Saturday, December 29, 2007
बस कटटरपंथियों से खुद को बचाएं हनुमानजी
हनुमानजी फिर पृथ्वी पर आए हैं। बस खुद को कटटरपंथियों से बचाएं। दो दिन से तो सब ठीक ठाक है। बस कहीं किसी की नजर न लग जाए।
अपन ने रिलीज के दो दिन बाद अनुराग कश्यप की हनुमान की सिक्वेल हनुमान रिर्टन्स रविवार सुबह 10 से 12 के शो में राजमंदिर में देखी।
फिल्म गजब की है। हालांकि हमेशा की तरह फिल्म के डायरेक्टर साहब ने पहले ही लिख दिया की सबकुछ काल्पनिक है, लेकिन इन कटटरपंथियों से भगवान बचाए पता नहीं क्या बुरा लग जाए।
फिल्म की कहानी के अनुसार हनुमानजी पृथ्वी पर जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। और वे बजरंगपुरी में एक पंडितजी के परिवार में मानव रूप में जन्म लेते हैं। जन्म के तीन महीने बाद ही स्कूल पढने चले जाते हैं, कृष्ण की तर्ज पर पूरे गांव का खाना खा जाते हैं। तंग होकर गांव वाले उन्हें परिवार सहित गांव से बाहर निकाल देते हैं। उधर, स्कूल में मारुति यानी अपन के हनुमानजी की शरारत जबरदस्त होती है, अपने दोस्त दीपू को कई बार बचाते हैं। गांव के गब्बरनुमा डाकू को अपनी वानरसेना के साथ मिलकर पीटते हैं।
फिल्म में हर सीन में नयापन है, कहीं की ईंट कहीं का रोडा खूब फिट किया है। गौर से देखें तो कार्टून करेक्टर में जय वीरु, अपन के शाहरुख जैसी आवाज और अदा, सलमान की तरह बंदर का बनियान और शर्ट खोलकर फेंकना, बच्चों के साथ साथ बडों को भी गुदगुदाता है।
भले ही स्वर्ग में चित्रगुप्त लैपटॉप पर पूरी दुनिया का डेटा रखते हों या खाली समय में मेनका डॉट कॉम देख रहे हों।
या जगत शिरोमणी ब्रहमाजी एलसीडी पर पृथ्वी का हाल दिखाते हैं। मुनि नारद कान लगाकर मेनका और विष्णु की बातचीत सुन रहे हैं।
हनुमान को अपना कान्टेक्ट याद दिलाने के लिए नारद का चार्टर प्लेन से पृथ्वी पर पहुंचना और मुसिबत में वीणा को गिटार बताकर ओम शांति ओउम गाना दर्शकों को गुदगुदाता है, पर बस किसी को बुरा न लग जाए। अपन तो यही प्रार्थना करते हैं।
बच्चे मजा तो तब लेते है जब राहू केतू से युदध के समय एक बंदर की पिस्तौल में एक गोली बचती है और सामने दो राक्षस होते हैं, अपने बंदरजी आगे चाकू लगाकर फायर करते हैं, एक गोली के दो टुकडे हो जाते हैं और डिच्काऊ। दोनों खल्लास।
बस फिल्म देखते समय दिमाग को साइड में रखकर बच्चे बनकर एंजाय करेंगे तो लगेगा कि आपने फिल्म देखकर कोई गलती नहीं की।
कुल मिलाकर पूरी फिल्म में एनिमेशन में स्पीड है, करैक्टरर्स की आवाज अच्छी हैं। कुछ की शैली कई पुराने हीरो मसलन संजीव कुमार, अमजद अली खान, जगदीप, राजकुमार और शाहरुख तक से मिलती जुलती है। एनिमेशन में स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से लेकर सौर मंडल तक के दर्शन हो जाएंगे।
कुल मिलाकर फिल्म कहीं भी अपने पहले पार्ट जो 2005 में आया से कम नहीं है। आपने अगर हनुमान नहीं भी देखी तो आप कुछ भी मिस नहीं करते। दिलेर और अदनान की आवाज में गाने अच्छे हैं। बाहर निकलते निकलते आप भी गुनगुनाते मिलेंगे। फिल्म की अंग्रेजी यानी कि डायलॉग के बीच अंग्रेजी जहां ठूंसी गई हैं मजा आता है।
बच के रहना इन रेडियो टैक्सियों से
बेमतलब की सलाह है। पर क्या करुं पूरा दिन और पैसे की बर्बादी की बाद सबक मिला है। सोचा आप से शेयर कर लूं, दुख हल्का हो जाएगा। इसलिए लिख रहा हूं। सीधे मुददे पर सर्दियों की छुटटी मनाने के लिए इनदिनों अपन की बुआ, भैया भाभी और बहन सब अपने ही साथ हैं। आफिस से छुटटी नहीं मिल रही लेकिन फिर भी सबको घुमाना तो जरूरी था।
सुबह जागा तब तक अपन को छोड बाकी सब लोग जाने को तैयार थे। जबरन उठाकर अपन को भी चलने के लिए कहने लगे। जयपुर के पास पदमपुरा जैन मंदिर जाना था, करीब 32 किमी है। अपन ने कहा कि बस से जाने में परेशानी होगी कोई कार हायर कर ली जाए। नेट ज्ञान काम आया तुरंत गूगल महाराज की शरण में गए और ढूंढ निकाला जयपुर में फोन पर टैक्सी मुहैया कराने वाले श्रीश्याम रेडियो टैक्सी का नंबर। फोन किया और बातचीत के बीस मिनट बाद टैक्सी दरवाजे पर। बस यहीं से शुरू हुई असली तकलीफ। गाडी में बैठते ही पता चला कि ये तो गैस से चलेगी। खैर तय हिसाब की जगह मीटर बीस रुपए पर और किमी .775 किमी। खैर थोडी दूर चले तो बुआ और उनके बच्चों ने फरमा दिया कि गैस की बहुत बदबू है और इसकी जगह ऑटो में चल चलेंगे। इसमें नहीं थोडी देर बाद सोने पर और सुहागा हुआ कोई वायरिंग जलने लगी। आधे रास्ते से पहले ही बुआ और बच्चों को आगे वाली सीट पर बिठाया और बाकी लोग जैसे तैसे गाडी के दोनों तरफ के शीशे खोलकर उस बदबू से मुकाबला करते हुए करीब 40 मिनट में मंदिरजी के सामने तक पहुंच गए।
उतरते समय नजर मीटर पर थी, ताकी कोई घपला न हो।
अरे ये क्या डिग्गी में रखा बैग गायब, डाइवर को पूछा तो जवाब, अपन को पूछ के रखा क्या आपने। आपके चक्कर में मेरी रिजाई भी रास्ते में गिर गई। अपन ने तुरंत घरवालों से पूछा कि बैग में था क्या, सब लेडिज पर्स और महत्वपूर्ण सामान तो सुरक्षित हैं न। बोले कुछ किलो पूजन सामग्री कुछ छोटे मोटे कपडे, शॉल, नाश्ता यही कुछ था।
तुरंत गाडीवाले के ऑफिस में फोन लगाया। वहां तीन बार फोन इधर से उधर टांसफर हुआ और मालिक साहब लाइन पर आए, अपन ने बोला कि बॉस गाडी से बैग गिर गया। कैसी खटारा गाडी है जिसकी डिग्गी तक ठीक नहीं है।
साहब तो अपन पर ही चढ गए, बोले डाइवर तो कह रहा है कि सामान उससे पूछ कर नहीं रखा। और फिर वे बोले हो जाता है साहब कई बार स्पीड ब्रेकर पर खुल जाती है डिग्गी, अब कोई बात नहीं, जाने दो। अपन ने चार भाषण मारे और दिमाग खराब होने के बाद फोन रख दिया।
सारी पूजन सामग्री बैग में ही थी सो पूजन सामग्री फिर वहीं दुकान से खरीदी और मंदिर में चले गए।
लौटकर गाडी में बैठे तो अरे ये क्या मीटर तो पहले से पचास रुपए से भी ज्यादा आगे से शुरु हो रहा है। अपन ने बोला भाई ये क्या लूटमार है। डाइवर साहब बोले ये तो वेटिंग चार्ज है, अपन से रहा नहीं गया। मैंने कहा गजब है भाई आदमी गाडी कहीं लेकर जाएगा तो थोडी देर तो रुकेगा ही न। गाडी किमी सिस्टम पर है, इसका मतलब क्या इसे दौडाते ही रहें।
अपन ने फिर उसके मालिक को फोन लगाया, वे फरमाए कि ये तो पूरे जयपुर को पता है कि हम ये चार्ज करते हैं। मैंने कहा कि मेरी जब आपसे बात हुई तो आप सिर्फ इतना बोले कि पहले किमी के 20 रुपए और बाद में 8 रुपए किमी। बाकी तो बताया भी नहीं था, जबकि मैंने पहले ही कह दिया था कि करीब 45 मिनट रुकेंगे।
वे बोले ये तो देना ही होगा, मैंने कहा अगर गाडी जाम में फंसती या रेलवे क्रासिंग पर अटकती तो क्या होता। बोले हां हां पैसे तो देने ही होंगे।
बस अपन से रहा नहीं गया, दो चार गरमागरम सुनाकर मैंने बोला कानून ज्यादा मत सिखा वर्ना मुझे गुस्सा आ जाएगा। इसके बाद अपन वहां बिल्कुल नहीं रुके और मैंने कहा कि बस चल अब बाकी जगह तेरी गाडी से नहीं जाएंगे। तू तो बस जयपुर पहुंचकर छोड दे हमें, वहां से आगे घूमने के लिए दूसरी गाडी कर लेंगे।
बस लौटते समय अपनी नजर पूरे रास्ते भर हर गाडी की डिग्गी पर ही रही। खैर करीब 22 किमी के सफर में अपन को ये राजस्थान रोडवेज की बस नजर आ ही गई, जो जनता का सामान इस खुली डिग्गी में भी ढोह रही थी।
सांगानेर में सांघीजी के मंदिर पहुंचकर हमने गाडी छोड दी। और अब शुरू हुई असल कहानी।
अपन ने कह दिया कि अब मैं फोन नहीं करुंगा, बात कर अपने मालिक को और बोल दे कि बैग और उसके सामान के पैसे दे तब ही गाडी का किराया मिलेगा।
बडी बहस के बाद डाइवर ने रेडियो सिस्टम से फोन करके अपने मोबाइल पर सेठजी से फोन कराया। अब वो साहब मानने को ही तैयार नहीं कि गाडी से सामान गिरा है।
बात बढती देख आसपास के लोग आ गए। कोई अपन को डाइवर को पीटने की सलाह दे और कोई पुलिस में जाने की। खैर मैंने उसके मालिक से कहा कि जो सैटलमेंट करना है करे, और अपन के दिन की बर्बादी बचाए।
अब वो साहब फरमाए कि अगर गाडी में गैस की बदबू आ रही थी तो बैठे ही क्यूं। आप तो अब बहानेबाजी कर रहे हैं। सामान भी पता नहीं रखा या नहीं।
अब दो ही विकल्प थे या तो मामला पुलिस में ले जाएं या पैसे देकर काम खत्म और जिंदगी का पक्का सबक।
खैर वह टोटल बिल से 50 रुपए कम करने को तैयार हो गया। अपन ने उसे आधे रास्ते से ही विदा किया और आगे से रेडियो टैक्सी से तौबा कर ली।
Monday, December 24, 2007
अपन के मोदी कुंवारे या शादीशुदा
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी अविवाहित हैं या उनकी शादी हो चुकी है। अपन इस पचडे में नहीं पडना चाहते, असलियत या तो मोदी जानें या भगवान। बस अपन ने तो कल एक पोस्ट 'मोदी की जीत का पोस्टमार्टम' में एक जगह जिक्र कर दिया था कि मोदी का अविवाहित होना भी उनके पॉलीटिकल करियर में लाभदायक रहा। क्यूंकि भारत में आम मान्यता है कि कुंवारे आदमी के लिए सोचा जाता है कि जिसका परिवार ही नहीं है वह जनता सरकार के पैसे को क्यूं खाएगा।
लेकिन अपने आवारा बंजारा वाले संजीत भाई को मोदी के अविवाहित लिखने पर आपत्ति थी। अपन ने तुंरत यह जानकारी पोस्ट से हटा ली। अब दिनभर अपन ने खोजबीन की तो यह जानकारी सामने आई कि एक महिला जसोदाबेन मोदी ने नरेंद्र भाई मोदी की पत्नी होने का दावा किया है। वहीं नरेंद्र मोदी हमेशा खुद को अविवाहित बताते आए हैं। उनका संघ प्रचारक होना भी इस दावे को मजबूत करता है, लेकिन इस चुनाव में उनके विरोधियों ने इस मामले को उठाया और चुनाव आयोग को उनकी इस कथित पत्नी की जानकारी देकर गलत जानकारी के आरोप में नामंकन पत्र खारिज करने की मांग की है।
उस महिला का वीडियो यू टयूब पर भी उपलब्ध है। वीडियो में रजोसाना प्राइमरी स्कूल भी दिखाई है जिसमें वे पढाती हैं। इस वीडियो में उनके भाई अशोक भी दिखाए गए हैं।
यह महिला मोदी के पुराने फोटो भी दिखाती हैं, इसके अलावा उनके पास मोदी की दी हुई संघर्ष मा गुजरात किताब भी रखी है। जसोदाबेन के अनुसार उनकी शादी 1968 में हुई। मोदी तीन साल तक उनके साथ रहे और एक दिन अचानक उन्हें छोडकर चले गए।
बीबीसी की वेबसाइट पर मोदी की प्रोफाइल में एक महिला के उनकी पत्नी होने के दावे वाली बात कही गई है, लेकिन उन्होंने भी यही कहकर कि मोदी की ऑफिशियल प्रोफाइल में पत्नी का जिक्र नहीं है। पल्ला झाल लिया है।
विकीपीडिया पर शादी के मामले में कोई जानकारी नही है। वहीं डीएनए में आठ दिसंबर को संजय सिंह की एक खबर ने स्थानीय भाजपा नेताओं के हवाले से लिखा था कि यह बाल विवाह का मामला था और मोदी ने उनसे तलाक नहीं लिया लेकिन वे कभी उस महिला के साथ रहे भी नहीं। वैसे गुजरात के अखबारों में ये खबरें बीच बीच में छपती आई हैं।
वैसे एक बात की इस वीडियो और इस तरह की खबरों का टाइमिंग चुनाव के आसपास का ही क्यूं चुना गया। इतने वर्षों से यह महिला चुप क्यूं थी। इस पर महिला ने तो यही कहा कि उन्होंने नरेंद्र भाई से कई बार मिलने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। पर आप क्या कहेंगे।
किसी को इससे जानकारी उपलब्ध हो तुरंत सूचित करे
मोदी की जीत का पोस्टमार्टम
गुजरात में मोदी की हर मायने में दूसरे चुनावों में दूसरे नेताओं की जीत से अलग है। मीडिया से लेकर विरोधी तक मोदी के पीछे पडा था और विकास या दूसरे मुददों को छोड लोग अब तक गोधरा का मामला उठाए जा रहे थे। इस जीत के पीछे क्या कारण रहे यह जानते है।
मोदी का निश्कलंक जीवन
मोदी का व्यक्तिगत जीवन बेदाग रहा है और उनका पॉलिटिकल करियर भी साफ सुथरा है। इसने भी मोदी को तीसरी बाद मुख्यमंत्री बनवाने में अहम भूमिका निभाई है।
गुजरात का गौरव
साढे पांच करोड गुजरातियों की अस्मिता की बात करने वाले मोदी का यह स्टाइल भी गुजरात में खासा लोकप्रिय है। मोदी जब गुजरात गौरव और वाइब्रेंट गुजरात की बात करते हैं तो उनके विरोधी भी भाग खडे होते हैं।
विकास का मुददा
गुजरात में विकास की बात को हर आदमी स्वीकरा करता है। यह बात भी मोदी के खाते में गई है। निवेशक गुजरात में पैसा लगाने को तैयार हैं। आंकडे इसकी पुष्टि करते हैं। भले ही किसी ने कितनी भी बुराई क्यूं न कर ली हो। विकास गुजरात में दिखाई देने लगता है। ज्यादातर लोगों की बिजली, पानी और सडक जैसी समस्याएं अब खत्म हो गईं।
कामकाज में ईमानदारी
गुजरात में विपदाओं के समय विशेषकर सुनामी और भूकंप के समय किए गए कार्यों और उनके टिकाऊपन ने भी भाजपा में लोगों का विश्वास बनाए रखा। मोदी के काल में प्रशासनिक स्तर पर भी चुस्ती का फायदा उन्हें मिला है।
टिकट बंटवारा
गुजरात के पूरे चुनावों में केंद्रीय नेतृत्व में सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी पर दांव खेला वहां न तो उनकी मंजूरी के बिना किसी और को गुजरात मे प्रचार करने भेजा गया न ही, किसी और नेता ने कोई बयान दिया। टिकट वितरण में पूरी तरह मोदी की चली और उन्होंने कई वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए। हालाकि उनमें से कुछ पटेल लॉबी और केशुभाई समर्थकों ने निर्दलीय या कुछ ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडे पर मोदी के आगे उनकी पेश नहीं खाई।
और सबसे बडी बात एंटी इनकंबैंसी फैक्टर को मोदी ने अंगूठा दिखा दिया उन्होंने बता दिया कि विकास में हिन्दुत्व का तडका लगाकर कैसे विजेता बना जाता है।
(गुजरात पर इसी महीने में यह तीसरी पोस्ट है, इसे अन्यथा न लें सुझावों से जरूर अवगत कराएं। बुरे को बुरा और अच्छे को अच्छा लिखें ताकी आपको कचरा पढने से मुक्ति मिले - राजीव )
मोदी के तारे आसमान में क्यूं बदनाम करते हो गुजरात को
Sunday, December 23, 2007
मोदी के तारे आसमान में
सोनिया का गुजरात कैंपन में मौत का सौदागर बोलना मोदी की जीत का टर्निंग प्वाइंट रहा और मोदी कांटे की लडाई से जीत को कांग्रेस के हाथों छीन लाए।
इस जीत में मोदी की आक्रामकता के साथ साथ उनका अतिविश्वास का भी तगडा योगदान है। विपक्ष तो विपक्ष अपनी ही पार्टी में विरोधियों से घिरे होने के बाद मोदी ने जो जुजारूपन दिखाया वह काबिले तारीफ है। अब मोदी की जीत का यह पैटर्न भाजपा के साथ साथ कांग्रेस के लिए भी कई राज्यों में आदर्श होगा।
हो सकता है राजस्थान के असंतुष्ट भी अब दुबक कर वसुंधरा के पाले में बैठ जाएं। केशुभाई पटेल और कांशीराम राणा हश्र जो हुआ है वो देख ही चुके हैं।
वैसे हम माने या न मानें इस देश में व्यक्तिगत राजनीति का दौर फिलहाल नहीं है। भाजपा से बाहर होने के बाद हमने कल्याण सिंह का हश्र देखा थ और अब उमा भारती का देख रहे हैं। हमें मान लेना चाहिए कि एक अरब के इस देश में पार्टी या विचारधारा ही चुनाव जिता सकती है। राहुल गांधी का कैंपन कांग्रेस के लिए कोई खास लाभकारी रहा हो ऐसा मुझे नहीं लगता। न तो गुजरात में ही और न ही इससे पहले उत्तर प्रदेश में दोनों ही जगह कांग्रेस नेताओं ने गांधी परिवार की इज्जत बचाने के लिए यही कहा कि पार्टी को सीटें भले न मिलीं हों, लेकिन वोटिंग परसेंट जरूर बढा है। एक और बात मोदी केंद्रीय राजनीति में आएं ऐसा भी दिखाई नहीं देता। ये सब पॉलिटिकल स्टंट हैं, जब तक आडवाणी जिंदा है, मोदी केंद्रीय राजनीति में न आएंगे न आने दिए जाएंगे।
बस यह हमें मानना होगा कि भाजपा को एक जनाधार वाला नेता मिला है, जिसकी अपनी ब्रांड इमेज है, तोगडिया या विहिप के लोग जो बरसों पहले उग्र कैंपन करते थे, यह काम अब देश भर में मोदी करेंगे। भाजपा उनकी इस छवि का फायदा उठाने से कहीं कम नहीं रहने वालीं।
Friday, December 21, 2007
एकदम परफेक्ट है ‘तारे जमीन पर’
मैंने पहली बार ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ देखा। ‘तारे जमीन पर’ फिल्म की कहानी ने मुझे पहले दिन से ही सम्मोहित कर रखा था। जिंदगी में पहली बार किसी फिल्म को फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने की इच्छा थी, जिसे मेरे दोस्तों ने पूरी करवा दी। शुक्रवार को बारह से 3 के शो में मैंने यह फिल्म देखी।
यूं तो आमिर मेरे सबसे पसंदीदा सितारे हैं पर यह फिल्म इतनी संवेदनशील और परफैक्ट है कि आप भी आमिर के फैन हुए बिना नहीं रहेंगे। पूरी फिल्म केंद्रित है, ईशान अवस्थी नाम के आठ साल के बच्चे के ईर्द गिर्द। बच्चा डिसलेक्सिया नाम की एक बीमारी से पीडित है।
अमोल गुप्ते की इस कहानी में बच्चे को कुछ अक्षर पहचानने में परेशानी आती है और वे उसे उल्टे या फिर तैरते हुए नजर आते हैं। घर वाले उसे शैतान या पढाई से जी चुराने का बाहना मारकर बोर्डिंग स्कूल में डालने का प्लान बनाते हैं और बच्चे को मुंबई से पंचगनी की न्यू ईरा डे बोर्डिंग स्कूल में शिफ़ट कर दिया जाता है। घर से दूर जाने और उसकी चित्र बनाकर अपनी मां को डायरी बनाकर भेजने वाले सीन्स को आमिर ने पूरी संवेदनशीलता के साथ फिल्माया है।
यूं समझिए कि अगर आप इत्मीनान से फिल्म देख रहे हैं तो आपकी आंखें नम होना निश्चित है। जिन मांओं के बटे अपन की तरह बाहर रहते हैं वे तो हो सकता है दहाडे मारकर रोना शुरू कर दें। ये बात अलग है कि आमिर ने मुझे भी कई बार चश्मा हटाने को मजबूर कर दिया।
इंटरवेल से दो मिनट पहले ही प्रकट हुए आमिर
काबिले गौर बात यह है कि निर्माता निर्देशक होने के बावजूद देश के दूसरे सबसे बडे बिकाऊ सितारे ने अपनी एंटरी इतनी देर से कराई। लेकिन फिल्म का संपादन इतना चुस्त दुरुस्त था कि खचाखच भरे हॉल में से मैंने किसी को गाने तक में बाहर जाते हुए नहीं देखा। (जो आजकल अमूमन होता नहीं है, हो भी जाए पर ये कमबख्त मोबाइल बज जाता है।) हालत यह थी कि आमिर की एंटी पर तो लोगों ने सिनेमा हॉल में ही जमकर ताली बजाई।
मान गए भाई आमिर
आमिर रामशंकर निकुंभ नाम रखकर टीचर की भूमिका में इस फिल्म में एकदम बिंदास, हंसमुख नजर और जवान नजर आए। एक नई नवेली हिरोइन एक दो सीन में नजर आईं, लेकिन लव स्टोरी जैसी कोई चीज नदारद थी। एक बात और जो मेरी नजर से बच नहीं पाई आमिर ने अपने चाइल्ड आर्टिस्ट दरशील सैफरी को पूरा सम्मान दिया। फिल्म की नंबरिंग में आमिर से पहले ईशान यानी दरशील का नाम था।
डायलॉग गजब के
आमिर ने अपनी पूरी टीम से गजब का काम कराया। आज की भागदौड की जिंदगी में बच्चों के सिर पर पढाई के बोझ को उन्होंने आसानी से बयां किया।
प्यार वो होता है जिसमें बच्चा आपकी बाहों में आकर सुकून ले
पता नहीं ये सोलोमन द्वीप की कहानी (सोलोमन द्वीप में आदिवासी पेड काटते नहीं है, बल्कि सब मिलकर पेड के आसपास आकर गालियां सुनाते है और कुछ दिन में पेड सूख जाता है) ठीक थी या नहीं पर फिल्म में डायलॉग इतना प्रभावी है कि मिनटों तक तालियां बजती रहती है।
कुल मिलाकर कहें तो मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान की यह एकदम परफैक्ट मूवी है, जिसमें बॉलीवुड के किसी भी फंडे का इस्तेमाल किए बिना इतनी सुंदर, संवेदनशील और साफ सुथरी फिल्म बनाई। संगीत शंकर अहसान लॉय का है और गीत प्रसून जोशी ने लिखे हैं। गानों के बोल बहुत सुंदर है। अगर रात को अकेले में आप ये गीत अकेले में सुनें तो बचपन की याद जरूर सताएगी। बच्चों को तो यह फिल्म बेहद पसंद आएगी।
Tuesday, December 18, 2007
बुक फेयर है या सब्जी की दुकान
गाली देने का मन नहीं था। पर आज ही बुक फेयर जाकर आया। किताबें तो एक आध ही खरीदी क्यूंकि अभी थोडे दिन पहले ही लगे एक बुक फेयर से इस साल के बजट की किताबें खरीद चुका था। अब ये ब्लॉगिंग का ऐसा चस्का लगा है कि वो भी पढी नहीं जा रहीं।
इस बार गौर किया तो बुक फेयर में कुछ अलग सा सीन देखा, चुनींदा प्रकाशक ही आए थे। यहां तक तो ठीक था पर लोगों की भीड भी सिर्फ वहीं थी।
जहां लिखा था किताबे इतनी सस्ती की आप भी अचंभा कर जाएं। लूट सको तो लूट।
आक्सफोर्ड की 350 रुपए वाली डिक्शनरी सिर्फ 100 रुपए में। 25 रुपए ईच या सेल ओनली 50 रुपए ईच। थ्री इन 50 रुपए ओनली।
पूरे दिन में सोचता रहा कि लोग पसंद की किताब खरीदने जाते हैं या भाजी की तरह रेट देखकर किताबें छांटते हैं। दिल्ली में दरियागंज में लगने वाले संडे बाजार में खूब घूमा, वहां से छांटकर काम की किताब भी दो पांच बार लाया। पर इस तरह खरीददारी का अनुभव कम से कम मुझे तो नहीं था।
मैं सोचता रहा कि अगर किताब का लेखक इस तरह किताबों की बेइज्जती देखे तो शायद लिखना बंद कर दे।
अपन का तो दुबारा जाने का मन नहीं है, पर आप चाहें तो 23 दिसंबर तक अंबेडकर सर्किल पर जाकर नजारा खुद देख सकते हैं।
Monday, December 17, 2007
.... मैं अपना हिस्सा लेकर जा रहा हूं
भारतीय रेल को लगता है अपना स्लोगन बदलना पडेगा, क्यूंकि ‘भारतीय रेल आपकी संपत्ति है इसे सुरक्षित रखें’ के इस ध्येय वाक्य को लोगों ने कुछ ज्यादा ही अपना समझ लिया है। अभी 13 और 14 दिसंबर को ग्वालियर जाना हुआ। आते जाते दोनों समय का सफर जयपुर-ग्वालियर इंटरसिटी में काटा।
जयपुर लौटते समय डी 7 के नई स्टाइल के डब्बे में बैठने का सुख मिला। पर ये क्या, मैं टायलेट गया तो देखा कि लोग टायलेट की विंडो, टोंटी और कांच उतारकर ले गए। लगता है रेलवे के इस ध्येय वाक्य की लोगों ने दिल से इज्जत की और प्रॉपर्टी से अपना हिस्सा लेकर चले गए।
मुझसे रहा न गया मैंने टीसी से पूछा कि यह नया डिब्बा कितने दिन पहले लगाया है। बोले 10 से 12 दिन हुए है। मैंने कहा कि लोगों को सुंदरता पसंद नहीं है, टोंटी और शीशा तक खोल कर रह गए। उन्होंने कहा हां भाई भारत है, किराया दिया होगा तो ले गए वापस।
अब पता नहीं अपन भारतवासी कब सुधरेंगे। ज्ञानदत्तजी कुछ और किस्से सुना सकते हैं रेलवे के।
Wednesday, December 12, 2007
क्यूं बदनाम करते हो गुजरात को
खबर देना मीडिया का काम है और गुजरात चुनाव भी उसी जिम्मेदारी का हिस्सा है। लेकिन इस बार गुजरात चुनाव के दौरान मोदी और भाजपा विरोधी पत्रकार लॉबी इस तरह मोदी के पीछे लग गई है कि पूरा गुजरात बदनाम हो रहा है।
दिल्ली में बैठकर तथाकथित नेशनल मीडिया अपनी विचारधारा के हिसाब से मोदी पर पिल पडा है और इसी चक्कर में रोज और हर रोग गुजरात के जख्म हरे हो जाते हैं। लोग शायद भूल गए हों पर मीडिया को याद रखना चाहिए कि गोधरा के बाद यह दूसरे विधानसभा चुनाव हैं। जिस तरह पॉलिटिकल पार्टी के नेता गुजरात या भाजपा का जिक्र आते ही गोधरा का नाम लेने लगते हैं, वैसा ही काम आजकल भाजपा विरोधी लॉबी वाले पत्रकारों ने संभाल रखा है। अरे भाई कम से कम जनादेश का तो सम्मान करो जनता ने चुनकर मोदी को मुख्यमंत्री बनाया है, वो कोई तानाशाह तो नहीं है, जो पिल पडे उसके पीछे। जनता है जब उसे ही तय करना है तो वोट पड रहे हैं फैसला हो जाएगा कि जनता किसको चाहती है, आप जबरन अपनी फिलोसोफी क्यूं छोंक रहे हैं।
कुछ पत्रकार, चैनल और मीडिया ग्रुप तो मोदी के पीछे इस तरह पडे हैं, जैसे गोधरा और उसके बाद हुए नरसंहार के लिए अकेले मोदी ही दोषी थे। (अगर आप उनकी दिल की तसल्ली के लिए मान भी लें तो) जनाब हर आदमी के पास दिमाग होता है उसे पता है कि क्या अच्छा है क्या बुरा है, हर आदमी के अपने सिदधांत हैं उसकी नैतिकता है। अगर आम आदमी चाहता तो सौहार्दता पूर्ण रह सकता था, दंगे भडके ही क्यूं।
अब जो भी हो गोधरा के बाद गुजरात में मोदी की दूसरी टर्म में मुझे याद नहीं कोई बडा दंगा या ऐसी घटना हुई हो जिससे साम्प्रदायिक सौहार्द बिगडा हो। बिलकिस या एक आध मामले छोड दें तो गुजरात से बलात्कार की घटनाएं यूं रोजमर्रा की तरह तो सामने नहीं आतीं।
गुजरात में जिस तरह लडकियां देर रात तक शहर में अकेले घूम सकती हैं ऐसा प्रदेश दूसरा कौनसा है, जरा बता दीजिए।
विकास और इंडस्टरी के मामले में गुजरात से टक्कर लेने वाला राज्य कौनसा है।
रविशजी ने भी अपने अनुभवों में लिखा था कि गुजरात का आम आदमी मानता है विकास हुआ है। मेरे दो चार परिचित हैं वे भी यही मानते हैं कि चाहे जो हुआ हो लेकिन अब गुजरात में विकास दिखता है। मैं भी पिछले साल फरवरी में दमन द्वीव घूमने गया और एक तरफ के सफर का काफी हिस्सा तो एसटीए की बस में तय किया। उस दौरान लोगों से बात की, सडके देखी, माहौल देखा। बिंदास खर्चीले मस्तमौला लोग देखे उन्हें देखकर नहीं लगता कि यहां कभी उस तरह का माहौल रहा होगा।
भुज का भूकंप, सुनामी के दिन या सूरत का प्लेग हर मामले में विपदा झेलने के बाद गुजरात हर बार पहले से सुंदर और शक्तिशाली होकर उभरा है।
अपने पॉलिटिकल प्रॉफिट या पॉलिटिकल फ़यूचर के लिए राजनेताओं ने और उसके समर्थक मीडिया वालों ने गुजरात को इतना बदमान कर दिया, कि बापू के पैदा होने से गुजरात जितना सम्मानित हुआ था उससे भी यह पाप अब बैलेंस नहीं होता।
मुश्किल से बनी है चाय, आप पिएंगे क्या
साढे बारह बजे थे फोन बजा तो नींद खुली, मित्र ने फरमाया गेट पर खडा हूं अंदर कैसे आऊं। दरवाजा खोला और उसे नीचे से ऊपर तक लाया।
जनाब दिल्ली में पडोस में ही रहते थे तो आवभगत में कमी नहीं छोडना चाहता था। पर इससे पहले की मैं पूछता उन्होंने ही कह दिया, यार दूध का इंतजाम हो तो चाय पी लें, मौसम में थोडी ठंडक है।
किचन में देखा तो रात वाला दूध तो अपन के भाई लोगों ने सुबह ही खत्म कर दिया।
सोचा बाजार से ले आऊं। पर ये क्या आजू बाजू की तीनों डेरियां बंद हैं, लगता है जयपुर में डेयरी वाले आफटरनून सिएस्टा का शिकार हो गए हैं।( एक खुली थी पर जनाब आधी शटर गिराकर सामने की बैंक में रुपए जमा कराने गए थे) इन सरस डेरी वालों को गरियाते हुए घर आ ही रहा था कि एक बुकसेलर की दुकान पर बोर्ड देखा “यहां अमूल का दूध मिलता है।“
शायद कल ही लगा था यह बोर्ड, क्यूंकि जयपुर में अमूल का दूध हाल में ही मिलना शुरू हुआ है।
यह बोर्ड देख मैं इतना खुश हुआ जितना तो माउंट एवरेस्ट पर चढकर एडमंड हिलेरी भी नहीं हुए होंगे। खुशी खुशी घर पहुंचा गैस पर पानी रखा चाय पत्ती डालने के बाद चीनी का डिब्बा खोला तो पता चला चीनी नदारद है। लगा जैसे किसी ने माउंट एवरेस्ट से धक्का मार दिया।
क्या करता मित्र ने तुरंत बोल दिया यार रहने दो अब फिर क्यूं जाओगे बाजार, चाय तो थडी पर ही पी जा सकती है, मैं भी चलता हूं।
लेकिन मैंने भी सोच लिया जब एडमंड हिलेरी एवरेस्ट पर चढ सकते हैं तो मैं दोस्त को चाय क्यूं नहीं पिला सकता। गैस चलती छोड एक पर दूध और दूसरी पर चाय पत्ती, पानी और दूध डालकर चीनी लेने चला गया।
टाइम बचाने के लिए सुभिक्षा की जगह पास की दुकान पर पहुंच गया। भीड लगी थी, पर जुगाड भिडाकर 17 रुपए किलो वाली चीनी 17.50 रुपए किलो ली और घर आ गया। घर पहुंचा तो पता चला चाय की पत्ती और दूध का काडा बन चुका है और दूध आधे से ज्यादा भगोनी से बाहर है।
खैर हिलेरी का नाम लेकर हिम्मत नहीं हारी और चाय बनाकर ही दम लिया।
वाह री अपन की जिंदगी, सोचा साला थडी पर चला जाता तो ठीक था। इतनी नौटंकी तो नहीं होती।
अब अपनी व्यथा आपको बताई, बस शादी करने की सलाह को छोडकर कोई और तरीका हो तो बताइयेगा। क्यूंकि ये इलाज तो लोगों ने मेरी पहली बार कविता पढकर ही बता दिया।
(आपका टाइम खोटी किया इसके लिए क्षमा प्रार्थी)
Saturday, December 8, 2007
अपन को उल्लू समझा क्या
समझदारों को ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं है।
बस इतना समझ लीजिए की यह चित्र मुंबई के लोगों के लिए डीएनए के फोटो जर्नलिस्ट मुकेश त्रिवेदी ने मुंबई में खींचा और जयपुर के सिटी भास्कर के लिए यही फोटो जेएलएनमार्ग जयपुर का हो गया। अब खींचा किसने ये अपन को पता नहीं। डीएनएन के मुंबई संस्करण में यह चित्र 4 दिसंबर को पेज एक की लीड न्यूज में लगा वहीं सिटी भास्कर जयपुर में 5 दिसंबर को अंतिम पेज पर जेएलएन मार्ग का बताया गया।
लगता है ये मंगलवार 3 दिसंबर 2007 की सुबह मुंबई में थे और बुधवार 4 दिसंबर 2007 को जेएलएन मार्ग जयपुर में ।
तभी तो कह रहे हैं चिल्स इल्स और पिल्स
( सभी पत्रकार मित्रों से क्षमा सहित, भई क्या करुं कमबख्त इधर उधर झांकने की आदत है सहन नहीं होता। एक सलाह - कम से कम किसी अखबार की पेज एक की लीड फोटो तो मत उडाया करो, ध्यान पड ही जाता है)
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