Saturday, November 21, 2009

वाह रे आपदा प्रबंधन

अपना देश सचमुच भगवान भरोसे है और अपनका शहर तो सौ फीसदी भगवानजी की शरण में। अब ये भगवानजी कौनसे वाले हैं अपन को आइडिया नहीं है पर यहां कोई लॉ एंड ऑर्डर है न कोई आपदा प्रबंधन का सिस्टम, जिसकी जो मर्जी करे। जो होना है वह अपने आप ही होगा। और मामले ऐसे की देश में पहली बार होकर मिसाल कायम कर रहे हैं।
सीतापुरा के पास आईओसी डिपो में आग लगी, जब 14 दिन बाद तेल खत्म हुआ तब ही बुझी, मजाल है कि कोई सिस्टम यह बताने भी आया हो कि कब बुझेगी। देशभर के मीडिया को जब तक लौ तीस फुट तक उमड रही थी, तब तक इंटरेस्ट था उसके बाद किसी ने पूछा भी नहीं। अब सुन रहे हैं कि सरकार जागी है देश भर में आबादी के बीच वाले डिपो शिफ़ट होंगे। पर शायद इतनी बडी आग से पहले किसी ने यह भी न सोचा कि अगर आग फैल गई तो बुझेगी कैसे।
उसके बाद जयपुर के पास ही मंडोर एक्सप्रेस पलट गई, टेन की बोगी को चीरते हुए अंदर घुस गई। शुक्र था कि एसी डिब्बे चपेट में आए इसलिए मरने वालों की तादात दहाई का आंकडा न छू पाई वर्ना मरने वाले कितने होते पता नहीं, जनरल बोगियों की हालत जो होती है वह किसी से छिपी नहीं है। अब जांच करने वाले बता रहे हैं कि पटरी में क्रेक था इसलिए तेज गति से आ रही टेन के दवाब से पटरी टूट गई और हादसा हो गया। लोग कह रहे हैं कि इतने हादसों में यह पहली बार हुआ है कि पटरी बोगी को चीरते हुए अंदर चली गई हो।
अब बे-आपदा प्रबंधन का एक और उदाहरण देखिए।
9 नवंबर यानी आज से 12 दिन पहले जयपुर के पास ही शाहपुरा के जगतपुरा गांव में चार साल का साहिल 200 मीटर गहरे खुले बोरवेल में गिर गया। तीन दिन तक पूरा मीडिया जमा रहा। प्रशासन भी प्रेसनोट जारी करता रहा। पर आज 13वें दिन तक बच्चा जिंदा निकलना तो दूर उसका शव तक निकाला नहीं जा सका। अब तो शव लिखना ही उचित ही है कि अगर भगवान खुद भी आ जाएं तो उसे जिंदा न निकाल सकेंगे।
जयपुर में 23 को निकाय चुनाव है इसलिए प्रशासन चुनाव में बिजी हो गया और मीडिया उसकी कवरेज में। और दो दिन तक टीवी देख रहे लोग वापस सास बहू के सीरियल्स में। यानी सब भूल गए कि साहिल के घर में 12 दिन से खाना नहीं बना और गांव में आज भी मायूसी है।

अब सुनिए बच्चे को निकालने के लिए चलाया गया अभियान
पहले लोगों और प्रशासन ने मैनुअली फावडे से मिटटी निकाली। जब उससे मन भर गया और पार न पडी तो हल्ला मचा। फिर प्रशासन ने काम अपने हाथ में संभाला, बोरवेल में बच्चे को देखने के लिए पहले तो कैमरा ही न मिला। बाद में बडी मशक्कत के बाद सीसीटीवी लगाया गया तो डॉक्टरों को बच्चे की हलचल नहीं दिखी। उसके दो दिन बाद तक बोरवेल के समानांतर रूप में सिर्फ 90 फुट तक ही खोदा जा सका। इसमें भी कहते हैं कि 70 फुट के बाद मिटटी नहीं खुद पा रही थी इसलिए पाइप मंगवाए गए। प्रशासन ने बीसलपुर वाले पाइप का जुगाड किया वो भी सिर्फ 20 फुट क्यूंकि इससे ज्यादा मिला ही नहीं। सीकर से मिल सकता था, जहां से लाया नहीं जा सका। इसके बाद इंद्रदेव नाराज हो गए और काम रुक गया। फिर काम शुरू हुआ तो लोग उम्मीद छोड चुके थे काम धीमा हो गया और अब तक कुल मिलाकर 105 फुट ही खुदाई हो सकी है।
ये है अपन का आपदा से निपटने का सिस्टम एक बच्चे को बोरवेल में से नहीं निकाला जा सका, न जिंदा न मुर्दा।
दुखी मन से ::::::

Monday, November 9, 2009

सब कुछ होगा, बस न बचेगा तो कोई भारतीय

हिंदी बडी है या राज ठाकरे
महाराष्‍ट में राज ठाकरे लोकप्रियता बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अभी चुनाव हुए चार दिन हुए कि उन्‍होंने मराठी को लेकर फिर राजनीति शुरू कर दी। उनकी पार्टी एमएनएस के विधायकों ने सदन में ही दादागिरी शुरू कर दी। वहां से समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी को शपथ लेने से रोका, माइक हटाकर थप्‍पड जड दिया।
उनका कसूर यही था कि उन्‍होंने राष्‍टभाषा हिंदी में शपथ लेने की कोशिश की। एमएनएस का तर्क था कि वे महाराष्‍ट के विधायक हैं और वहां उन्‍हें मराठी में शपथ लेनी चाहिए। सपा की ओर से तर्क दिया गया कि आजमी को मराठी नहीं आती, लेकिन एमएनएस नेता राम कदम ने कहा कि दस दिन पहले ही सभी को मराठी में शपथ लेने को कह दिया गया था, उन्‍हें इतने दिन में मराठी सीख लेनी चाहिए थी।

खैर जो कुछ भी हो
पर यह बात समझ से परे हैं कि देश के किसी भी राज्‍य में कुछ गुंडे हिंदी बोलने पर ही पाबंदी लगा दें, वो भी विधानसभा के भीतर। अपने राज्‍य की भाषा को सम्‍मान दिलाने के पचासों तरीके हैं पर किसी को बाध्‍य नहीं किया जा सकता। एमएनएस ने जो किया इससे ज्‍यादा बडा देशद्रोह शायद सदन में तो शायद संभव नहीं है।

अगर इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लिया गया तो जो लालू यादव कह रहे हैं उस बात से इत्‍तेफाक रखना ही होगा कि देश को टूटने से कोई नहीं रोक सकता। हालत यह हो जाएगी कि उत्‍तर का आदमी दक्षिणवाले से चिढेगा, पूर्व वाला पश्विम वाले से चिढेगा। देश में कोई भारतीय नहीं होगा।
कोई राजस्‍थानी होगा, कोई मराठी, कोई गुजराती। कोई हिंदू होगा तो कोई मुसलमान।
सब कुछ होगा बस न बचेगा तो कोई भारतीय
इसलिए पहले भारत को बचाओ, जब भारत बचेगा तब मुंबई होगी, राज होंगे और फिर उनकी एमएनएस

Tuesday, October 6, 2009

एक स्वाभिमानी की कहानी

ऑफिस के लिए निकला ही था कि किसी ने हाथ देकर लिट मांग ली। मेरे बैठाते ही भाई ने अपनी कहानी सुनाना शुरू कर दिया। कहने लगा कोटा से आ रहा हूं दौसा जाना है, जहां तक जाओ छोड़ देना। मैंने कहा, कोटा से पैदल। बोला कि मजदूरी को लेकर ठेकेदार से लड़ाई हो गई, इसलिए छोड़कर आ गया। मैंने कहा तो पैदल क्यूं आ गए। बोला कि साहब पैसे नहीं थे, इसलिए आ गया। मैंने कहा भाई ट्रेन तो सरकारी है, उसी में आ जाते। बोला बैठा था पर टीटी आ गया। पैसे मांगने लगा, मेरे पास थे नहीं तो लप्पड़ मार दिया। बस उतर कर पैदल ही चला आ रहा हूं। छठा दिन है चलते-चलते। मुझसे रहा न गया, पीछे मुड़कर उसकी शक्ल देखी तो कंधे पर एक पीले रंग की स्वापी थी और होंठ एकदम फटे हुए, सूखे। मैंने दस दस के दो नोट निकाले और बाइक गांधीनगर स्टेशन की तरफ मोड़ दी। मैंने कहा सामने गांधीनगर स्टेशन है। 13 रुपए के आसपास का टिकट होगा चले जाओ ट्रेन से। बोला भाई साहब दो-तीन दिन से ठीक से कुछ खाया भी नहीं है, पैदल जाऊंगा तो किसी गांव में खाना भी हो जाएगा। मैं रास्तेभर सोचता रहा कि यार आज की दुनिया में ऐसा भोला इंसान भी है क्या ?
इतने में मेरे ऑफिस की गली आ गई और मैंने उसे आगे का रास्ता बताकर विदा ली।
- जयपुर से कोटा की दूरी करीब 2५०किमी है।

Saturday, September 26, 2009

टाइमपास है व्‍हाट़स योर राशि


कल कई महीनों बाद फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो देखी व्‍हाटस योर राशि
फिल्‍म की कहानी कुछ यूं है कि एक गुजराती एनआरआई लडका एमबीए करने के बाद शादी करने भारत आता है।
भाई पर कर्ज है, घर की माली हालत खराब है ठीक सरकारों की तरह। शादी करने पर नाना की संपत्ति में से हीरो को करोडों की जमीन मिलनी है। और घरवालों को आस है कि एनआरआई बेटे को दहेज मिलेगा, इसलिए सभी को शादी की जल्‍दी है।
एक वेबसाइट पर लडके की शादी का एड दिया था। बदले में 1765 रेस्‍पांस मिले। लडका परिवारवालों की मदद करना चाहता है, पर दहेज नहीं लेना चाहता। शादी सिर्फ दस दिनों में करनी है और इतने दिन में इनती सारी लडकियों से मिलना संभव नहीं है।
इसलिए लडके की राय पर यह तय हुआ कि सिर्फ 12 राशियों के हिसाब से सिर्फ 12 ही लडकियां देखी जाएं। और इन्‍हीं 12 लडकियों के जरिए, समाज की कई सारी बुराइयों को दिखाया है और इन्‍हीं लडकियों के देखने के बहाने ही तीन घंटे से ज्‍यादा समय की इस तथाकथित कॉमेडी फिल्‍म का तानाबाना बुना गया है।
इन 12 ल‍डकियों को देखकर भी हीरो शायद कुछ तय नहीं कर पाया कि शादी किससे की जाए, तो एक रिश्‍तेदार ने उसकी बिना राय जाने सीधे फेरे के मंडप पर पहुंचा दिया।
12 लडकियों में सबकी अपनी अपनी कहानी है। अपने अपने गुण अवगुण है। पर पता नहीं आशुतोष गोवारीकर क्‍या चाहते हैं, उन्‍हें लगता है कि बिना पौने चार घंटे के कोई फिल्‍म पूरी हो ही नहीं सकती। फिल्‍म देखते समय बोर नहीं करती पर स्‍टोरी में ऐसा भी नहीं था, जिसे एडिट नहीं किया जा सकता था।
फिल्‍म में करीब 12 गाने हैं, जिनमें से एक दो को छोडकर फिल्‍म के बाहर आने तक आप भूल ही जाएंगे।
फिल्‍म की सबसे बडी बात यह कि प्रियंका चोपडा ने 12 किरदार निभाए हैं। संजना के किरदार में वो सबसे अच्‍छी लगी हैं और शायद वही उनपर सबसे ज्‍यादा सूट करता है, हां हैप्‍पी एंड में शादी भी उसी के साथ होती है।
उन 12 लडकियों के डिटेल पर चर्चा फिर कभी
अभी इतना ही, हां बस फिल्‍म टाइमपास है, आशुतोष गोवारीकर टाइप की नहीं है, जिसके लिए आप लंबे समय तक इंतजार करते थे।

ब्‍लॉग न लिखने पर मेरी सफाई

ब्‍लॉग पर लिखे आजकल कई दिन बीत जाते हैं। शादी के बाद से (1 जुलाई) ब्‍लॉग पर सक्रियता कम हो गई। इस बीच दिलीप नागपाल ने ब्‍लॉग बडी या बीवी लिखकर मुझे मजबूर कर दिया कि मैं कोई प्रतिक्रिया दूं।
कारण कई हैं।
पहला तो ये कि मकान चेंज करने के बाद से इनदिनों घर पर नेट कनेक्‍शन नहीं है। नया कौनसा लेना है, यह डिसाइड नहीं कर पाया। अगर आपके पास कोई सस्‍ते प्‍लान का आइडिया हो तो अवश्‍य दें।
दूसरा ये हो सकता है कि छुटटी से लौटकर पहले हर ऑफ वाले दिन घर की ओर कूच करना पडता था। अब पत्‍नी भी जयपुर आ गई है, रूम भी व्‍यवस्थित हो गया है। ये समझिए ब्‍लॉग पर वापसी के दिन फिर शुरू होने वाले हैं। बस इतने दिन इसलिए लग रहे हैं क्‍योंकि मुझे पता है कि अगर अखबार के बाद दिन के पांच घंटे वो मुझे लैपटॉप पर देखेगी, तो शायद तलाक ही हो जाए ! :))

इसलिए पहले उसे भी ब्लोगिंग सिखाने की कोशिश कर रहा हूं। दुआ कीजिए कि आपको एकसाथ दो दो ब्‍लॉगची दिखाई दें। ब्‍लॉग का समय आजकल बीवी के बाद टीवी के नसीब में है। पर आप चिंता न कीजिए लिख कुछ नहीं रहा, पर थोडा ही सही, पढ सभी को रहा हूं।

Sunday, August 30, 2009

आज मैंने किराए पर दो रुपए ज्यादा दिए

आज ही घर से लौटा हूं। घर(राजगढ़) से सीधे जयपुर की बस में बैठा, बांदीकुई पहुंचने तक बस खचाखच हो गई। बाद में मुझे पता चला कि बस दौसा में भी अंदर होकर जाएगी। इसलिए सिंकदरा से मैंने बस चेंज करने की सोची। सिंकदरा में यूपी रोडवेज की बस में सवार हो गया। राजस्थान रोडवेज का सिकंदरा से जयपुर तक का किराया 42 रुपए है। यूपी रोडवेज में बैठा इसलिए किराए का अंदाजा नहीं था। मैंने कंडेक्टर को भ्0 का नोट थमा दिया। कंडेक्टर ने ठीक है कहा और चला गया। मुझे लगा कि टिकट दे रहा होगा। और मैं एसएमएस करने में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर बाद जब मुझे एससास हुआ कि कंडेक्टर ने टिकट नहीं दिया है तो मैंने उसकी सीट तक जाकर पूछताछ शुरू की। कंडेक्टर साहब ने फरमाया कि किराया भ्2 रुपए है और आपने भ्0 रुपए दिए थे। यानी कंडेक्टर साहब पूरे पैसे ही गोल करना चाहते थे। मैंने पांच रुपए और दिए कि साहब टिकट तो दे दो। बेमन से घूर कर साहब ने मुझे टिकट दिया और फिर खुल्ले न होने का बहाना कर दो का सिक्का दे दिया, यानी साहब एक रुपए तो खा ही गए। उसके बाद मैं अगले स्टैंड से चढ़ी सवारियों से उसके लेनदेन पर गौर करता रहा। कुल मिलाकर मैंने पाया कि हर स्टैंड पर उसने एक बेटिकट सवारी तो बिठा ही रखी थी। मैंने मगजमारी से बचने के लिए मामले को तूल नहीं दिया पर सोचता रहा कि भाई लोगों को भले ही एक दो रुपए का फायदा कर रहा हो पर सरकार को कितने का चूना लगा रहा है। फिर मुझे अहसास हुआ कि यूपी रोडवेज की बसें राजस्थान की तुलना में इतनी खस्ताहाल कैसे हैं।
इसमें मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि मेरी राजस्थान रोडवेज वाली बस का कंडेक्टर इतना शरीफ था कि बांदीकुई और सिकंदरा में एक जगह उतरी सवारी का उतरने से पहले टिकट चैक किया और उसने पाया कि उन तीन सवारियों ने एक स्टॉप पहले का टिकट ले रखा था। भाई ने उनसे और पैसे लेकर ही दम लिया। यानी एक बेहद ईमानदार और दूसरा खूंखार बेइमान।

Thursday, July 30, 2009

राजस्थान में हर आदमी आरक्षित !

राजस्थान में अब हर आदमी आरक्षित वर्ग में आ गया है। एक साल से लटका पड़ा आरक्षण विधेयक राज्यपाल ने पास कर दिया। राज्य में अब राज्य में आरक्षण का दायरा 49 प्रतिशत से बढ़कर 68 प्रतिशत हो जाएगा। 14 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग, ईसीबी (राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य) को मिलेगा। तथा गुर्जर जिनकी मांग पर यह सब हुआ। उन्हें रैबारी, गाçड़या लुहार व बंजारा जाति के साथ विशेष रूप से पिछड़े वर्ग में रखा गया है। अभी तक प्रदेश में 49 प्रतिशत आरक्षण था, इसमें 16 प्रतिशत एससी, 12 प्रतिशत एसटी और 21 प्रतिशत ओबीसी थे। इसके लिए गुर्जर आंदोलनकारियों ने दो साल से अधिक समय तक संघर्ष किया। इस आंदोलन में हिंसक घटनाओं में 70 लोग मौत के आगोश में समा गए।

Tuesday, July 21, 2009

शादी के बाद ........

शादी से लौटकर आया, इनबॉक्स देखा तो कई शुभचिंतकों की शुभकामनाएं और प्रतिक्रियाएं मिली। कई ने ब्लॉग लिखने को कहा। पर अभी मूड नहीं बन पा रहा। शायद अभी खुमारी ही नहीं उतर रही।
शादी से लौटकर पांच मिनट पहले ही किसी दोस्त खत्म हुई चैट हूबहू पेस्ट कर रहा हूं। शादी के बाद क्या परिवर्तन हुआ, इसका आसानी से पता चल जाएगा।

Gaurav: hello
Sent at 1:28 AM on Wednesday
me: hi
Gaurav: kya chal raha hai
ghoom kar aaya kaha
me: haan aa gaya manali
Gaurav: kaisa raha
Sent at 1:30 AM on Wednesday
me: maje
tu bata kaya chal raha hai
Gaurav: kuch nahi yaar
same college lyf
bhabhi abhi rgh hi hai ?
Sent at 1:32 AM on Wednesday
me: haan yaar
badi mushkil se jaipur mein time gujar raha haun
uske bina
dil nahi lag raha
Gaurav: haa haa
sahi bol raha hai, kab laane ka hai
Sent at 1:34 AM on Wednesday
me: diwali tak
yaar
Gaurav: oh :(
very bad
me: jingi pahle se jayda ulaj gai hai
dil waha naukri yaha
Gaurav: hmm wo to hai
off bhi 1 din ka hi hai
me: haan yaar
Gaurav: shaadi ke baad kaisa lag raha hai..
Sent at 1:38 AM on Wednesday
me: jimedari ka ahasas
Gaurav: ab tu shaadi shuda logo se shikayat nahi rakhega :)
Sent at 1:39 AM on Wednesday
me: haan sahi hai
per mein aaj bhi logo ko pahle ki tarah SMS karkr pareshan kar raha hun
Gaurav: haa haa
shaadi kaisi rahi
sab bhabhiyaa ayi
Sent at 1:43 AM on Wednesday
me: haan
sumit ke orkut per photo hai dekh le
Gaurav: wo to dekh li
Sent at 1:46 AM on Wednesday

Wednesday, June 3, 2009

आखिर बेच डाली छह सौ किलो रद्दी


कई शौक भारी पड़ जाते है। ऐसा ही है मेरा और अखबार का रिश्ता। खाना मिले न मिले अखबार जरूर हो। मेरे इस प्रेम के चक्कर में मेरे बिस्तर के चारों और हमेशा अखबारों का ढेर होता है। 


मेरे सारे परिचित और दोस्त इससे वाकिफ है। हाल तक मैं जिस मकान में रहता था वहां करीब आठ बाई आठ का स्टोर रूम तो खचाखच भर गया। आते जाते परिवार वालों की टोकाटाकी के बावजूद मैंने अखबार नहीं बेचे। पर अब रूम चेंज करना था तो करीब सात çक्वंटल रद्दी एक जगह से दूसरी जगह शिट करना माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने से कहीं ज्यादा कठिन था। वो भी तब जब आप पहले से ही व्यस्तता के चरम पर हों। इसी चक्कर में इन दिनों कई दिन तक ब्लॉगिंग की दुनिया से दूर था। 

पर शिçटंग की मजबूरी और किराए के मकान में इतनी रद्दी मेनटेन रख पाना बड़ा मुश्किल है। 28 मई को मैंने रूम चेंज कर लिया और तीन मई तक मैं उस रद्दी को बेचने का मानस न बना सका। पर फाइनली डेडलाइन आ गई और पुराने मकान में नया किराएदार आ गया तो मुझे अपनी 610 किलो रद्दी बेचनी ही पड़ी। 
कितना कष्टकर थी यह अंतिम यात्रा!  

पर दिल पर पत्थर रखकर मैंने आखिर इसको अंजाम दे ही दिया। इससे मिले करीब साढे तीन हजार रुपए तंगी के महौल में मुझे जरा भी खुशी न दे पाए मैं आखिरी समय तक ऐसे आदमी को खोजता रहा जो इसे संभाल कर रख सके।

Friday, May 15, 2009

हर गलती सजा मांगती है

(राजनीति पर लिखने के लिए देश में बहुत सारे दिग्गज पत्रकार हैं। मैं हमेशा खुद को उनसे ज्यादा काबिल नहीं मानता, इसलिए मैं हमेशा राजनीति पर लिखने से खुद को रोकता हूं। सोचता हूं कि अपने ब्लॉग को निजी जिंदगी के आसपास ही रखूं। पर कल मतगणना है हमें अपने 545 महानुभाव मिलने वाले हैं, जो देश चलाएंगे!)
कहते हैं कि हर गलती सजा मांगती है। आज पप्पुओं की गलती हिसाब मांगेगी। मतगणना के बाद पता चलेगा कि कौन सरकार बनाएगा। फिर भी सब जानते हैं कि इस बार त्रिशंकु लोकसभा के आसार हैं। देश ने न कांग्रेस नेतृत्व को देश चलाने के लायक समझा है, न भाजपा को। इस चक्कर में तीसरा और चौथा मोर्चा टाइप के ऐसे रिजेक्टेड लोगों को देश का नेतृत्व करने का मौका मिल सकता है, जो सही मायने में इस लायक हैं ही नहीं। छोटे दलों की यूं बेकद्री को अन्यथा न लीजिए मेरा मतलब है कि वो सिर्फ स्थानीय चीजें सोचते हैं। समग्र देश और विदेश नीति के लिए उनकी कोई राय नहीं है। बस उनकी पार्टी, उनके नेता का भला हो जाए। बहुत ज्यादा सोचगा तो मेरा बिहार, मेरा बंगाल या हमारी तमिल और हम सबका तेलांगना की बात करेगा। भले ही देश गर्त में चला जाए। विकास पर दो किलो चावल का वायदा भारी पड़ जाता है तो कहीं फूटी आंख न सुहाने वाले लोग हाथ मिला लेते हैं। किसी को बहुमत नहीं मिलेगा तो औने पौने दामों में सांसद बिकेंगे। हर सांसद बड़ी पार्टी को ब्लैकमेल करेगा और अपना जुगाड़ फिट करने में रहेगा।
अब बात करें गलती की
असली गलती है हम मतदाताओं की। प्रधानमंत्री चुनना है, केंद्र में सरकार बनानी है पर आदमी चुनते हैं नगर निगम चुनाव की तरह। मेरी राय तो यही है कि आदमी उन्नीस हो तो भी चलेगा पर पार्टी या विचारधारा देखकर वोट करना चाहिए। यूं हर आदमी को भारत में वोट देने का अधिकार मिल गया है। शायद पच्चीस फीसदी भारत इस लायक था ही नहीं कि उसे वोट डालने का अधिकार मिले। यूं भी बिना कीमत चुकाए कोई चीज मिले तो उसकी वैल्यू नहीं होती। ज्यादा करता है आदमी तो एक शराब की बोतल में बिक जाता है। भारत में वोटिंग का अधिकार भी यूं ही है। इसलिए शायद 40 फीसदी भारत वोट डालने ही नहीं जाता।
हम निगम चुनाव की तरह के मुद्दों पर लोकसभा चुनाव में मतदान करते हैं। पाटिüयां भी यह बात समझ गईZ हैं, शायद इसीलिए उन्होंने भी पूरे चुनाव संपन्न हो गए पर एक भी ढंग का राष्ट्रीय मुद्दा नहीं उठाया। बस गाली-गलौज में ही लगे रहे।
हां, कुछ लोग समझदार बनने की कोशिश में इस बार नोट वोट के लिए चले गए पर ज्यादातर लोगों ने बस इसीलिए नो वोट किया कि उनके आगे सड़क नहीं बनी या पूरे गांव में पानी नहीं आता। मीडिया ने भी पूरा गांव करेगा मतदान का बहिष्कार टाइप की हैडिंग लगाकर मामले को खूब हाइप दिया।
अब हमने मतदान ही कुछ इस तरह किया है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति आ गई है। अब सरकार चाहे जिसकी बने पर दो ढाई साल से ज्यादा चलने लायक नहीं बनेगी। यानी फिर चुनाव, देश के पैसे का फिर सत्यानाश!

Wednesday, May 13, 2009

जयपुर में विस्‍फोट के एक बरस बाद

जयपुर में बम धमाके हुए आज ठीक एक साल हो गए। एक साल पहले हुए इन धमाकों में 69 बेगुनाह लोग मारे गए। 250 से ज्‍यादा लोग घायल हो गए। और कई लोग अपनों की याद में आज भी जिंदा लाश हैं। कहते हैं कि कुल 11 आतंकियों ने इस वारदात को अंजाम दिया इनमें से चार गिरफतार हो गए, पांच फरार है और दो दिल्‍ली के बटला हाउस में मुठभेड में मारे गए।
आज ठीक एक साल बाद मैं सोचता हूं, पता नहीं हमने और हमारी पुलिस ने क्‍या सबक लिया। उन परिवारों को छोड दें तो बाकी हम सब की जिंदगी यूं ही चल रही है। जैसी पहले थी बस एक गलतफहमी थी, जो अब दूर हो गई कि जयपुर में विस्‍फोट कैसे हो सकते हैं ( जयपुर में विस्‍फोट की खबर के बाद उस मनहूस दिन मेरी पहली प्रतिक्रिया बस यही थी)
अब एक बरस बाद मीडिया और हम जैसे लोगों के लिए यह जानना जरूरी था कि पीडित और उनके परिजन क्‍या सोचते हैं। उनकी जिंदगी में इस एक साल में क्‍या बदला। हमारे अखबार के रिपोर्टर्स भी कई पीडितों के घर गए। किसी एक घर में यही प्रतिक्रिया मिली क्‍या तुम लोगों के पास कोई और काम नहीं है, जो बार बार में आ जाते हो। हादसे के बाद से अब तक पहले एक महीने बाद, फिर सौ दिन बाद और अब ठीक एक साल बाद। शायद पीडितों के भरते जख्‍मों को हम लोग चाहे अनचाहे फिर कुरेद देते हैं। पर शायद हमारी भी मजबूरी है। हम नहीं छापेंगे तो कोई और छाप देगा। पता नहीं एक बार फिर वही असमंजस।

Wednesday, May 6, 2009

जयपुर की सडक पर ये स्‍टंट



चुनाव का समय है। सारी निजी बसें पकडकर चुनाव डयूटी में लगा दी हैं। शहर की सडकों पर दो दिन से गिनती की सरकारी बसें चल रही हैं। और शायद इसीलिए बस रुकते ही चढने की मारामारी हो रही है।
पर शायद ये लोग या तो कुछ ज्‍यादा ही हिम्‍मत वाले हैं या इन्‍हें अपनी बीमा पालिसी और किस्‍मत पर ज्‍यादा भरोसा है। गेट से अंदर घुसने को जगह न मिली तो बस के पीछे ही लटक गए और फिर स्‍टंट करते करते चलती बस में ही अंदर जगह पाने में सफल भी हो गए। कल दोपहर ढाई बजे तपती घूप में रिद़धी सिद़धी से गुर्जर की थडी के बीच जिंदगी और बस के इस सफर को आप तक पहुंचाया हमारे वरिष्‍ठ ब्‍लॉगर साथी अभिषेकजी ने।

वैसे अभिषेकजी की नजरें बहुत तेज हैं। चलती सडक पर वो बहुत कुछ खोज लेते हैं।
शुक्रिया सर जो आपने शुरुआत के लिए ये चित्र उपलब्‍ध कराए।

Monday, April 27, 2009

काश! ऑनलाइन मिलता खाना


ये साला ऑनलाइन रहने का चस्‍का भी अजीब है। बाहर निकलना हो और पारा 42 डिग्री पार हो तो घर से निकलने का मन ही नहीं करता। कम से कम जब नेट अच्‍छी स्‍पीड में चल रहा हो।
यूं रोज रात देर से खाने की आदत है। पर कल एक दोस्‍त की सगाई थी, इसलिए शाम का खाना जल्‍दी खा लिया। सुबह सुबह राजगढ (मेरा पैतृक घर) से मैं जयपुर आ गया। घर पहुंचा तो बाई नदारद। बस अब खाना बनने का कोई चांस नहीं था।
यूं तो खाना बनना भी आता है, पर अब इतने दिन हो गए कि खाना बनाने का मन नहीं करता। भूख लगी थी, इसलिए “काश ऐसा होता कि खाना भी ऑनलाइन मिलता का स्‍टेटस मैसेज” जीमेल पर लगाकर कुछ जुगाड करने लगा।
जब तक किचन से लौटकर आया, चार पांच भारी भरकम सुझाव मिल चुके थे। उनमें से एक लगभग ऐसा ही था, जैसा मैं खुद चाहता था कि काश खाने का ऑर्डर भी ऑनलाइन चलता। यूं तो पिज्‍जा हट और मैकडी वाले आर्डर लेते ही हैं। पर बात यूं मजाक मजाक में ही चल रही थी खाना भी ऑनलाइन मिलता तो मजा आ जाता। न तो किचन में मेहनत करनी पडती न कुछ और!

Thursday, April 23, 2009

असमंजस, क्‍या हम सही हैं?

आफिस के बाद आजकल रोज चाय पीने का चस्‍का लग गया है। हम लोगों की एक मंडली भी तैयार हो गई है, जो अमूमन रोज चाय पीने जाती हैं। दो बजे के बाद सुबह लगभग चार बजे तक यहां बैठना हमारी आदत में शुमार हो गया है।
रोज वहां चाय के बहाने अड्डा जमाने से हम लोगों की चायवाले (जो दुकान पर चाय बनाता है) से भी जान पहचान हो गई है। पीने को पानी मांगते हैं तो ज्‍यादातर एक प्‍लास्टिक की बोतल थमा देता है। चार चाय बोलेंगे मन हुआ तो छह बनाकर ले आता है।
अभी कल परसों ही पता चला उसके ठंडे और पानी के अच्‍छे टेस्‍ट का राज। भाई ने बताया कि बस फ्रीजर से बोतल निकाली ढक्‍कन हटाया और रैपर फाडकर फेंकने से बिसलरी की बोतल पानी की आम बोतल में बदल जाती है।
मुझे एकाएक झटका लगा कि क्‍या हम रोज बिसलरी पी रहे हैं।
कल चाय पीने सिर्फ हमारी बेचलर्स यूनियन (मैं, तरुण और ऋचीक)
ही गई थी। हमने सोचा कि इस भाई को समझाया जाए कि क्‍यूं मालिक को चूना लगा रह। है। बातचीत की तो बोला, इतना काम करता हूं पता नहीं सेठ का कितना फायदा कर देता हूं। दिन भर लोगों को लूटते हैं अब आप लोगों को ठंडा पानी और अच्‍छी चाय पिला देते हैं तो इस सेठ का क्‍या बिगड जाएगा।

(कल ऋचीक ने खासतौर पर यह पोज खिंचवाया )
बातचीत और समझाइश का दौर चला तो पता चला कि वो तो अपने तरुण भाई के गांव के पास का ही रहने वाला है।
कहने लगा आप लोग इस चाय वाले को याद तो रखोगे। फिर अपने सेठ के कारनामे बताने लगा कि कैसे तीन रुपए की चाय पांच रुपए और दस रुपए कि ठंडी बिसलरी बीस रुपए में बेची जाती है। सेठ कहां ले जाएगा इतने पैसे थोडे आप लोगों पर खर्च हो जाएंगे तो सही रहेगा।

कल यह सब पता नहीं था, कल ही आधा ब्‍लॉग लिख चुका था पर आधी बात आज जानीं। अब तय नहीं कर पा रहा कि वो अकेले ही गलती कर रहा है या हम भी उसके काम में शामिल होकर और बुरा कर रहे हैं। वैसे तो मुझे लगता है कि शायद हमारे प्‍यार से बोलने और हमारी गपशप चायवाले को सुकून देते हों। रातभर की उसकी माथाफोडी में हम उसे अच्‍छे लगने लगे हों। पर मैं खुद तय नहीं कर पा रहा कि हम गलत हैं या सही।

Saturday, April 18, 2009

सर्किल नहीं मौत का कुआं है


जयपुर शहर सडक हादसों से कितना भयभीत है। इसका उदाहरण यह फोटो देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। जयपुर का एक बडा चौराहा है, गुर्जर की थडी। रोज रोज सडक दुर्घटनाओं के बाद यह इतना कुख्‍यात हो गया है कि एक सडक हादसे में एक दंपती की मौत के बाद लोगों ने दो दिन तक यहां प्रदर्शन किया। कॉर्नर में सडक हादसे की वजह रहे शनि मंदिर को लोगों ने खुद तोड डाला। और तो और अपने खर्चे पर एक बोर्ड लगवाया जिस पर सूचना लिखवाई गई कि यह चौराहा नहीं मौत का कुआं है। यह चित्र जयपुर में ही मेरे एक वरिष्‍ठ साथी और हम सबके चहेते अभिषेकजी ने मुझे खासतौर पर भेजा।

Tuesday, April 14, 2009

इतने डे कम थे, जो मेट्रीमोनी डे भी आ गया!

कल देर रात भारत मेट्रीमोनी डॉट कॉम का एक ईमेल मिला। इसमें 14 अप्रेल को मेट्रीमोनी डे के रूप में मानने की जानकारी मिली, कंपनी के सीईओ की ओर से एक ग्रीटिंग कार्ड मिला।
पहली बार सुना इस डे के बारे में। उत्‍सुकता थी तो गूगल पर खोजा, पता चला भारत मेट्रीमोनी ने लोगों को शादी के लिए प्रेरित करने के लिए इस दिन को चुना है। ताकी लोग शादी के बारे में सोचें। कंपनी का कहना है कि आज कि भागदौड की जिंदगी में लोग शादी के बारे में सोचे इसलिए इस दिन का ईजाद किया गया है। इसके लिए बाकायदा कंपनी ने एक वेबसाइट भी बनाई है। मैंने काफी कोशिश की पर कहीं कोई जानकारी नहीं मिली, अगर आपको पता चले तो बताइएगा प्‍लीज।

वैसे अपन बता दें, उनकी मेहनत बेकार चली गई। मैंने इस दिन से पहले ही सोच लिया शादी के बारे में। और मैंने भारत मेट्रीमोनी वालों को भी बता दिया कि टाइमपास के लिए बनाया मेरा मुफ़त आईडी प्‍लीज अब बंद कर दो। मेरी तलाश खत्‍म हो गई। वैसे तो यह बात आम हो गई है कि मेरी सगाई हो चुकी है। हमारे ब्‍लॉगर साथियों ने पोस्‍ट और कार्टून से इस घडी में मेरा खासा उत्‍साहवर्धन किया। वैसे मैं चाहता था कि डेट फिक्‍स हो तो यह खबर सार्वजनिक की जाए, पर साथियों ने पहले ही आप तक पहुंचा दी।
अब जब मैं भी इस श्रेणी में शामिल होने की तैयारी में हूं तो सभी कुंवारे-कुवारियों से अपील है कि भारत मैटीमॉनी के इस अभियान को सीरियसली लें और शादी के बारे में सोचें। ताकी उनके खाते में भी कुछ उपलब्धि दर्ज हो।

Sunday, April 12, 2009

बाप रे ! एक और मंदिर


धर्म एक अफीम है, शायद यह बात किसी ने धर्म परायण लोगों को देखकर कही गई थी। पर अब धर्म बडी से बडी दुकान चलाने में काम आ रही है। चाहे वो पीएम इन वेटिंग लालकृष्‍ण आडवाणीजी की हो, या मेरी वाली चाय की थडी की। धर्म ही ऐसा मसला है जिसकी आड में इस देश में कुछ भी आसानी से किया जा सकता है।
हां तो मैं बात कर रहा था बजाज नगर ( जयपुर में आजकल अपनी शरणस्‍थली ) में मेरी वाली चाय की थडी की। शायद चाय वाले को यह बात पहले से पता है कि अतिक्रमण करना है तो सबसे पहले मंदिर बनाने का प्रोसेस शुरू करो। ताकी वहां थडी लगाने में आसानी हो जाए। अतिक्रमण तोडने कोई आए तो उन पर दवाब बनाया जा सके।
दस ईंटों से एक छोटा अलमारीनुमा ढांचा बनाया। मूर्ति का आइडिया शायद अभी महंगा लगा हो इसलिए फिलहाल हनुमानजी की एक फोटो विराजित कर दी गई है। उसमें अगरबत्‍ती के पैकट और अगरबत्‍ती लगाने के लिए दो डिस्‍पोजेबल कप रखे हैं।
मैं बीस साल बाद की बात सोच रहा हूं। यहां बोर्ड लगा होगा, प्राचीन हनुमान मंदिर। और बाहर एक बडी से पुरानी थडी होगी। जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा होगा। हाईकोर्ट का स्‍टे!
यानी कुल मिलाकर धर्म की आड में एक और दुकान चलाने की साजिश।
पता नहीं कितने हजार अतिक्रमण होते रहेंगे ऐसे ?

Thursday, April 9, 2009

सिर्फ तस्‍वीरें और कैप्‍शन


मथुरा रेलवे स्‍टेशन पर लालूजी को ढूंढ रही थी उनकी गाय

जयपुर में प्रेस क्‍लब वालों की चली
तो शायद दोपहर का डिनर भी मिला करेगा


हवामहल की दीवारें
शायद
इनके प्रेम के इजहार के लिए ही ये जगह खाली छोडी गई थी

आवश्‍यकता अविष्‍कार की जननी है
ये फैक्‍स मशीन और कम्‍यूटर पर एक की दबाने से काम पूरा करना हो तो
लकडी का ये गुटका भी काम आ सकता है
ये हमारे उत्‍तमजी के दिमाग की उपज है।



गोवधर्नधाम की परिक्रमा में मिले मुझे ये पूर्वज जी
शायद इनको तस्‍वीरें खींचवाने का तगडा शौक है।

इसलिए भाग जाते हैं चोर, क्‍यूंकि पुलिस ही उनके साथ बैठकर ताश खेलने में व्‍यस्‍त है
(मैंने यह तस्‍वीर एक रेलयात्रा के दौरान बडे डरते डरते ली, कहीं पुलिस की नजर पडी और मुझे एक पडी)

Saturday, April 4, 2009

एक दम पकाऊ तस्‍वीर, गले नहीं उतरती कहानी


थिएटर मालिकों और डिस्‍टीब्‍यूटर्स में विवाद के चलते यूं ही नई फिल्‍में कम रिलीज हो रही हैं। “8 बाई 10 तस्‍वीर” रिलीज हुई तो ऐसी कि यूं समझिए अगर आप देखने पहुंच गए‍ तो लगेगा कि पैसे बेकार गए।
यूं तो फिल्‍म नागेश कुकनूर की है, अपन तो इसका सब्‍जेक्‍ट और नागेश का नाम देखकर पहुंच गए थिएटर। पर, क्‍या करें हॉ‍लीवुड स्‍टाइल कि कल्‍पना करके फिल्‍म बनाई है। पर स्‍टोरी इतनी अजब कि आप विश्‍वास ही नहीं करेंगे।
फर्स्‍ट हाफ तो बेहद कमजोर है, कई बार लगता है कि बस अब तो फिल्‍म खत्‍म होने को है पर उससे पहले ही एक नया पेंच आ फंसता है। फिल्‍म की कहानी कुछ यूं है कि नायक के पिता एक बिजनेसमैन हैं बडी कंपनी के मालिक हैं। पर बेटे जय (अक्षय) को उनके बिजनेस में इंटेरेस्‍ट नहीं है। वह इन्‍वायरमेंट प्रोटेक्‍शन सर्विस नाम से एक संस्‍था चलाता है। हालाकि काम करते हुए उसे फिल्‍म के शुरुआती पांच मिनट में बताया जाता है, उसके बाद तो हीरो काम पर ही नहीं जाता। बचपन में एक हादसे के बाद उसमें एक अजीब सी शक्ति आ जाती है। वह किसी भी फोटो को देखकर उसमें छिपा भूतकाल जान सकता है।
इस बीच उसके पिता की मौत हो जाती है। नौकरी से निकाले गए एक इंस्‍पेक्‍टर (जावेद जाफरी) के आगह करने पर उनका ध्‍यान इस ओर जाता है कि उनके पिता की हत्‍या की गई है। बस वो दोनों यह खोजने में जुट जाते हैं और फिल्‍म के अंत में पता चलता है कि दाल में काला नहीं पूरी दाल ही काली है।
मां के रोल में शर्मिला टैगोर और वकील के रूप में गिरीश कर्नाड को दो चार डायलॉग मिले हैं। अक्षयय की प्रेमिका शीला के रूप में आयशा टाकिया आजमी (शादी के बाद यही नाम है फिल्‍म की क्रेडिट में ) अक्षय के आजू बाजू खूब दिखती हैं। पर डायलॉग नहीं दिखते। (संस्‍पेंस है इसलिए यह नहीं बता रहा कि उन्‍होंने क्‍या गुल खिलाए)
फिल्‍म कनाडा में शूट की गई है। सीनरी बहुत प्‍यारी है। बस एक यही प्‍लस प्‍वाइंट है, दो गाने हैं एक फिल्‍म में और दूसरा फिल्‍म खत्‍म होने के बाद आता है। कुल मिलाकर नागेशजी संस्‍पेंस बनाने चले थे। और एकदम बिकाऊ सितारे अक्षय का साथ लिया उसके बावजूद फिल्‍म में चल पाने जैसे कोई लक्षण नहीं हैं।

हॉल में सिर्फ एक बार ठहाका गूंजता है
सीन कुछ इस तरह है कि एक बिस्‍तर में जय और शीला सो रहे हैं। आधी रात एक सपने के बाद जय की नींद टूटती है। शीला भी जागती है, हीरो को नार्मल करती है। एक बार आईलवयू बोलती है। तब तक लगता है कि शायद यह हीरो की पत्‍नी है, पर जब अगला डायलॉग बोलती है कि जय हम शादी कर लें। तो अचानक थिएटर में ठहाका लगता है, शायद इंडियन कल्‍चर का सत्‍यानाश हो गया है कि आधी रात बिस्‍तर से निकलकर नायिका हीरो को ये बोले। मेरे मुंह से भी यही निकला कि बस यही देखना बाकी रह गया था।

दिखते हैं अक्षय के सफेद बाल
पता नहीं ऐसा कैसे हो गया। अक्षय ने 30-35 साल के युवा की भूमिका निभाई है। फौजीकट छोटे बाल हैं पर पता नहीं किसकी गलती है। गर्दन के पास सफेद बाल साफ दिखाई देते हैं।

Wednesday, April 1, 2009

मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार!

आठ साल की एक लड़की के एक मर्डर के बाद घटनास्थल से लौटे एक साथी रिपोर्टर ने यह टिप्पणी की तो मैं चौंक गया। मैंने पूछा क्या हुआ यार। अखबार में काम करते हैं तो हत्या, बलात्कार जैसी चीजों से रोज रोज वास्ता पड़ता है। और एक क्राइम रिपोर्टर यह कहे कि मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार, तो सूट नहीं करता।
पूरी बात सुनी तो मैं भी उसकी बात से सहमत था। असल में जयपुर में बुधवार रात करीब आठ बजे घरवालों को घर के पिछवाड़े में ही आठ साल की मासूम बेटी का शव पड़ा मिला। छह भाई बहनों में सबसे छोटी चौथी क्लास में पढ़ने वाली रिषिता की किसी ने गला दबाकर हत्याकर दी। रात करीब दस बजे मीडियाकर्मी उसके घर पहुंचे।
बच्ची के पिता से सवाल करने लगे। कैसे क्या हुआ। आपको किस पर शक। एक बाप जिसकी आठ साल की बच्ची की हत्या हुई थी, शव उसके पास ही पड़ा है। हो सकता है किसी ने कुकर्म की कोशिश भी की हो। ऐसे में बाप क्या बोल पाता। हर शब्द के बाद रुआंसा हो उठता। इतने में किसी टीवी पत्रकार ने पीछे से जोर से कहा जरा जोर से बोलिए।
हो सकता है किसी को मेरी बात बुरी लगे। पर मेरे साथी रिपोर्टर को शायद यही बात खल गई, कि ऐसे में बाप से ही क्या सब कुछ पूछना जायज है। इधर-उधर किसी ओर से भी पूरी बात मालूम की जा सकती है। पर टीवी पर शायद बाप का फुटेज ज्यादा प्रभावित करता। टीवी पत्रकारों की इस मजबूरी ने शायद उस पत्रकार को विवश किया हो।
पर अपने ही साथियों की हरकत से परेशान एक युवा क्राइम रिपोर्टर ने ऐलान कर दिया कि मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार।

आज तो सही में गार्ड ने भगा दिया!


अखबार की नौकरी है। दिनभर सोना और देर रात तक आफिस में रुकना अपनी आदत में शुमार है। शायद इसी बात को ध्‍यान में रखकर अपने मित्र सुधाकर ने मेरे जन्‍मदिन पर आफिस के नोटिस बोर्ड पर ऐसा ही एक कार्टून लगाया जिसमें मैं ढाई बजे तक आफिस में हूं और गार्ड मुझे जाने के लिए संकेत दे रहा है।
पर कल रात तो सचमुच यही हो गया। मेरा छोटा भाई भी आजकल आफिस के किसी प्रोजेक्‍ट में फंसा हुआ है। इसलिए देर से घर जाता है। कल रात मैं निकलने की तैयारी में ही था कि उसने ऑनलाइन देखकर पूछ लिया कि घर चल रहे हो क्‍या। मैंने कहा हां। तो उसने कहा कि आप कितनी देर में बाहर निकल रहे हो। मैंने कहा कि दस मिनट में, और मैं अपने काम में लग गया।
इतना होते होते करीब पंद्रह मिनट लग गए और ढाई बज गए।
और सचमुच गार्ड आ गया। शायद उसे नींद आ रही थी। बोला कितनी देर में जाओगे ढाई बज गए।
मुझे लगा कि शायद आज वो कार्टून वाली बात हकीकत बन गई है। और मैं घर पहुंचते ही इसे लिखने में जुट गया। क्‍योंकि आज ही तो पूजाजी की लिखी बात पढी कि सच्‍चा ब्‍लॉगर वही है, जो जिंदगी में घटी हर बात में कुछ ऐसा ढूंढे कि एक ब्‍लॉग लिख सके।

Tuesday, March 24, 2009

बीमा एजेंटों के काम का सबूत हैं अखबार


अखबार में नौकरी करते करते सात साल से ज्‍यादा हो गए। इसलिए रोज समाचार पत्रों पर विश्‍वसनीयता के लिए नए नए उदाहरणों से वाकिफ होते रहते हैं। पर अभी जो मैंने देखा उस पर शायद बीमा कंपनियों की पूरी की पूरी इमारत टिकी है।
बीमा कंपनियों की नींव है एजेंट और उनके सर्वेयर। एजेंट के काम और उनके सर्वेयर की रिपोर्ट के आधार पर ही बीमा कंपनियां लाखों रुपए के बीमा कर लेती हैं।
अभी अपन छुटटी पर राजगढ (मेरा होम टाउन) में थे। शाम के वक्‍त एक दोस्‍त के घर जाना हुआ। बीमा कंपनी में सेल्‍स एग्‍जीक्‍यूटिव है। यूं तो अपन जब भी राजगढ होते हैं तो कई साल से अपना अडडा वहीं जमता है, पर कभी मेरा सामने वो काम करते नहीं मिला। इस बार गया तो वो काम कर रहा था, मैंने यूं ही कागज उठाए तो मैंने देखा कि उसने वाहनों के इंश्‍योरेंस में चैचिस नंबर का रिकॉर्ड एक अखबार का कॉर्नर फाडकर कर रखा है। मैंने सोचा शायद कोई पेपर नहीं मिला होगा इसलिए मजबूरी में यह किया गया है। मैंने दूसरी बीमा पॉलिसी के लिए जुटाए गए कागज उठाए तो देखा उसमें भी अखबार के कागज वाले हिस्‍से में ही चैचिस नंबर लिख रखे हैं। गौर से देखा तो एक खास बात थी, ये नंबर अखबार के नाम के साथ डेट वाले हिस्‍से के आसपास लिए गए हैं।
मैंने उत्‍सुकतावश यूं ही पूछ लिया कि यार ये क्‍या माजरा है। कोई और कागज नहीं मिलता क्‍या।
::तो भाई बोला यार हमारी तो नौकरी ही ऐसे चल रही है। इसका मतलब है कि अखबार की डेट तक गाडी सलामत थी और उसके बाद ही इंश्‍योरेंस किया गया है। मतलब जिस दिन सर्वेयर को अपना टयूर दिखाना है और जिस दिन में इंश्‍योरेंस फाइल करनी है उस दिन के अखबार का इस्‍तेमाल किया जाता है।
मैंने कहा यार गजब है।
तब मुझे लगा कि अखबार की एक डेटलाइन से बीमा का कारोबार कैसे चलता है।

Sunday, March 22, 2009

सरे आम फांसी की सजा सुनाने वाला जज विदा


भाजपा के पूर्व सांसद और राजस्थान हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुय न्यायाधीश रहे गुमानमल लोढा (83) का रविवार रात अहमदाबाद में निधन हो गया। 15 मार्च 1926 को नागौर जिले के डीडवाना में जन्मे लोढ़ा राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहते गुमानमल लोढ़ा का क्9त्त्भ् में दहेज हत्या के आरोपियों को सरेआम फांसी देने का आदेश काफी चर्चाओं में रहे। पुराने लोग बताते हैं कि जयपुर के कोतवाली थाना इलाके में वष्ाü क्977 में दहेज हत्या का एक मामला दर्ज हुआ। इस मामले में लोढा ने महिला की सास लिछमी देवी को दोषी मानते हुए सरेआम फांसी दिए जाने का निर्णय सुनाया। वर्ष 1972 से 1977 तक जोधपुर से राजस्थान विधानसभा के सदस्य रहने के अलावा लोढ़ा भाजपा की ओर से नौवीं, दसवीं तथा ग्यारहवीं लोकसभा में पाली (राजस्थान) का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।

Saturday, March 21, 2009

बाप रे! सत्‍तर हजार की जगह, सात लाख रुपए

इस बार घर गया तो यूं ही पापा से बातचीत चल रही थी। पापा इलेक्‍टीसिटी डिपार्टमेंट में हैड कैशियर हैं। इसलिए उनका बैंक में रेग्‍यूलर आना जाना लगा रहता है।
तो सुनिए पापा का सुनाया हुआ एक किस्‍सा
ये किस्‍सा सुनकर लगेगा कि जब तक देश में इतनी अनपढ और नासमझ जनता है तब तक उन भाई साहब जैसे बेवकूफ लोगों का काम चलता रहेगा।
हुआ यूं कि एक बुजुर्ग अनपढ पोस्‍ट आफिस से पैसा निकालकर सीधे बैंक गया। उसने अपनी पर्ची भरवाकर कैश काउंटर पर रख दी। कैशीयर ने पर्ची और नकद रुपयों में अंतर देखकर या बडी रकम देखकर पूछा- बाबा ये इतने रुपए कहां से लाए हो,
बुजुर्ग बाबा बोले पोस्‍ट आफिस से निकलवाए हैं।
कैशियर ने पूछा, कितने हैं
बाबा बोला – सतर हजार रुपए
आप विश्‍वास नहीं करेंगे कि कैशियर के हाथ में वो कितने रुपए थे।
जी सात लाख रुपए
यानी पोस्‍ट आफिस के कैशियर ने सौ रुपए की सात गडडी देने के जगह, पता नहीं कैसे उसे हजार रुपए की सात गडडी दे दी।
पापा को रोकते हुए मैंने भी आप ही की तरह पूछा कि क्‍या पोस्‍ट आफिस में इतने रुपए होंगे। पापा बोले वैसे तो मुश्किल हैं पर मार्च में लोग टैक्‍स सेविंग के लिए पीपीएफ अकाउंट में खूब जमा करते हैं न, इसलिए इतने होंगे।
हां तो
आगे सुनिए, यह है एक छोटे शहर और शराफत का उदाहरण
बैंक के कैशियर ने पोस्‍ट आफिस को फोन किया, कैशियर से बात की। पहले तो साहब मानने को ही तैयार ही नहीं इसलिए बैंक वाले को बोले कि सात लाख हैं तो जमा कर ले, तुझे क्‍या दिक्‍कत है।
पर जब पडोसी को बताया कि समझा ले भाई की नौकरी चली जाएगी।
समझाने के बाद पोस्‍ट आफिस के कैशियर साहब वहां आए, और जब उन्‍हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसके होश फाक्‍ता थे। हों भी क्‍यूं न
वो इतने पैसे पता नहीं कितने साल में भर पाता ।
पर जब तक भारत में ये निरक्षरता है तब तक शायद ऐसे बेवकूफ लोगों की ईश्‍वर मदद करता रहेगा।

Wednesday, March 18, 2009

आमिर खान का नया गेटअप


अपन के आमिर खान हर काम दिल से करते हैं। इस बार टाटा स्काई के विज्ञापन के लिए वे बिल्कुल नए लुक में नजर आएंगे। आमिर साठ साल के एक सरदार की भूमिका में है।
इस शॉट को फिल्माने के बाद आमिर खुद कहते हैं कि उम्र के साथ अभिनय करना आसान नहीं होता लेकिन बतौर अभिनेता इस अवतार ने उनके सतत नया करने की जिद को एक कदम और बढ़ा दिया है। वे कहते हैं जब मैंने खुद को नए रूप देखा तो मैं दंग रह गया, यह रूप मेरे वास्तविक चेहरे से बिल्कुल अलग था।

Monday, March 16, 2009

क्‍या किसी ने देखे हैं भूत


आफिस से काम खत्‍म होने के बाद अक्‍सर हम चाय पीने चले जाते हैं। कल रात भी हम निकल पडे चाय पीने। जब तक चाय बनती हमारे एक मित्र सुधाकरजी ने भूतों के अस्तित्‍व का सवाल छेड दिया। हुआ यूं कि कल ही उनके एक सालेजी ने उन्‍हें अपना साथ कई साल पहले घटा एक वाकया सुनाया था। सुधाकरजी का कहना है कि वे पुलिस में हैं और उनकी बात पर उन्‍हें पूरा यकीन है, क्‍यूंकि न तो वो झूठ बोलते हैं न ही कभी मजाक करते हैं।
किस्‍सा कुछ यूं था कि उन समेत तीन पुलिसवाले एक जीप से काम खत्‍म करके घर जा रहे थे कि गाडी गवर्नमेंट हॉस्‍टल (जयपुर का एक चौराहा) से गुजरी वहां एक सुंदर महिला ने रात करीब दो बजे लिफट मांगी। पुलिस वालों ने मदद के वास्‍ते गाडी रोकी तो महिला ने गोपालपुरा चौराहे तक छोडने को कहा, उन लोगों को सांगानेर तक जाना था इसलिए लिफट दे दी गई।
महिला को छोडते समय उन्‍होंने महिला के पैरों की तरफ देखा तो पंजे उल्‍टे थे। सभी के होश उड गए और डाइवर ने गोली की स्‍पीड से गाडी दौडा दी।
इसके बाद तो बस किस्‍सों की बाढ आ गई। हमारे एक और साथी तरुण और दिनेशजी ने भी एक के बाद एक किस्‍से सुना दिए। दिनेशजी ने भी इस तर्क का समर्थन किया कि उन्‍होंने भी एक बार इस तरह के एक साए को महसूस किया है। 1979 की बात कर रहे थे वो कि उन्‍होंने अपने पीछे एक साए का पीछा करते हुए देखा और अचानक वो गायब हो गया।
खैर ये किस्‍से तो करीब दो घंटे में खत्‍म हो गए पर मैं यह सोचता रहा कि क्‍या किसी ने भूत देखे हैं।
खैर
पता नहीं लेकिन मैंने आजतक जितने किस्‍से सुने उनमें बताया गया कि भूत या चुडैल के पंजे उल्‍टे होते हैं
मिठाई या सफेद चीज का पीछा करते हैं
हनुमानजी का नाम लेने पर गायब हो जाते हैं

अपन भी जय हनुमानजी की करते हुए घर पहुंच गए
और सुबह होने तक सोचते रहे कि क्‍या है कहीं भूत का अस्तित्‍व ?
इस बीच नींद लग गई और यह चिंतन अधूरा ही रह गया।

Sunday, March 8, 2009

चल बसा एक गुमनाम सांसद !


जयपुर से भाजपा सांसद गिरधारीलाल भार्गव का रविवार को निधन हो गया। अपन सुबह नींद में थे कि सुबह छोटे भाई ने उनके पड़ोस में रहने वाले किसी परिचित के हवाले से यह दु:खद खबर दी। यूं तो सबको जाना होता है, उम्र भी थी उनकी 72 पर, शायद जल्दी चले गए। उनकी रग-रग में जयपुर बसा था, शहर को गिनाने के लिए भले ही उनके हिस्से में कोई खास उपलब्ध न हों, पर शायद उनसे ज्यादा लोकप्रिय कोई सांसद देश में हो, कम से कम राजस्थान में तो ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ।
छह बार लगातार सांसद रहना और उससे पहले तीन बार विधायक और एक बार छात्रसंघ अध्यक्ष बनना उनकी लोकप्रियता का ही एक उदाहरण था। उन्होंने सबसे कम वोटों से जयपुर के ही पूर्व नरेश को 1989 के लोकसभा चुनावों में हराया और यह आंकड़ा भी करीब 85 हजार था। उनके सामने चुनाव लड़ने के लिए हिम्मत जुटाना ही अपने आप में बड़ी बात थी।
पर यूं पार्टी में उनकी गत पर अपन को कई बार अफसोस रहा, कहते हैं न शरीफ आदमी की राजनीति में इज्जत नहीं होती, इसका भार्गव से बड़ा कहीं कोई उदाहरण नहीं हो सकता। क्योंकि इस सबके बावजूद उन्होंने कभी अपने लिए पद की मांग नहीं की वहीं पार्टी ने न कभी उन्हें पद के योग्य समझा न मंत्री बनने के। हालात तो ये थे कि हाल के विधानसभा चुनावों में तो उन्हें बुजुर्ग कहकर विधानसभा चुनाव लड़ने या संन्यास लेने तक के लिए कह दिया गया! एक कार्यक्रम में तो बेचारे भार्गव ने खुद को जवान दिखाने के लिए उठक बैठक कर डाली।
हालत इतनी खराब थी कि शायद वे देश का इकलौता सांसद होगा कि जिसका फोन अगर अखबार के दफ्तर में आ जाए तो उठाने वाला आदमी एक दूसरे को यह कहकर टाल देता हो कि यार भार्गव साहब का फोन है खबर लिखाएंगे तू सुन ले।
अपन चार साल से जयपुर के मीडिया में हैं, लेकिन अपन को लगता है कि उन्हें मजबूरी में ही अखबार और टीवी पर जगह दी जाती होगी। बेचारे हर छोटे से छोटे प्रोग्राम में जाते पर उनकी फोटो कितनी बार छपी होगी अपन को याद नहीं। शायद इसका अनुमान उस समय हुआ जब `स्मृति शेष´ के स्पेशल पेज के लिए पुराने फोटो जुटाने की याद आई।
वैसे अपन का उनसे एक बार यूं ही फोन पर और एक बार असलियत में वास्ता पड़ा, पर उनकी सादगी के लिए मुझे कहना ही होगा कि शायद, चल बसा एक गुमनाम सांसद, जिसके लिए कहा जाता था, जिसका न पूछे कोई हाल, उसके संग गिरधारीलाल!

Saturday, March 7, 2009

एक अच्‍छी हॉरर फिल्‍म है 13 बी

एक दोस्त का ट्रान्सफर हो गया तो उसकी विदाई पार्टी मनाने के लिए कल रात 9 से 12 के शो में एक हॉरर फिल्‍म देखने चले गए। फिल्‍म का नाम बहुत अजीब था, 13 बी। यूं तो मुझे हॉरर फिल्‍में खास पसंद नहीं है। पर यह फिल्‍म कुछ अलग तरह की है, बेझिझक देखी जा सकती है।
फिल्‍म के मुख्‍य किरदार हैं मनु यानी आर माधवन। कहानी कुछ इस तरह है कि एक आठ लोगों का परिवार एक नए घर में शिफट होता है, घर का एडेस है 13 बी। यानी एक नई बिल्डिंग की 13वीं मंजिल पर। शिफटिंग के बाद, लगातार घर में रोज दूध फट रहा है और मंदिर वाले कमरे में भगवान की तस्‍वीर टांगने के लिए कील नहीं ठोकी जा सकी है।
अचानक ही एक बजे टीवी ऑन होता है और उस पर एक सीरियल शुरू होता है ‘सब खैरियत’। उस पर आने वाली कहानी बि‍ल्‍कुल उस परिवार से मिलती है। वही आठ लोगों का परिवार सेम वो ही घटनाएं। बस इसी सीरियल और घटनाओं की आड में कहानी आगे बढती है।

इतने में ही मनु के साथ कुछ अजीब होने लगता है, जैसे उसकी मोबाइल पर खींची गई तस्‍वीरें डिस्‍टाकट हो जाती हैं, वो लिफट में जाता है तो लिफट नहीं चलती। बाकी सारे लोगों की तस्‍वीरें भी ठीक आ रही हैं और वो लिफट से भी आ जा सकते हैं। दूसरे ही दिन खुद मनु भी वो एपीसोड देखता है तो उसे समझ आता है कि उसकी कहानी और उस टीवी सीरियल की कहानी बिल्‍कुल एक जैसी है।
मनु अपने पुलिस इंस्‍पेक्‍टर दोस्‍त की मदद लेता है उसे कहानी बताता है, पहले तो मानता नहीं पर जब खुद वो सीरियल देखता है तो वो भी कहानी में इनवोल्‍व हो जाता है। कहानी आगे चलती है तो उसे पता चलता है कि एक दिन हथौडा लेकर एक आदमी उसके घर गया है और उसके परिवार के सभी आठ लोगों का कत्‍ल कर देता है।
मनु उस आदमी की तलाश कर ही रहा होता है कि उसे अगले दिन के एपीसोड में खुद अपना ही चेहरा दिखता है हथोडा लिए हुए। वह अपने आप को परिवार से दूर एक जगह बंद करवा लेता है ताकी उसके परिवार को कोई खतरा न हो सके।
फिल्‍म में हत्‍यारा कौन है यह बात मैं आपको बता नहीं रहा क्‍योंकि आपका मजा किरकिरा हो जाएगा।

इसलिए डिफरेंट है मूवी
फिल्‍मांकन मजेदार है और पागल की एक्टिंग जबरदस्‍त है। एक और खास बात है कि यह पहली हॉरर फिल्‍म होगी जिसमें भूत टीवी में है यानी सुपरनेचुरल पावर और टैक्‍नोलॉजी का इस्‍तेमाल वर्ना अब तक की हॉरर फिल्‍मों में साया दिखता और तांत्रिक आता। यहां डॉक्‍टर ही सुपरनेचुरल पावर में विश्‍वास करता है। कहानी में इतनी कसावट है कि नींबू मिर्च, अजीबोगरीब अवाजें और साए दिखाए बिना ही स्‍टोरी एस्‍टेबलिश हो जाती है यानी हॉरर फिल्‍म वो भी बिना किसी भूत के।
हां, शुरुआत के 20-25 मिनट की फिल्‍म थोडी ऊबाउ लग सकती है, पर उसके बाद आपको पलक झपकने का भी मौका नहीं मिलेगा। डायरेक्‍टर ने प्रभावी स्‍टोरी पर काम किया है। फिल्‍म में माधवन के बाद उनकी पत्‍नी बनीं नीतू चंद्रा के हिस्‍से भी दो चार सीन आए है, जिनमें वो अच्‍छी जमी। बहुत दिनों बाद पूनम ढिल्‍लो नजर आई हैं।
फिल्‍म में दो गाने हैं जिनमें से एक 'आसमान ओढ़ कर' स्‍लो है और अच्‍छा लगता है।

हां एक और खास बात
फिल्‍म में रेसेपी बुक की आड में एक रोमांटिक सिक्‍वेंस भी है। आप फिल्‍म देखकर आएं और भाभी घर हों तो टंगडी कबाब जरूर बनाएं :)

(मैंने रात नौ बजे के शो में एक हॉरर फिल्‍म देखी, यह तब है ज‍बकि इस फिल्‍म की कहानी का प्‍लॉट और मेरे मकान की कहानी भी काफी मिलती है, यह सब दूसरी किस्‍त में )

Saturday, February 28, 2009

यार, किसी कॉलगर्ल का नंबर दे !


एक पुराना दोस्‍त घर आया। पहले एक कोचिंग सेंटर खोल रखा था, कुछ नया करने की सूझी तो इंश्‍योरेंस कंपनी ज्‍वाइन कर ली। मेरा फेवर चाहता था तो कुछ रेंफरेंस मांगने लगा। मैंने कहा यार ये इंश्‍योरेंस एजेंट इतने हो गए हैं कि आजकल हर घर में कोई न कोई मिल ही जाता है। तो बोला यार ऐसा कर किसी कॉलगर्ल का नंबर दे।
मैंने कहा यार मुझे क्‍या पता
बोला यार पत्रकार हो, तुम्‍हारे तो लिंक होते हैं, कहीं कोई पकडी गई होगी, किसी से जान पहचान होगी। मैंने कहा तुझे क्‍या करना है।
बोला, इंश्‍योरेंस करना है!
मैंने कहा कॉलगर्ल के इंश्‍योरेंस का क्‍या फंडा है
बोला यार काम के साथ साथ समाजसेवा भी करो, मैंने कहा इसका मतलब बोला कि इंश्‍योरेंस उस आदमी को बेचो जिसको इसकी सबसे ज्‍यादा जरूरत हो। मैंने कहा कि कॉलगर्ल ही क्‍यूं
बोला यार चालीस पार कौनसी कॉलगर्ल काम की रहती है, न जॉब सिक्‍योरिटी न कोई सामाजिक प्रतिष्‍ठा इसलिए इंश्‍योरेंस की जरूरत तो सबसे ज्‍यादा उन्‍हें ही है। और कंपनी को क्‍या फर्क पडता है कि इंश्‍योरेंस का खरीदार कौन है। मैंने कहा बात तो सही है।
वो कहने लगा कि काम करो पर नए स्‍टाइल से, शायद ये यूनिक आइडिया है और इसके हिसाब से ही मेरा काम आगे बढ जाए। मैंने कहा सही है पर यार अपन के पास ऐसा कोई रेफरेंस नहीं है।

फिर उसने सुनाया कॉलगर्ल को इंश्‍योरेंस पॉलिसी समझाने का पहला किस्‍सा
आप भी गौर फरफाइये
बोला किसी से रेफरेंस लेकर नंदपुरी में एक ब्‍यूटी पार्लर की आड में चल रहे अडडे में कॉलगर्ल से मिलने गया। वहां जाकर फोन किया। वो नीचे आने को तैयार नहीं हुई तो ऊपर चला गया। दिल में धुकधुकी थी कि किसी ने देख लिया या रेड पडी तो क्‍या होगा। मुलाकाता नहीं थी तो उसने अंदर पहुंचने पर मिसकॉल करके देखा। मिलने के लिए आई समझाने की कोशिश की तो बोली हम पढे लिखे नहीं है, ये सब नहीं समझते आपको सॉरी बोलते हैं इसके लिए।
दोस्‍त कहता है कि इससे पहले कोई एक बॉडी बिल्‍डर कमरे से निकलकर बाहर आ गया था, वह डर के मारे कांप रहा था। कहीं बाहर निकलते ही पीट न दे। खैर वो थैंक्‍स बोलकर बाहर निकल आया। बाइक स्‍टार्ट की और चौराहे पर पहुंचकर बंद कर ली। पांच मिनट रुका एक पुडिया खाई और फिर जाकर दम लिया। यह कॉलगर्ल से मिलने के बाद की हालत थी , फिर भी उसने हिम्‍मत नहीं हारी है।
उसी क्रम में मुझ से ही पूछ लिया कि कॉलगर्ल का नंबर है क्‍या, उसे उम्‍मीद है कि एक बार वह कॉलगर्ल को कन्‍वेंस करने में कामयाब हो गया तो बस उसकी निकल पडेगी।

Friday, February 27, 2009

जरा सा बदलाव


नाचना मेरे बस की बात नहीं है। पर आजकल मैं अपनी कमियां दूर करने में लग रहा हूं। दोस्‍तों की शादियों में उनके घरवालों की यही शिकायत रहती थी कि तुम लोग काम बहुत करते हो, समझदार हो पर डांस वैगरह नहीं करते। थोडा एंजाय भी किया करो, इस बार एक दोस्‍त की शादी में मैं भी कूद पडा डांस करने
सारी शर्म हया छोडकर इतना डांस किया कि अगले दिन शाम तक पैरों में दर्द होता रहा, पर एक बात जो मुझे समझ में आई कि जिंदगी में जरा सा बदलाव भी ताजगी ला देता है।
जिंदगी में छोटी छोटी बाते नयापन लाती हैं। मुझे हमेशा यही झिझक रहती थी कि डांस की प्रोपर टेनिंग नहीं ली तो लोग यूं ही उछलते कूदते देखकर हसेंगे। यूं भी शादी में मैं पूरे समय रहता था पर एक कोने में खडे होकर लोगों को डांस करते देखता था, पर इस बार मैं डांस करने वालों के बीच था। इतना नाचा कि पसीने में तरबतर और सूट से शर्ट में आ गया। बस फिर क्‍या था, मेरे डांस की फोटो एक दोस्‍त न ऑरकुट पर लगाई है और कैप्‍शन दिया है कि सब पियेले हैं।
चलिए इस बहाने ही सही
सभी मस्‍त होकर नाचते तो नजर आए ।

Wednesday, February 25, 2009

स्‍लमडॉग से आगे की कहानी है दिल्‍ली-6



दिल्‍ली 6 वहां से शुरू होती है, जहां स्‍लमडॉग मिलेनियर खत्‍म होती है। स्‍लमडॉग में भारत की गंदगी और गरीबी दिखाई है वहीं दिल्‍ली 6 में भारतीयों का प्‍यार दिखाया गया है।
फिल्‍म की कहानी कुछ इस तरह है कि रोशन यानी अभिषेक बच्‍चन अपनी दादी यानी वहीदा रहमान को भारत छोडने आता है। दादी की अंतिम इच्‍छा है कि वह अपने देश में अपने मकान में ही मरे। घरवाले सभी अमेरिका रहते हैं पर वो अपने देश में ही मरना चाहती हैं। रोशन दादी को लेकर भारत आता है और यहां कि संस्‍कृति से रूबरू होता है और पडोसियों और मोहल्‍ले वालों के प्‍यार से रूबरू होता है।
फिल्‍म की कहानी को आगे बढाने के लिए सहारा लिया गया है काले बंदर और रामलीला का। जिसकी कहानी स्‍टोरी के साथ साथ आगे बढती रहती है। इसी दौरान रोशन को अपनी पडोसन बिटटू से प्‍यार हो जाता है। बिटटू सीधी साधी भारतीय लडकी है, जो अपनी खुद की पहचान बनाना चाहती है, वह इंडियन आइडल में सलेक्‍ट होकर सिंगर बनना चाहती है। पर घर शादी के लिए पिता का विरोध भी नहीं कर सकती, इसलिए जहर पीने का डामा करती
है।
उधर रोशन भारत को समझने की कोशिश करता है, अपनी दादी की मदद के लिए इतने पडोसियों को देखकर कहता है कि वो अमेरिका में अपनों के पास थीं या यहां अपनों के पास हैं।
बुराई का प्रतीक काला बंदर फिल्‍म का मेन कान्‍सेप्‍ट है, इसी के जरिए डायरेक्‍टर ने कई संदेश देना का महत्‍वपूर्ण काम किया है।
बस पूरी फिल्‍म में कई गडबडझाले हैं, जैसे काले बंदर वाली मेन ईवेंट अगर 95 के आसपास की थी, तो टीवी में जिन दूसरी खबरों का इस्‍तेमाल किया जाता है, जैसे चंद्रयान 2008 की हैं। कहानी उसी समय की बताकर कुछ चीजे नए जमाने की हैं जैसे दिल्‍ली मेटो। पर कुल मिलाकर राकेश मेहरा ने एक काले बंदर के सहारे समाज को कई बडे संदेश देने का काम किया है। इस फिल्‍म में भी बहुत सारी दूसरी फिल्‍मों की तरह कहानी को स्‍थापित करने के लिए टीवी चैनलों का भरपूर प्रयोग किया गया है। पर मंकीमैन के समय आईबीएन सेवन दिखाते हैं, खटकता है। गाने बहुत ही कर्णप्रिय हैं और बोल बहुत प्‍यारे हैं। मसकली और गेंदाफूल तो बजोड हैं, वैसे सही मायनों में आस्‍कर की एंटी के लिए एक संपूर्ण भारतीय फिल्‍म तो यही है। सही मायने में इस दौर में आई ये दो फिल्‍में स्‍लमडॉग और दिल्‍ली 6 मिलाकर भारत की सही तस्‍वीर बनाती हैं।
फिल्‍म में कई नए प्रयोग हैं, गाने हीरो हिरोइन नहीं गाते शायद बैकग्राउंड में चलते हैं। अपने करियर में अभिषेक इस फिल्‍म में सबसे खूबसूरत नजर आए हैं, फिल्‍म में भी अपनी कंपनी मोटोरोला के हैंडसेट का प्रचार करते रहते हैं। सीधी सादी से कहानी को खूबसूरती से पिरोया है। जैसे कि दिल्‍ली 6 टाइटल का मतलब पिनकोड के हिसाब से दिल्‍ली के चांदनी चौक इलाके से है उसी तरह कई चीजें सामान्‍य सी हैं पर उनके पीछे सामान्‍य सा कान्‍सेप्‍ट है, जैसे चंद्रयान को सेक्‍स का प्रतीक बताया गया है।

Wednesday, February 4, 2009

चवन्नी चैप के ब्लॉग पर मैं

वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रहामत्ज ने इस बार अपने ब्लॉग चवन्नी चैप में हिंदी टाकिज सीरिज लिखने के लिए मुझे मौका दिया है। यह पूरा की पूरा मैटर मैं यहां भी लगा रहा हूं। पूरी सीरिज उनके ब्लॉग पर उपलब्ध है।
अजयजी ने मुझे मौका दिया मैं इसके लिए उनका आभारी हूं।- राजीव जैन


हिंदी टाकीज
कभी सोचा नहीं था कि फिल्‍म देखने और उससे जुडे अनुभव लिखने का मौका मिलेगा। पर एक दिन अजयजी सर का मेल मिला कि आप हिंदी टाकीज के लिए एक कडी लिखिए तो ऑफ के दिन समय निकालकर यादें ताजा करने बैठ गया। कोशिश की है कि फिल्‍मों से जुडे कुछ अच्‍छे बुरे अनुभव आपके साथ बांट सकूं।

राम तेरी गंगा मैली
मुझे अब याद नहीं कि इस फिल्‍म में क्‍या था, मैं शायद तब बमुश्किल छह-सात साल का रहा होगा। पर यह मेरी पहली फिल्‍म होने के साथ साथ ऐसी इकलौती फिल्‍म है जो मैंने अपने पूरे परिवार के साथ देखी हो। पापा, मां, दादी और हम दोनों भाइयों को लेकर शायद इसलिए यह फिल्‍म दिखाने ले गए हों कि फिल्‍म का टाइटल ‘राम तेरी गंगा मैली’ था। अगर फिल्‍म का पोस्‍टर न देखा हो तो फिल्‍म न देखने वाले को धार्मिक फिल्‍म जैसा अहसास देता है। खैर मुझे एक दो सीन याद आ जाते हैं और यह भी याद है कि हम फिल्‍म खत्‍म होने से थोडा पहले ही ही उठकर चले आए, ताकी फिल्‍म खत्‍म होने के बाद बाहर निकलने के लिए धक्‍का-मुक्‍की न करनी पडे।


मेरी पहली फिल्‍म
इसके बाद मैं शायद स्‍कूल से ही पहली बार फिल्‍म देखने गया था। शायद फिल्‍म का नाम छोटा जादूगर था। हमें सातवीं और आठवीं में साल में एक बार टॉकिज ले जाया जाता था। टैक्‍स फ्री फिल्‍म थी सो टिकट भी दो या तीन रुपए से ज्‍यादा नहीं होता था। क्‍यूंकि उस समय हमारे शहर में पांच रुपए के आसपास तो पूरा टिकट ही था।
इन दिनों वैसे मैं फिल्‍में भले ही न देखता रहा हों, लेकिन फिल्‍म के पोस्‍टर जरूर देखता था। क्‍यूंकि हमारी स्‍कूल बिल्डिंग के एक कॉर्नर में ही पोस्‍टर लगाए जाते थे।

प्रचार का अनोखा स्‍टाइल
उस समय फिल्‍म के प्रचार का स्‍टाइल भी अब के स्टाइल से थोडा अलग हुआ करता था। एक उदघोषक महोदय रिक्‍शे में बैठकर निकलते थे और एक फिल्‍मी गाने के साथ साथ बीच बीच में माइक पर चिल्‍लाते हुए जाते थे ‘आपके शहर के नवरंग टाकिज में लगातार दूसरे सप्‍ताह शान से चल रहा है आंखें। आप देखिए अपने परिवार यार दोस्‍तों को दिखाइये। फिल्‍म में हैं गोविंदा::, चंकी पांडेय।‘ इसी का असर था कि हम स्‍कूल से पैदल लौटते हुए भी इसी तरह चिल्‍लाते हुए अपने मौहल्‍ले तक पहुंचते थे।

एग्‍जाम के बाद फिल्‍म का साथ
नवीं क्‍लास के बाद हम लोग बडे बच्‍चों की गिनती में आ गए थे। वैसे टाकिज तक तो मैं रोज जाता था। मेरे शहर कि सार्वजनिक लाइब्रेरी भी उसी बि‍ल्डिंग में ही थी और मैं दसवीं तक रोज लाइब्रेरी रोज जाता था। दसवीं और उसके बाद तो एग्‍जाम के बाद पिक्‍चर देखना जाना बीएससी फाइनल ईयर के लास्‍ट एग्‍जाम तक उत्‍सव की तरह चला। यही वह दिन होता था जब मां को कहकर जाते कि खाना जल्‍दी बना दो पिक्‍चर देखने जाना है और छह से नौ बजे के शो के लिए भी वो कुछ न कहती थीं।

कोटा और हर टेस्‍ट
पीएमटी के लिए एक साल डॉप किया और कोचिंग करने हम कई दोस्‍त कोटा चले गए। कोचिंग में हर सात या चौदह दिन में रविवार को यूनिट के हिसाब से टेस्‍ट होता था। इसकी रैं‍किंग लिस्‍ट भी बनती थी। यानी टैस्‍ट होने तक मारकाट मची रहती थी। संडे को 3से 5 बजे तक टेस्‍ट हुआ करता था। और उसके बाद छह से नौ बजे तक के शो के लिए हम लोग ऑटो करके टॉकिज तक सबसे पहले पहुंचने की कोशिश करते। इस साल जितनी फिल्‍में मैंने टाकिज में देखीं उतनी एक साल में अभी तक कभी नहीं देखीं। घर से बाहर मनोरंजन का इकलौता साधन यही हुआ करता था। फिल्‍म के बाद लौटते और खाना खाकर सो जाते अगले दिन से पिफर वही भागदौड।
इस दौर में जुडवा जैसी हिट फिल्‍म भी देखी, तो जैकी श्राफ की भूला देनी वाली फिल्‍म ‘’ भी देख डाली। जुडवां की टिकट खिडकी पर मैंने पहली बार कोटा के टॉकिज में लोगों को डंडे खाते देखा।(मेरे अपने गांव राजगढ में टिकट जुगाडना मेरे लिए बडी बात नहीं थी। हमारे शहर का लाइब्रेरियन ही पार्ट टाइम टिकट कीपर हुआ करता था) बाद में इंतजार इतना करना पडा कि छह से नौ की टिकट नहीं‍ मिली तो जुडवा का नौ से बारह बजे का शो देखना पडा।

एक फिल्‍म और कई दिन की चुप्‍पी
फायर एक ऐसी फिल्‍म थी जिसने मेरे घर में काफी गफलत कराई। शायद बीएससी सैकंड ईयर की बात थी। मम्‍मी पापा शहर से बाहर थे। मैं और मेरा बडा भाई घर पर थे। भाई ने हम दोनों का खाना बनाया। मां घर पर नहीं होती तो हमेशा ऐसा ही होता था। इतने में मेरा एक दोस्‍त आया और बोला कि तगडी फिल्‍म लगी है फायर, देखने चलें क्‍या। मैंने उसके बारे में सुन रखा था, इसलिए मैंने उसे मना किया। मैंने कहा कि भाई को बोलकर चलेंगे क्‍या? पता नहीं कैसे हुए कि भाई के दोस्‍तों ने भी फिल्‍म का प्‍लान बना रखा था। मेरी तो अपने भाई से ज्‍यादा खुला हुआ नहीं था पर मेरे दोस्‍त ने उनसे कहा कि हम फिल्‍म देखने जा रहे हैं आप भी चलो। उन्‍होंने कहा कि हां मुझे भी जाना है। मेरे हिसाब से उन्‍हें तब तक फायर की स्‍टोरी लाइन का पता नहीं था। हम दोनों चले गए। छोटा शहर था एक ही हॉल था बॉक्‍स में 25 के आसपास ही सीट थी। हम दोनों भाई एक लाइन में ही आगे पीछे ही बैठे थे। फिल्‍म में जब शबाना आजमी और नंदिता दास के अंतरंग दृश्‍य आने लगे तो मैंने दोस्‍त से कहा यार चल यहां से भाई भी यही हैं, अच्‍छा नहीं लगता। दोस्‍त नहीं उठा, हम कुछ करते इससे पहले ही हमारे भाई की मित्र मंडली में से मेरे भाई सहित कुछ लोग बाहर चले गए। और मैं नौ बजे पूरी फिल्‍म देखकर ही घर लौटा। भाई ने लौटने के बाद कुछ नहीं पूछा, घर में शांति रही। और हम दोनों भाइयों ने शरमाशर्मी में कई दिन तक आपस में बात भी नहीं की।
मेरी दिल्‍ली 2002 से 2005 तक दिल्‍ली-नोएडा रहा। तीन साल में टॉकिज पर बमुश्किल आठ-दस फिल्‍में देखी होंगी, लेकिन अगर टीवी पर देखी गई फिल्‍में मिलाकर कहूं तो शायद अपने जीवन की सबसे ज्‍यादा फिल्‍में मैंने इन्‍हीं दिनों में देखीं।
दिल्‍ली में शुरुआती दिन थे, मैं दिल्‍ली के बारे में ज्‍यादा कुछ नहीं जानता था। ऑफ वाले दिन मयूर विहार से सीधी बस में बैठकर कनॉट प्‍लेस के लिए निकलता। रीगल में अगर कोई ठीकठाक फिल्‍म होती तो देख लेता, क्‍यूंकि अकेले या किसी एक और दोस्‍त के साथ कहीं और टॉकिज ढूंढने से अच्‍छा यही होता। अग्निवर्षा जैसी फिल्‍म मैंने इसी टाकिज में देखी। कोंडली से दरियागंज में गोलछा तक पहुंचना आसान हुआ करता था, देवदास इसी हॉल में देखी गई।
इन्‍हीं दिनों की बात है मुगल ए आजम कलर में दोबारा रिलीज हुई। अट़टा पर नोएडा में पहला म‍ल्‍टीप्‍लेक्‍स बनकर तैयार हुआ। बचपन से ही इस फिल्‍म को बडे पर्दे पर देखने की इच्‍छा थी। इसलिए री रिलीज के अगले दिन ही हम देखने पहुंच गए। फिल्‍म में मजा भी आया पर मेरे पीछे बैठे एक प्रेमी युगल की कलाकारी और फिल्‍म में उर्दू के डायलॉग का मजाक उडाना बीच बीच में परेशान करता रहा।

एमजेएमसी की मस्‍ती
सही मायनों में फिल्‍म को मस्‍ती करते हुए एंजाय करना मैंने इन्‍हीं दिनों में सीखा । सत्‍तर अस्‍सी रुपए से ज्‍यादा की टिकट खरीदकर ग्रुप में फिल्‍म देखने का मजा यहीं लिया। धूम और रंग दे बसंती जैसी फिल्‍में देखीं। सही मायनों में यही वही ऐज थी जब मैं नौकरी करते हुए फिर से कॉलेज लाइफ जी रहा था और हम एक साथ लडके, लडकियां यूनिवर्सिटी के बाद आमतौर पर बिना किसी को बताए हुए ही फिल्‍म चले जाते थे।

पीसी और फिल्‍में
2005 और उसके बाद सीडिज इतनी सुलभ हो गई कि कई सालों से जिन जिन फिल्‍मों का नाम सुना था, देख नहीं पाया। वे सभी कम्‍प्‍यूटर पर देखीं। वाटर, मैंने गांधी को नहीं मारा, निशब्‍द जैसे विवादास्‍पद फिल्‍में शामिल है। और अब लैपटॉप लेने के बाद तो फिल्‍म देखना और आसान हो गया है। मैंने जुरासिक पार्क से लेकर पुरानी देवदास तक जो मेरा मन करता है। कहीं से भी पैन डाइव सीडी, नेट या किसी की हार्ड डिस्‍क कॉपी करके देखीं। दो घंटे या उससे थोडे ज्‍यादा में फिल्‍म खत्‍म। यानी कुल मिलाकर अब फिल्‍म देखना आसान हो गया है।

:::और अब
टाकिज में अकेले जाने का मन नहीं करता और फिल्‍म देखना इतना महंगा हो गया है कि अब सावरिया, गजनी, वैलकम टू सज्‍जनपुर जैसे अच्‍छी और बडे बजट वाली फिल्‍में ही टॉकिज में देखता हूं। बाकी लैपटॉप पर देखकर ही काम चला लेता हूं।

Tuesday, January 27, 2009

आइये दो करोड रुपए जीतें

‘स्‍लमडॉग मिलेनियर’ फिल्‍म देखकर मैंने उस फिल्‍म में पूछे गए सारे सवाल इकटठे करने की कोशिश की है। अब आप भी खेलकर देखिए कि अगर स्‍लम के जमाल की जगह हू वान्‍ट़स टु मिलेनियर में अनिल कपूर के सामने आप बैठे होते तो कितने रुपए जीत सकते थे।

एक हजार रुपए के लिए पहला सवाल
1: वर्ष 1973 की हिट फिल्‍म जंजीर का हीरो कौन था?
अ- अमिताभ बच्‍चन
ब- राजेश खन्‍ना
स- देव आनंद द- विनोद खन्‍ना

चार हजार रुपए के लिए दूसरा सवाल
2: हमारे राष्‍टीय चिन्‍ह जिसमें तीन शेर बने होते हैं, उसके नीचे क्‍या लिखा है
अ- सत्‍य की जीत होती है
ब- असत्‍य की जीत होती है
स- फैशन की जीत होती है
द- रुपए की जीत होती है

16 हजार रुपए के लिए तीसरा सवाल
3: भगवान राम के दाएं हाथ में क्‍या होता है
अ- फूल
ब- तलवार
स- बच्‍चा
द- तीर कमान


एक लाख रुपए के लिए चौथा सवाल
4: दर्शन दो घनश्‍याम गाना किस भारतीय कवि ने लिखा ?
अ- सूरदास
ब- तुलसीदास
स- मीराबाई
द- कबीर
(हालांकि फिल्म मे´ इस सवाल का जवाब सूरदास बताया गया है, लेकिन इसके चारों ऑप्शन ही गलत हैं। सही जवाब गोपाल सिंह नेपाली है।)
दस लाख रुपए के लिए पांचवां सवाल
5: अमेरिकन सौ डॉलर पर किस अमेरिकन हस्‍ती का चित्र बना हुआ है
अ- जॉर्ज वाशिंगटन
ब- फ्रेंकलिन रुजवेल्‍ट
स- बेंजमिन फ्रेंकलिन
द- अब्राहिम लिंकन

पच्‍चीस लाख रुपए के लिए छठा सवाल
6: रिवाल्‍वर का अविष्‍कार किसने किया।
अ- सैमुअल कॉल्‍ट
ब- ब्रूस ब्राउनिंग
स’ डान वेसन
द ‘ जेम्‍स रिवाल्‍वर

पचास लाख रुपए के लिए सातवां सवाल
7: कैंब्रिज सर्कस इंग्‍लैंड के किस शहर में है।
अ-आक्‍सफोर्ड
ब-लीडस
स-कैंब्रिज
द-लंदन

एक करोड के लिए आठवां सवाल
8- किस क्रिकेटर से सबसे ज्‍यादा फर्स्‍ट क्‍लास शतक बनाए हैं
अ सचिन तेंदुलकर
ब रिकी पॉटिंग
स ब्रायन लारा
द जेक जेकॉब्‍स


9: दो करोड रुपए के लिए आखिरी सवाल
अलेकजेंडर की किताब द थ्री मस्‍कीटियर में पहले दो मस्‍कीटियर एथोज और पोरथोज थे। तीसरे मस्‍कीटियर का नाम क्‍या है।
अ अरामिस
ब कार्डिनल रिशेलू
स अर्गनन
द पल्‍नचेट

Thursday, January 22, 2009

आओ स्‍लमडॉग मिलेनियर देखें



जयपुर में साहित्‍य सम्‍मेलन शुरू होने वाला था। पहले दिन स्‍लमडॉग मिलेनियर वाली किताब “क्‍यू एंड ए” के विश्‍वास स्‍वरूप को आना था। मैं किताब नहीं पढ पाया इसलिए मैंने सोचा कि स्‍लम डॉम मिलेनियर देखकर ही उसकी कहानी का अंदाजा लगा लिया जाए ताकि उनको सुनने और समझने में कोई दिक्‍कत न आए। इत्‍तेफाक की बात थी‍ कि ऑफिस से लौटते समय किसी ने कहा कि नेट पर स्‍लमडॉग पूरी है, चाहिए क्‍या।
बस मैं ले आया और रात भर जगकर मैंने स्‍लमडॉग देखी।
फिल्‍म अच्‍छी है बस कुछ बात खटकती है जिसे आगे आप पढेंगे, बस एक चीज है कि दुनिया में वो चर्चा में आई जिसमें हमारी गरीबी दिख रही है, मुंबई की गंदगी दिख रही है। पर गालियों को छोड दिया जाए तो फिल्‍म अच्‍छी है।

आइए अब आपको बताऊं फिल्‍म की कहानी
जमाल मलिक एक मुसलिम बच्‍चा है जो मुंबई की एक झुग्‍गी बस्‍ती में है, दंगों में हिंदुओं ने उसकी मां को मार दिया। उसका एक बडा भाई है, जो अब किसी डॉन के लिए काम करता है और वह खुद किसी कॉल सेंटर में चाय सर्व करता है। इत्‍तेफाक से कौन बनेगा करोडपति में पहुंच जाता है। यहां अनिल कपूर (शो के प्रस्‍तोता) उससे सवाल पूछ रहे हैं और एक दिन का एपिसोड खत्‍म होने तक एक करोड रुपए जीत चुका है। अनिल कपूर को जमाल पर शक हो जाता है कि एक चाय वाला “हू वान्‍ट़स टु मिलेनियर” में कैसे जीत सकता है। इसी शक में अनिल उसे पुलिस के हवाले कर देता है और पुलिस से पूछताछ में पता चला है कि उसकी जिंदगी कैसे गुजरी।

हर सवाल का जवाब कहीं न कही उसकी जिंदगी से जुडा होता है और कहानी आगे रफ़तार पकडती है। कहानी फ़लैशबैक में चलती है।
मां की मौत के बाद जमाल और उसके भाई सलीम को बच्‍चों से भीख्‍ा मंगवाने वाले गिरोह के लोग पकड लाते हैं। वो जमाल की आंख निकालकर अंधा कर ही रहे होते हैं कि दोनों भाई वहां से बाहर निकलते हैं और देश भर में घूमते हुए वापस दिल्‍ली पहुंचते हैं। इस बीच में छोटी जिंदगी में अनाथ बच्‍चे जिंदगी के बहुत सारे तजुर्बे प्राप्‍त करते हैं।
बच्‍चों की बाल सुलभ अदाएं फिल्‍म की कहानी के साथ रोचकता बनाए रखती है। फिल्‍म में जमाल के रूप में तीनों ही बच्‍चों ने बहुत ही बेहतरीन अभिनय किया है।
कहानी के साथ साथ बाद में पता चलता है कि जमाल सही था और उसने कोई फर्जीवाडा नहीं किया। अगले दिन शो फिर होता है और जमाल दो करोड रुपए जीत जाता है।
वैसे यह फिल्‍म भारत में आज रिलीज होने को है। मैंने अंग्रेजी वर्जन देखा है।

अब इसकी एक कमजोरी
यह बात इस फिल्‍म को गोल्‍यडन ग्‍लोब मिलने के बाद जयपुर में पत्रकारों से बातचीत में फिल्‍म के ही एक करदार इमरान खान ने भी कही। कि झुग्‍गी का एक बच्‍चा बेधडक अंग्रेजी बोलता है और हू वान्‍टस टु मिलेनियर में पहुंच जाता है। यह बात हिंदी के दर्शक पचा नहीं पाएंगे। यही बात मुझे कई बार क्लिक की। पर फिल्‍म अंग्रेजी में है इसलिए हो सकता है ऐसा करना पडा हो अब हिंदी वर्जन में क्‍या होगा यह देखने की बात है।
फिल्‍म का म्‍यू‍जिक बहुत ही अच्‍छा है, जय हो और रिंगा रिंगा रहमान के खास अंदाज में हैं। पूरी फिल्‍म में काम लिया गया बैकग्राउंड म्‍यूजिक भी अच्‍छा है।

Thursday, January 8, 2009

बिल्‍ली रास्‍ता क्‍यूं काटती है


पता नहीं ये ये बिल्‍ली रास्‍ता क्‍यूं काटती है। कल रात की बात है, आफिस से करीब ढाई बजे घर लौट रहा था। आफिस के ही एक साथी दूसरी बाइक पर थे, घर के पास वाली गली पर एक दूसरे को विदा ही कर रहे थे कि एक बिल्‍ली पर मेरी नजर पडी, वो मेरा रास्‍ता काट रही थी।
यूं तो मैं इन सब चीजों में विश्‍वास नहीं करता पर कहते हैं न‍ जिंदा मक्‍खी निगली नहीं जाती। मैंने यह बात साथी को बताई तो उन्‍होंने कहा कि अगली गली से निकल जाना।

फिर क्‍या था मैं बिल्‍ली को चकमा देकर गली के दूसरे छोर से होकर घर पहुंच गया। रोज की तरह घर पहुंचकर छोटे भाई का मोबाइल बजाया। एक बार में कोई रेस्‍पॉन्‍स नहीं मिला तो करीब 25 मिनट तक मोबाइल और गेट बजाता रहा। शायद पडोसी उठ गए पर अंदर के दो कमरों में सो रहे निर्दयी दो जनों ने गेट और मोबाइल की आवाज न सुनी, तो मुझे समझ आया कि मैं बिल्‍ली को चकमा नहीं दे पाया।
पता नहीं ये ये बिल्‍ली का करिश्‍मा था या फिर भाई का जायज कारण कि जब मोबाइल की बैटरी कम चार्ज होती है तो उसके हैंडसेट से रिंग की आवाज नहीं आती।
खैर सवा तीन बजे छोटे ने मेरे गेट खटखटाने की आवाज सुनी गेट खोला। मैंने हमेशा कि तरह कहा कि कितनी देर से बजा रहा हूं। उसने कहा कि नहीं तो और रिजाई में घुस गया।