Tuesday, September 18, 2007
मैं क्रिकेट नहीं देखता
बस कहीं आप पहली लाइन से यह न समझें कि श्रीमान राजेंद्र यादव की मैं हंस नहीं पढता से यह हैडिंग चुराया गया है, माफ करें यह बात तो मैंने सपनों में भी नहीं सोची। वैसे मेरे साथी जानते हैं कि मैं कितना बडा चोर हूं।
पहले अमर उजाला की वेबसाइट में था तो इधर- उधर ताकझांक और जुगाड करने की आदत लग गई। उसके बाद मेरे इस हुनर का दुरुपयोग आज भी मेरे कई साथी करा ही लेते हैं।
क्षमा करें सीधे मुददे की बात आज जब महेंद्र सिंह घोनी को भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनने की खबर सुनी तो सोचा जिंदगी में पहली बार क्रिकेट पर ही कुछ लिखा जाए। वैसे सुबह उठते ही मुझे यकीन हो गया कि कप्तान तो धोनी ही बनेगा, क्यूंकि एनडीटीवी पर मुझे बहुत भरोसा है और सुबह मैंने एनडीटीवी डॉट कॉम पर खबर पढी कि धोनी के कप्तान बनने के आसार तो बस यकीं हो गया। क्यूंकि मेरे पत्रकारिता के छोटे से कार्यकाल का अनुभव है कि बीबीसी के बाद एनडीटीवी ही है, जो कच्ची खबर नहीं चलाता।
तो मैंने सोचा आज के युग में जनता को यह जानने का अधिकार है कि ऐसा आदमी भी है, जो क्रिकेट नहीं देखता। बात 2002 की है जब अमर उजाला डॉट कॉम में बतौर नाइट शिफ़ट के सबसे जूनियर खिलाडी मुझे बिजनेस के साथ खेल पेज की जिम्मेदारी दे दी गई। बस तब थोडे दिन को छोडकर मैंने कभी खेल की खबरों में खास दिलचस्पी नहीं ली।
मैं हमेशा से पॉलिटिकल खबरों को पसंद करने वाला हूं, और बीजेपी मेरी कमजोरी रही है। पर आजकल क्राइम की खबर एडिट करने में भी बेझिझक टांग फंसा देता हूं।
खैर मरने दीजिए ये सब, तो मेरी जिंदगी का छोटा सा अनुभव यह कहता है कि अगर आगे बढना है तो बस क्रिकेट से दूरी बना लीजिए। मैं आज जहां भी हूं बस इसी की वजह से, आपको क्लियर कर दूं। बचपन में मेरे सारे दोस्त क्रिकेट में दिमाग लगाते सिवाए मेरे । (कोई यह बात पढ रहा हो उस जमाने का साथी, तो माफ करना यह राज उस वक्त नहीं बताया जा सकता था) और आपको ये तो पता ही है कि कमबख्त कोई न कोई सीरिज तो होती ही फरवरी मार्च में ही है। जब भारत में बच्चों की पढाई के लिए सबसे मुफीद टाइम होता है।
मैं बचपन में कई बार तो यह सोचता था कि कहीं यह अमेरिका टाइप के किसी देश की साजिश तो नहीं कि भारत के बच्चों को मैच में उलझाये रखो और ये पढ लिख न पाएं ( शायद यह बात मेरे सातवी कक्षा में पढने के दौरान की है) । हालांकि मेरी यह गलतफहमी थोडे दिनों में ही दूर हो गई, जब मुझे पता चला कि अमेरिका तो खुद ही क्रिकेट जैसा टाइम बिगाडू खेल नहीं खेलता।
हां तो अब आप कहेंगे कि काम की बात तो कोई की नहीं अभी तक। तो सुनिए अब अगर टवंटी टवंटी को छोड दिया जाए तो क्या आपको नहीं लगता कि क्रिकेट में जबरदस्ती ही जरूरत से ज्यादा टाइम खराब हो जाता है। पूरा देश काम धाम चौपट करके लगा रहता है मैच देखने में। मैच में अगर जीते तो खिलाडियों की तारीफ शुरू और हार गए तो पहली त्वरित टिप्पणी साला मूड खराब कर दिया:::: खेलना ही नहीं आता, फलां को वन डाउन भेज दिया, आखिरी ओवर उसको दे दिया जबकि लास्ट ओवर्स में पिछले ही मैच में पिटा था।
और गलती से जीत गए तो दस बीस रुपए के पटाखे फोडेंगे। थोडे कंजूस हैं तो अखबार में मजे ले लेकर दो बार मैच की खबर पढेंगे या टीवी पर हाइलाइट देखेंगे या उनके रिकार्ड की तस्दीक करेंगे, किसके आसपास का रिकार्ड अब टूटने वाला है यह जानने का जुगाड करेंगे।
अब आप मुझे बताइये पैसा मिला सचिन, सौरव, धोनी:::::::::::: और लाडले इरफान को और आपका क्या, सिवाए टाइम खोटी होने के।
हां, तो मैं कह रहा था कि सारे दोस्त क्रिकेट देखते और मैं बस उनकी बातचीत झेलने के लिए सिर्फ स्कोर बोर्ड। गर्मियों की छुटटी में ज्यादा हुआ तो हाइलाइट। इससे ज्यादा तो मैं झेल ही नहीं सकता।
बस एक बार मैच कैसा होता है इसलिए 31 अकटूबर 2005 को इंटरनेशनल मैच देखा लाइव वो भी बिना पैसे खर्च किए एसएमएस स्टेडियम जयपुर में। और गलती से वो भी इतना यादगार बन गया कि धोनी स्टार हो गया। (धोनी को तीसरे वनडे में तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने भेजा गया। उस समय भारत श्रीलंका के 300 रनों के लक्ष्य का पीछा कर रहा था। तेंडुलकर का विकेट गिर चुका था, इसके बाद जो हुआ वह अपने आप में एक इतिहास है। धोनी ने वन डे इतिहास की सबसे बेहतरीन पारियों में से एक खेलते हुए 145 गेंदों पर 183 रनों की शानदार पारी खेली। बाद में इसे विस्डन ने उस साल की सबसे बेहतरीन पारियों में से एक बताया।) स्टेडियम धोनी भाई का धूम धडाका, धोनी धो डाला से गूंज गया और मैंने खूब टाइम पास किया। अब लगे हाथ इसकी कहानी भी सुन लीजिए कि मैं कैसे पहुंच गया मैच देखने। लालकोठी में ही रहता था रात को आफिस से आकर सो गया, पर सोते सोते याद आया कि सारा शहर कह रहा है मैच के टिकट नहीं मिल रहे, कोई फ्री का पास जुगाड दे। कई लोग पत्रकार होने के नाते मुझसे भी मांग चुके थे, पर मैंने बला टालने के लिए वही अपना पुराना डायलॉग मार दिया, बॉस मैं यहीं थोडा पढा लिखा दिखता हूं आफिस में अपनी बिलकुल नहीं चलती। पर रात को सोते सोते मैंने सोचा यार पता नहीं अगली बार जयपुर में कब मैच हों, अपन भी लगे हाथ गंगा स्नान कर लें।
बस रात को सोते सोते दो चार को फोन किया। पता चला कि टिकट नहीं मिलेंगे। मैं यह खबर सुनकर सो गया, पर सुबह उनमें से ही किसी का फोन आया कि यार वीवीआईपी तो नहीं मिल पाएंगे, अगर जाना है तो पांच हजार वाला एक टिकट है, सुबह ले लेना।
बस मैं सुबह साढे आठ जगा और पहुंच गया मैच देखने, पूरा दिन
खराब किया और पर बस यह खुशनसीबी थी बस धोनी स्टार क्रिकेटर बन गया और शानदार बालों का मालिक लाइमलाइट में आ गया और मैं शाम को आफिस भी पहुंच गया, जरा देर हुई पर मैनेज हो गया।
अब मैं सोचता हूं कि जिंदगी में कोई अनुभव बेकार नहीं जाता, अगर उस दिन में मैच देखने नहीं गया होता तो क्रिकेट पर इतनी बकवास मैं किस मुंह से करता !
शुक्रिया दोस्तों
क्या किताब की चोरी चोरी नहीं है
दोस्तो
जयपुर में इन दिनों राजस्थान पत्रिका का राष्टीय पुस्तक मेला चल रहा है। रविवार को मैं भी गया देखने। वैसे तो मुझे पढने लिखने की खास ‘बुरी’ आदत नहीं है, लेकिन हमारे संस्थान में माननीय प्रंबंध निदेशक और पत्रिका के संपादक श्री गुलाब कोठारी ने विशेषतौर पर हिदायत है कि ‘आप पढने लिखने वालों के पेशे में हैं, लोग आप पर भरोसा करते हैं, आपकी हर लाइन को जनता सोकर उठते ही पत्थर की लकीर की तरह सच मानती है, इसलिए आपको पढने की आदत होनी चाहिए।’ इसलिए कोशिश में लगा हूं, कि कुछ पढ लिख लूं, पर अभी खरीदने की आदत ही लगा पाया हूं, कोशिश करुंगा कि जो लाया हूं वो पढ लूं।
हां तो रेफरेंस छोडकर आगे सुनें तो जैसे ही मैंने किताबें देखनी शुरू की मुझे याद आया कि उनमें से कई किताबें मैंने पिछले साल खरीदी थीं, लेकिन अब न तो अभी तक पढीं न ही वे घर पर मौजूद हैं। दिमाग पर जोर डाला तो कुछ किताबों के नाम भी और याद गए, और कुछ लोगों के भी जो किताबें लेकर गए थे। मेरे साथ बुक फेयर में गए मेरे मित्र से मैंने कुछ किताबें लोगों के ले जाने की बात कही, तो पास खडे सज्जन भी बोल गए भई किताब की चोरी चोरी नहीं। एक बार जो किताब ले गया वो लौटता नहीं।
बस मुझे लगा कि उन्होंने वही कह डाला, जो मैं कहना चाहता था। वैसे मैं किताबे हर किसी को तो देता नहीं पर खास मित्र भी इस मामले में लापरवाह हैं। या तो लेकर भूल जाते हैं या फिर वो भी किसी और को दे देते हैं। इसलिए मेरी नेक सलाह मानिए इसे पढकर आज ही याद कीजिए कब कौनसी किताब खरीदी थी, आज वो कहां है।
वैसे मैंने अपनी आदत में एक सुधार कर लिया है कि पहले किताब बिल उसी किताब में रख देता था, अब मैंने एक फोल्डर में डालने शुरू कर दिए हैं, ताकी कभी बिल भी दिख जाए तो याद तो आ जाए कि फलां किताब मेरे पास थी। और दूसरा आजकल मैं मना कर देता हूं कि बॉस मैं पढने के लिए किताब किसी को भी नहीं देता,एक बार बुरा लगता है लेकिन आपको कुछ तो करना ही पडेगा न। वैसे भी आदमी पैसा खर्च करता है तभी किसी चीज की कद्र करता है। फ्री की चीज को आदमी सीरियसली नहीं लेता चाहे किताब हो या मेरी सलाह !
Wednesday, September 12, 2007
बेहद निजी मामले में मेरी राय
यूं तो शादी बेहद निजी मसला है। स्वतंत्र देश में हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपनी पसंद से कानूनसम्मत उम्र में किसी से भी शादी करे पर कुछ मामले ऐसे होते हैं कि आपकी शादी पर आपके पूरे संसार (यानी जिसके इर्दगिर्द आपकी जिंदगी होती है ) की नजर अचानक आप पर आकर टिक जाती है।
पिछले कुछ दिनों में कई ऐसे मामले मेरे कुछ परिचितों के साथ हुए कि शादी जैसे निजी मसले पर भी मुझ जैसे कच्ची उम्र के युवक को कुछ लिखना जरूरी हो गया।
कहते हैं शादी ईश्वर तय करता है आदमी को तो बस उसकी रस्में भर निभानी होती हैं। ऐसे में अगर ईश्वर में आपकी आस्था है तो जो हुआ उसे ईश्वर की मर्जी मानना चाहिए। तो अब इसी तरह की एक शादी जिस पर मैं आपका ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं कि लव मैरिज को देखने का समाज का नजरिया अलग कैसे हो जाता है। क्या यह ऐसा कुछ नहीं है कि हम अपनी सुविधा के अनुसार नए प्रतिमान गढ लेते हैं और पुरानी मान्यताओं को झुठलाने में पीछे नहीं रहते।
क्या लव मैरिज का विरोध करना ईश्वर की इच्छा का विरोध करना नहीं है या हुई हुवाई शादी के बीच टपकना भर और एक प्रेमी युगल के जीवन को परेशानियों के झंझावात में डालना नहीं है, जिनकी शादी पहले ही हो चुकी है। अपनी इज्जत का मामला बताकर उसमें टांग फंसाना क्या फालतू की कवायद नहीं है।
शादी करने का तरीका भले ही अलग हो सकता है, लेकिन लव मैरिज करने में मेरी नजर में कोई बुराई नहीं है। वैसे मैं इस मामले में पूर्वाग्रहग्रस्त हूं। हां, मेरा मानना है कि आपने पूरी गहराई, गंभीरता से प्यार को लिया हो और दूसरी ओर भी प्रेम की अगन ठीक उतनी ही लौ में दहक रही हो।
मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूं, जहां एक ही समाज या अलग अलग समाजों के युवक युवतियों की लव मैरिज के बाद भी कहीं किसी तरह की दिक्कत नहीं है और वे सुख चैन की जिंदगी जी रहे हैं।
मेरे एक दोस्त के परिवार का उदाहरण ही लीजिए उनके परिवार में तीन भाइयों में से दो ने कलव मैरिज की और उनके पिता यानी मेरे अंकल का मत है कि शादी सिर्फ बडे बुजुर्गों का मन और मान रखने के लिए ही नहीं होनी चाहिए, बच्चों की खुशी को ध्यान में रखना ज्यादा जरूरी है क्योंकि जिंदगी भर उन्हें एक दूसरे का साथ निभाना है। इसलिए उनकी खुशी के लिए अगर थोडा बहुत एडजेस्टमेंट भी करना पडे तो करना चाहिए। आखिरकार सामाजिक मान्यताओं के जनक भी तो हमी हैं और युगधर्म के अनुसार इसमें परिवर्तन की गुंजाइश होनी ही चाहिए। इसका सुफल मुझे तब देखने को मिलता है जब आप उस खुश जोडे को सुबह उठकर देखते हैं तो दिल को सुकून मिलता है।
खैर, मामला एक ही जाति और समाज का हो तो समाज के कुछ तथाकथित ठेकेदारों और परिवार को कोई दिक्कत नहीं होती, थोडी बहुत मान मनोव्वल के बाद मामला शांत हो जाता है और कुछ दिनों बाद या घर में नए मेहमान के आने के बाद धीरे धीरे दोनों परिवारों में आना जाना भी शुरू हो जाता है। लेकिन यह पूरा मामला पेचीदा या यूं कहें यह सारा गणित उस समय गडबडा जाता है, जब मामला दो समाज या दो अलग अलग धर्मों का हो। कई बार मामला बीच बचाव से ही सम्पट में आ जाता है, लेकिन कई बार खून खराबे तक की नौबत आ जाती है। ऐसा ही एक वाकया अभी कुछ दिन पहले मेरी जानकारी में आया।
प्रेम विवाह के विरोध में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि ये बच्चों के अपने स्तर पर तय करने और बडे बुजुर्गों का मार्गदर्शन नहीं होने से अक्सर असफल हो जाते हैं। लेकिन असल कारण क्या हैं, इसकी पडताल हमें ही करनी होगी। यदि किसी को कोई आइडिया हो तो मुझे बताएं।
अब एक उदाहरण लीजिए
डीआईजी की लडकी और एक सामान्य परिवार के लडके के सात साल तक चले प्रेम संबंधों की परिणति शादी के रूप में हुई। लेकिन शादी के महज तीन साल में ही मामला फैमिली कोर्ट में है और तलाक के लिए अर्जी दे रखी है। शुक्र है कि बच्चे नहीं थे। इसमें एक बात और उल्लेखनीय है कि मामला इस मोड पर है उसके बावजूद लडके ने हिम्मत नहीं हारी और लडकी से मिलने की कोशिश की, लेकिन वह लडकी के परिवार के बेहद कडे पहरे को भेद कर वहां तक पहुंचने में कामयाब नहीं हो सका। कोर्ट ने लडकी को पेश करने के आदेश दे दिए हैं, लेकिन डीआईजी साहब ने अभी तक लडकी को कोर्ट में पेश नहीं किया। अब नतीजा जिसके भी पक्ष में रहे, लेकिन यह तय है कि प्यार की जीत बमुश्किल ही हो सकेगी। लोगों को असफल लव मैरिज का एक और उदाहरण मिल जाएगा।
Saturday, September 8, 2007
क्या खुद के लिए सोचा भी होगा
अजब है उनकी जिंदगी, पता नहीं कैसे जीती हैं
हर वक्त सिर्फ दूसरों के लिए ही जीती हैं वो
खुद के लिए जीना तो शायद जानती ही नहीं
आडे आते है मां-बाप या पति और प्रेमी के ख्वाव
कल उससे बात हुई तो हैरान हो गया मैं
उसके नूर के पीछे की स्याह जिंदगी में झांका ही नहीं पहले कभी
क्या उनके अरमान पूरे करेगा कोई सोचता हूं मैं
शायद कर भी दे कोई, पर कभी खुद के लिए सोचा भी होगा
हर वक्त सिर्फ दूसरों के लिए ही जीती हैं वो
खुद के लिए जीना तो शायद जानती ही नहीं
आडे आते है मां-बाप या पति और प्रेमी के ख्वाव
कल उससे बात हुई तो हैरान हो गया मैं
उसके नूर के पीछे की स्याह जिंदगी में झांका ही नहीं पहले कभी
क्या उनके अरमान पूरे करेगा कोई सोचता हूं मैं
शायद कर भी दे कोई, पर कभी खुद के लिए सोचा भी होगा
- (लेखक न तो नारीवादी हैं, न ही कवि
बस यू ही किसी पुरानी दोस्त से बातचीत हुई तो
अचानक कलम चल गई,
जो बन पडा पेश है,
कोई सुझाव हो तो मार्गदर्शन करें )
Monday, September 3, 2007
असली हकदार तो हिंदी ही है
सीएम रिलीफ फंड से सात लाख का विशेष अनुदान जारी कर हिंदी के सात विद्वानों को विश्व हिंदी सम्मलेन में न्यूयॉर्क भेजने के मामले को हमारे साथियों ने गंभीरता से उठाया। अरे भई हिंदी दिवस आ रहा है, हिंदी की रोटी खाने वालों को कम से कम इस माह में तो हिंदी के विद्वानों को तत्काल प्रभाव से सीएम के इस विशेषाधिकार कोटे पर विदेश भेजने की तो मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी चाहिए थी।
वैसे भी अभी 14 तारीख को (हिंदी दिवस पर) जगह-जगह समारोह होंगे, हिंदी को आगे बढाने की बात उठेगी, उसके लिए विशेष अनुदान की माग होगी।
प्यारे भाइयों कभी तो पॉजिटिव सोचा करो। इस महान कर्म को भ्रष्टाचार कहने की जगह कुछ इस तरह क्यूं नहीं समझ लेते कि हिंदी को अंतरराष्टीय स्तर पर सम्मान दिलाने के लिए अंग्रेजी पढी लिखी हमारी सीएम कितनी तनम्यता से जुटी हैं। सीएम रिलीफ फंड, जिससे अभी तक विपदाग्रस्त और मरे गिरे लोगों के परिवार को या किसी इसी तरह के प्रायोजन पर खर्च किया जाता था।
हिंदी प्रेमी सीएम ने तो इसका दायराभर बढाया है। यूं तो इस फंड की असली हकदार तो हिंदी ही थी, जिसे अपना हक स्वतंत्रता के करीब साठ साल बाद मिला है। अगर इस तरह के अनुदान तब से मिले होते तो कम से कम से हमारी हिंदी न सही, हमारे हिंदी विद्वान तो न्यूयॉर्क, मॉरिशस, पोर्ट लुई, त्रिनिदाद और लंदन तो घूम ही चुके होते !
(हिंदी के उन सात विद्वानों का नाम बेवजह उछालने पर क्षमा सहित। लेखक का यह पहला सीरियस र्व्यंग्य है, इसे मजाक में न ले )
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