्रा के साथ गुजारना उसका काम है। इस बीच अपने दोस्त संजय तिवारी से एक साथ तीन लडकियों को उसके चुनाव जीतने वाले दिन तक एक लडकी को पटा लेने की शर्त कहानी को आगे बढती है।
इस बीच में दो और लडकियां आती है एक संजय तिवारी के साथ साउथ दिल्ली की रईस बाप की औलाद प्रेरणा जो मिस इंडिया बनना चाहती है। हकीकत में मिस इंडिया रह चुकी निकिता आनंद ने यह भूमिका अच्छी तरह निभाई। स्कूल गर्ल के रूप में अपूर्व का साथ देने वाली किन्तु यानी इशीता शर्मा ने भी चुलबुले अंदाज में बॉयज आलवेज बॉयज डायलॉग कई बार बोला।
दोनों ही हीरो फिल्म की अंतिम रील तक अपने अपने लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। लेकिन चुनाव जीतने पर संजय को पता चलता है कि उसकी प्रेमिका प्रेरणा अब उसकी नहीं रही। खबर सुनकर संजय तिवारी हॉस्टल से बाहर निकलता है और अंधेरे के बाद अपूर्व के मुंह से सुनाई देता है।
संजय को किसने मारा मैंने बस ने या खुद उसने और फिल्म एक दुखांत पर खत्म हो जाती है। अपूर्व के रूप में इशाद शाह ने जबरदस्त एक्टिंग की है, उनमें पिता नसरुद़दीन शाह की तरह दम है (वैसे यह बात फिल्म देखकर निकलने तक मुझे नहीं पता थी कि
वह नसरुददीन शाह का बेटा है।) पांच सात साल पहले तक कॉलेज पास कर चुके सभी लोगों को फिल्म पसंद आएगी। एक-आध गालियां आपकी झेलनी पड सकती है। बीयर पीते स्टूडेंट़स, बॉयज हॉस्टल में लडकियां व घर पर टयूशन की आड में प्रेम संबंध झेलने की क्षमता हो तो आप बेझिझक फिल्म देखने जा सकते हैं।
गाने तीन हैं, बस में फिल्माया गया एक गाना तो रंग दे बसंती की खलबली खलबली की याद दिलाता है। प्रकाश झा के लिए फिल्म का डायरेक्शन मनीष तिवारी ने किया है। संपादन अच्छा है, फिल्म बोर नहीं करती।
(यह लेखक की पहली फिल्म समीक्षा है अपने विचारों से अवगत कराएं)
ये भडास कहां गया
बंधुओ
ये भडास में क्या हुआ
मुझे दिखाई क्यूं नहीं दे रहा। कोई तकनीकी समस्या आ गई है क्या
किसी को कुछ पता हो तो सूचित करना
ये भडास में क्या हुआ
मुझे दिखाई क्यूं नहीं दे रहा। कोई तकनीकी समस्या आ गई है क्या
किसी को कुछ पता हो तो सूचित करना
Monday, October 1, 2007
रिलायंस फ्रेश का विरोध क्यूं
बहुत दिनों से रिलायंस फ्रेश का विरोध किया जा है। अब मैंने इस मुद़दे पर लिखने का मानस बनाया उत्तरप्रदेश में कंपनी कि इस घोषणा के बाद कि वह उत्तर प्रदेश में अपने सभी स्टोर बंद कर रही है। कंपनी की मानें तो इससे कंपनी के करोडों रुपए के नुकसान के साथ-साथ प्रदेश के 900 लोग भी बेरोजगार हो जाएंगे। अब पडताल कीजिए कि रिलायंस के इतने कडे फैसले की वजह क्या हो सकती है। शायद इस फैसले से शेयर बाजार में धूम माचने वाली कंपनी यह दिखाना चाहती है कि जिसे विकास चाहिए करें, वह विवाद में नहीं पडना चाहती। अगर आपको रिलायंस नहीं चाहिए तो कोई बात नहीं, न वो आपके प्रदेश में निवेश करेंगे न ही आपके यहां लोगों को रोजगार मिलेगा।
मैं खुद अब तक इस नतीजे पर नहीं पहुंचा हूं कि क्या रिलायंस फ्रेश के तेजी से बढते कदमों से क्या किसी को नुकसान हो सकता है, सीधे बोलें तो क्या उपभोक्ता को कोई नुकसान है इससे। मैंने पिछले दिनों जयपुर में ही बहुत सारे लोगों से बात की उनमें ढेर सारे वो लोग भी शामिल हैं, जो पहले लालकोठी ( जयपुर की सबसे बडी सब्जी मंडी) से सब्जी खरीदते थे और आजकल रिलायंस फ्रेश की शरण में हैं। अब ज्यादातर लोग इससे खुश हैं, पार्किंग के लिए परेशान नहीं होना होता। एसी मार्केट से सब्जी खरीदते हैं और दाम भी बाजार के बराबर या कम हैं। कम से क्वालिटी तो बेशक अच्छी है। मुझे अभी तक एक-आध लोग ही मिले जो इसकी बुराई करते नजर आए। अब विरोधियों का तर्क सुनिए कहते हैं कि अभी तक तो ठीक है कि ये सस्ती रेट पर सब्जी दे रहे हैं। उनका कहना है कि जब ये मार्केट में जम जाएंगे यानी कि जब चारों तरफ रिलायंस फ्रेश ही होगा और ये छुटभैया टाइप के दुकानदार और सब्जी वाले भाग चुके होंगे तो वो पुरा मुनाफा वसूलेंगे। हो सकता है उनकी बात में दम हो, इस बात के पांच दस फीसदी चांस हैं। लेकिन मेरी समझ में एक बात नहीं आई कि लोग ये क्यूं नहीं समझ रहे कि क्या अकेले रिलायंस बाजार को खा जाएगी। हां वो इस कारोबार में उतरी है तो बेशक वो मुनाफा तो कमाएगी ही, लेकिन बाजार के और महारथी क्या उसे एक तरफा कमाने देंगे। आप क्यू भूलते हैं बिग शॉपर, स्पेंसर और भारती एयरटेल और वॉलमार्ट को। क्या ये मैदान में नहीं हैं। पंजाब में तो किसान सहकारी संस्था बनाकर सीधे मैदान में हैं।
इसलिए मुझे नहीं लगता कि रिलायंस फ्रेश से डरने की जरूरत है, एक आध दुकानदार सब्जी वाले को बेशक नुकसान पहुंच सकता है, लेकिन आजतक ऐसा नहीं हुआ कि एक से ज्यादा प्रतिस्पर्धी होने पर ग्राहक को कभी किसी कीमत पर नुकसान हुआ हो।
मैं चाहता हूं कि समर्थक भले प्रतिक्रिया देने में आलसीपन दिखा दें, क्यूंकि मैंने खुद ही इसे एक तरफा कर दिया है पर कम से कम विरोधी तो अपना पक्ष दें, ताकी मैं भी अपना मत बदलने को विवश हो जाऊं।
तो हो जाइये इस बहस में शामिल !
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