Saturday, December 29, 2007

बस कटटरपंथियों से खुद को बचाएं हनुमानजी


हनुमानजी फिर पृथ्‍वी पर आए हैं। बस खुद को कटटरपंथियों से बचाएं। दो दिन से तो सब ठीक ठाक है। बस कहीं किसी की नजर न लग जाए।
अपन ने रिलीज के दो दिन बाद अनुराग कश्‍यप की हनुमान की सिक्‍वेल हनुमान रिर्टन्‍स रविवार सुबह 10 से 12 के शो में राजमंदिर में देखी।
फिल्‍म गजब की है। हालांकि हमेशा की तरह फिल्‍म के डायरेक्‍टर साहब ने पहले ही लिख दिया की सबकुछ काल्‍पनिक है, लेकिन इन कटटरपंथियों से भगवान बचाए पता नहीं क्‍या बुरा लग जाए।
फिल्‍म की कहानी के अनुसार हनुमानजी पृथ्‍वी पर जन्‍म लेने की इच्‍छा रखते हैं। और वे बजरंगपुरी में एक पंडितजी के परिवार में मानव रूप में जन्‍म लेते हैं। जन्‍म के तीन महीने बाद ही स्‍कूल पढने चले जाते हैं, कृष्‍ण की तर्ज पर पूरे गांव का खाना खा जाते हैं। तंग होकर गांव वाले उन्‍हें परिवार सहित गांव से बाहर निकाल देते हैं। उधर, स्‍कूल में मारुति यानी अपन के हनुमानजी की शरारत जबरदस्‍त होती है, अपने दोस्‍त दीपू को कई बार बचाते हैं। गांव के गब्‍बरनुमा डाकू को अपनी वानरसेना के साथ मिलकर पीटते हैं।
फिल्‍म में हर सीन में नयापन है, कहीं की ईंट कहीं का रोडा खूब फिट किया है। गौर से देखें तो कार्टून करेक्‍टर में जय वीरु, अपन के शाहरुख जैसी आवाज और अदा, सलमान की तरह बंदर का बनियान और शर्ट खोलकर फेंकना, बच्‍चों के साथ साथ बडों को भी गुदगुदाता है।
भले ही स्‍वर्ग में चित्रगुप्‍त लैपटॉप पर पूरी दुनिया का डेटा रखते हों या खाली समय में मेनका डॉट कॉम देख रहे हों।
या जगत शिरोमणी ब्रहमाजी एलसीडी पर पृथ्‍वी का हाल दिखाते हैं। मुनि नारद कान लगाकर मेनका और विष्‍णु की बातचीत सुन रहे हैं।
हनुमान को अपना कान्‍टेक्‍ट याद दिलाने के लिए नारद का चार्टर प्‍लेन से पृथ्‍वी पर पहुंचना और मुसिबत में वीणा को गिटार बताकर ओम शांति ओउम गाना दर्शकों को गुदगुदाता है, पर बस किसी को बुरा न लग जाए। अपन तो यही प्रार्थना करते हैं।
बच्‍चे मजा तो तब लेते है जब राहू केतू से युदध के समय एक बंदर की पिस्‍तौल में एक गोली बचती है और सामने दो राक्षस होते हैं, अपने बंदरजी आगे चाकू लगाकर फायर करते हैं, एक गोली के दो टुकडे हो जाते हैं और डिच्‍काऊ। दोनों खल्‍लास।
बस फिल्‍म देखते समय दिमाग को साइड में रखकर बच्‍चे बनकर एंजाय करेंगे तो लगेगा कि आपने फिल्‍म देखकर कोई गलती नहीं की।
कुल मिलाकर पूरी फिल्‍म में एनिमेशन में स्‍पीड है, करैक्‍टरर्स की आवाज अच्‍छी हैं। कुछ की शैली कई पुराने हीरो मसलन संजीव कुमार, अमजद अली खान, जगदीप, राजकुमार और शाहरुख तक से मिलती जुलती है। एनिमेशन में स्‍टैच्‍यू ऑफ लिबर्टी से लेकर सौर मंडल तक के दर्शन हो जाएंगे।
कुल मिलाकर फिल्‍म कहीं भी अपने पहले पार्ट जो 2005 में आया से कम नहीं है। आपने अगर हनुमान नहीं भी देखी तो आप कुछ भी मिस नहीं करते। दिलेर और अदनान की आवाज में गाने अच्‍छे हैं। बाहर निकलते निकलते आप भी गुनगुनाते मिलेंगे। फिल्‍म की अंग्रेजी यानी कि डायलॉग के बीच अंग्रेजी जहां ठूंसी गई हैं मजा आता है।

बच के रहना इन रेडियो टैक्सियों से


बेमतलब की सलाह है। पर क्‍या करुं पूरा दिन और पैसे की बर्बादी की बाद सबक मिला है। सोचा आप से शेयर कर लूं, दुख हल्‍का हो जाएगा। इसलिए लिख रहा हूं। सीधे मुददे पर सर्दियों की छुटटी मनाने के लिए इनदिनों अपन की बुआ, भैया भाभी और बहन सब अपने ही साथ हैं। आफिस से छुटटी नहीं मिल रही लेकिन फिर भी सबको घुमाना तो जरूरी था।
सुबह जागा तब तक अपन को छोड बाकी सब लोग जाने को तैयार थे। जबरन उठाकर अपन को भी चलने के लिए कहने लगे। जयपुर के पास पदमपुरा जैन मंदिर जाना था, करीब 32 किमी है। अपन ने कहा कि बस से जाने में परेशानी होगी कोई कार हायर कर ली जाए। नेट ज्ञान काम आया तुरंत गूगल महाराज की शरण में गए और ढूंढ निकाला जयपुर में फोन पर टैक्‍सी मुहैया कराने वाले श्रीश्‍याम रेडियो टैक्‍सी का नंबर। फोन किया और बातचीत के बीस मिनट बाद टैक्‍सी दरवाजे पर। बस यहीं से शुरू हुई असली तकलीफ। गाडी में बैठते ही पता चला कि ये तो गैस से चलेगी। खैर तय हिसाब की जगह मीटर बीस रुपए पर और किमी .775 किमी। खैर थोडी दूर चले तो बुआ और उनके बच्‍चों ने फरमा दिया कि गैस की बहुत बदबू है और इसकी जगह ऑटो में चल चलेंगे। इसमें नहीं थोडी देर बाद सोने पर और सुहागा हुआ कोई वायरिंग जलने लगी। आधे रास्‍ते से पहले ही बुआ और बच्‍चों को आगे वाली सीट पर बिठाया और बाकी लोग जैसे तैसे गाडी के दोनों तरफ के शीशे खोलकर उस बदबू से मुकाबला करते हुए करीब 40 मिनट में मंदिरजी के सामने तक पहुंच गए।
उतरते समय नजर मीटर पर थी, ताकी कोई घपला न हो।
अरे ये क्‍या डिग्‍गी में रखा बैग गायब, डाइवर को पूछा तो जवाब, अपन को पूछ के रखा क्‍या आपने। आपके चक्‍कर में मेरी रिजाई भी रास्‍ते में गिर गई। अपन ने तुरंत घरवालों से पूछा कि बैग में था क्‍या, सब लेडिज पर्स और महत्‍वपूर्ण सामान तो सुरक्षित हैं न। बोले कुछ किलो पूजन सामग्री कुछ छोटे मोटे कपडे, शॉल, नाश्‍ता यही कुछ था।
तुरंत गाडीवाले के ऑफिस में फोन लगाया। वहां तीन बार फोन इधर से उधर टांसफर हुआ और मालिक साहब लाइन पर आए, अपन ने बोला कि बॉस गाडी से बैग गिर गया। कैसी खटारा गाडी है जिसकी डिग्‍गी तक ठीक नहीं है।
साहब तो अपन पर ही चढ गए, बोले डाइवर तो कह रहा है कि सामान उससे पूछ कर नहीं रखा। और फिर वे बोले हो जाता है साहब कई बार स्‍पीड ब्रेकर पर खुल जाती है डिग्‍गी, अब कोई बात नहीं, जाने दो। अपन ने चार भाषण मारे और दिमाग खराब होने के बाद फोन रख दिया।
सारी पूजन सामग्री बैग में ही थी सो पूजन सामग्री फिर वहीं दुकान से खरीदी और मंदिर में चले गए।
लौटकर गाडी में बैठे तो अरे ये क्‍या मीटर तो पहले से पचास रुपए से भी ज्‍यादा आगे से शुरु हो रहा है। अपन ने बोला भाई ये क्‍या लूटमार है। डाइवर साहब बोले ये तो वेटिंग चार्ज है, अपन से रहा नहीं गया। मैंने कहा गजब है भाई आदमी गाडी कहीं लेकर जाएगा तो थोडी देर तो रुकेगा ही न। गाडी किमी सिस्‍टम पर है, इसका मतलब क्‍या इसे दौडाते ही रहें।
अपन ने फिर उसके मालिक को फोन लगाया, वे फरमाए कि ये तो पूरे जयपुर को पता है कि हम ये चार्ज करते हैं। मैंने कहा कि मेरी जब आपसे बात हुई तो आप सिर्फ इतना बोले कि पहले किमी के 20 रुपए और बाद में 8 रुपए किमी। बाकी तो बताया भी नहीं था, ज‍बकि मैंने पहले ही कह दिया था कि करीब 45 मिनट रुकेंगे।
वे बोले ये तो देना ही होगा, मैंने कहा अगर गाडी जाम में फंसती या रेलवे क्रासिंग पर अटकती तो क्‍या होता। बोले हां हां पैसे तो देने ही होंगे।
बस अपन से रहा नहीं गया, दो चार गरमागरम सुनाकर मैंने बोला कानून ज्‍यादा मत सिखा वर्ना मुझे गुस्‍सा आ जाएगा। इसके बाद अपन वहां बिल्‍कुल नहीं रुके और मैंने कहा कि बस चल अब बाकी जगह तेरी गाडी से नहीं जाएंगे। तू तो बस जयपुर पहुंचकर छोड दे हमें, वहां से आगे घूमने के लिए दूसरी गाडी कर लेंगे।

बस लौटते समय अपनी नजर पूरे रास्‍ते भर हर गाडी की डिग्‍गी पर ही रही। खैर करीब 22 किमी के सफर में अपन को ये राजस्‍थान रोडवेज की बस नजर आ ही गई, जो जनता का सामान इस खुली डिग्‍गी में भी ढोह रही थी।

सांगानेर में सांघीजी के मंदिर पहुंचकर हमने गाडी छोड दी। और अब शुरू हुई असल कहानी।
अपन ने कह दिया कि अब मैं फोन नहीं करुंगा, बात कर अपने मालिक को और बोल दे कि बैग और उसके सामान के पैसे दे तब ही गाडी का किराया मिलेगा।
बडी बहस के बाद डाइवर ने रेडियो सिस्‍टम से फोन करके अपने मोबाइल पर सेठजी से फोन कराया। अब वो साहब मानने को ही तैयार नहीं कि गाडी से सामान गिरा है।
बात बढती देख आसपास के लोग आ गए। कोई अपन को डाइवर को पीटने की सलाह दे और कोई पुलिस में जाने की। खैर मैंने उसके मालिक से कहा कि जो सैटलमेंट करना है करे, और अपन के दिन की बर्बादी बचाए।
अब वो साहब फरमाए कि अगर गाडी में गैस की बदबू आ रही थी तो बैठे ही क्‍यूं। आप तो अब बहानेबाजी कर रहे हैं। सामान भी पता नहीं रखा या नहीं।
अब दो ही विकल्‍प थे या तो मामला पुलिस में ले जाएं या पैसे देकर काम खत्‍म और जिंदगी का पक्‍का सबक।
खैर वह टोटल बिल से 50 रुपए कम करने को तैयार हो गया। अपन ने उसे आधे रास्‍ते से ही विदा किया और आगे से रेडियो टैक्‍सी से तौबा कर ली।

Monday, December 24, 2007

अपन के मोदी कुंवारे या शादीशुदा


गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी अविवाहित हैं या उनकी शादी हो चुकी है। अपन इस पचडे में नहीं पडना चाहते, असलियत या तो मोदी जानें या भगवान। बस अपन ने तो कल एक पोस्‍ट 'मोदी की जीत का पोस्‍टमार्टम' में एक जगह जिक्र कर दिया था कि मोदी का अविवाहित होना भी उनके पॉलीटिकल करियर में लाभदायक रहा। क्‍यूंकि भारत में आम मान्‍यता है कि कुंवारे आदमी के लिए सोचा जाता है कि जिसका परिवार ही नहीं है वह जनता सरकार के पैसे को क्‍यूं खाएगा।
लेकिन अपने आवारा बंजारा वाले संजीत भाई को मोदी के अविवाहित लिखने पर आपत्ति थी। अपन ने तुंरत यह जानकारी पोस्‍ट से हटा ली। अब दिनभर अपन ने खोजबीन की तो यह जानकारी सामने आई कि एक महिला जसोदाबेन मोदी ने नरेंद्र भाई मोदी की पत्‍नी होने का दावा किया है। वहीं नरेंद्र मोदी हमेशा खुद को अविवाहित बताते आए हैं। उनका संघ प्रचारक होना भी इस दावे को मजबूत करता है, लेकिन इस चुनाव में उनके विरोधियों ने इस मामले को उठाया और चुनाव आयोग को उनकी इस कथित पत्‍नी की जानकारी देकर गलत जानकारी के आरोप में नामंकन पत्र खारिज करने की मांग की है।
उस महिला का वीडियो यू टयूब पर भी उपलब्‍ध है। वीडियो में रजोसाना प्राइमरी स्‍कूल भी दिखाई है जिसमें वे पढाती हैं। इस वीडियो में उनके भाई अशोक भी दिखाए गए हैं।


यह महिला मोदी के पुराने फोटो भी दिखाती हैं, इसके अलावा उनके पास मोदी की दी हुई संघर्ष मा गुजरात किताब भी रखी है। जसोदाबेन के अनुसार उनकी शादी 1968 में हुई। मोदी तीन साल तक उनके साथ रहे और एक दिन अचानक उन्‍हें छोडकर चले गए।

बीबीसी की वेबसाइट पर मोदी की प्रोफाइल में एक महिला के उनकी पत्‍नी होने के दावे वाली बात कही गई है, लेकिन उन्‍होंने भी यही कहकर कि मोदी की ऑफिशियल प्रोफाइल में पत्‍नी का जिक्र नहीं है। पल्‍ला झाल लिया है।
विकीपीडिया पर शादी के मामले में कोई जानकारी नही है। वहीं डीएनए में आठ दिसंबर को संजय सिंह की एक खबर ने स्‍थानीय भाजपा नेताओं के हवाले से लिखा था कि यह बाल विवाह का मामला था और मोदी ने उनसे तलाक नहीं लिया लेकिन वे कभी उस महिला के साथ रहे भी नहीं। वैसे गुजरात के अखबारों में ये खबरें बीच बीच में छपती आई हैं।
वैसे एक बात की इस वीडियो और इस तरह की खबरों का टाइमिंग चुनाव के आसपास का ही क्‍यूं चुना गया। इतने वर्षों से यह महिला चुप क्‍यूं थी। इस पर महिला ने तो यही कहा कि उन्‍होंने नरेंद्र भाई से कई बार मिलने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। पर आप क्‍या कहेंगे।

किसी को इससे जानकारी उपलब्‍ध हो तुरंत सूचित करे

मोदी की जीत का पोस्‍टमार्टम


गुजरात में मोदी की हर मायने में दूसरे चुनावों में दूसरे नेताओं की जीत से अलग है। मीडिया से लेकर विरोधी तक मोदी के पीछे पडा था और विकास या दूसरे मुददों को छोड लोग अब तक गोधरा का मामला उठाए जा रहे थे। इस जीत के पीछे क्‍या कारण रहे यह जानते है।

मोदी का निश्‍कलंक जीवन
मोदी का व्‍यक्तिगत जीवन बेदाग रहा है और उनका पॉलिटिकल करियर भी साफ सुथरा है। इसने भी मोदी को तीसरी बाद मुख्‍यमंत्री बनवाने में अहम भूमिका निभाई है।

गुजरात का गौरव
साढे पांच करोड गुजरातियों की अस्मिता की बात करने वाले मोदी का यह स्‍टाइल भी गुजरात में खासा लोकप्रिय है। मोदी जब गुजरात गौरव और वाइब्रेंट गुजरात की बात करते हैं तो उनके विरोधी भी भाग खडे होते हैं।

विकास का मुददा
गुजरात में विकास की बात को हर आदमी स्‍वीकरा करता है। यह बात भी मोदी के खाते में गई है। निवेशक गुजरात में पैसा लगाने को तैयार हैं। आंकडे इसकी पुष्टि करते हैं। भले ही किसी ने कितनी भी बुराई क्‍यूं न कर ली हो। विकास गुजरात में दिखाई देने लगता है। ज्‍यादातर लोगों की बिजली, पानी और सडक जैसी समस्‍याएं अब खत्‍म हो गईं।

कामकाज में ईमानदारी
गुजरात में विपदाओं के समय विशेषकर सुनामी और भूकंप के समय किए गए कार्यों और उनके टिकाऊपन ने भी भाजपा में लोगों का विश्‍वास बनाए रखा। मोदी के काल में प्रशासनिक स्‍तर पर भी चुस्‍ती का फायदा उन्‍हें मिला है।

टिकट बंटवारा
गुजरात के पूरे चुनावों में केंद्रीय नेतृत्‍व में सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी पर दांव खेला वहां न तो उनकी मंजूरी के बिना किसी और को गुजरात मे प्रचार करने भेजा गया न ही, किसी और नेता ने कोई बयान दिया। टिकट वितरण में पूरी तरह मोदी की चली और उन्‍होंने कई वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए। हालाकि उनमें से कुछ पटेल लॉबी और केशुभाई समर्थकों ने निर्दलीय या कुछ ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडे पर मोदी के आगे उनकी पेश नहीं खाई।

और सबसे बडी बात एंटी इनकंबैंसी फैक्‍टर को मोदी ने अंगूठा दिखा दिया उन्‍होंने बता दिया कि विकास में हिन्‍दुत्‍व का तडका लगाकर कैसे विजेता बना जाता है।
(गुजरात पर इसी महीने में यह तीसरी पोस्‍ट है, इसे अन्‍यथा न लें सुझावों से जरूर अवगत कराएं। बुरे को बुरा और अच्‍छे को अच्‍छा लिखें ताकी आपको कचरा पढने से मुक्ति मिले - राजीव )
मोदी के तारे आसमान में क्‍यूं बदनाम करते हो गुजरात को

Sunday, December 23, 2007

मोदी के तारे आसमान में


सोनिया का गुजरात कैंपन में मौत का सौदागर बोलना मोदी की जीत का टर्निंग प्‍वाइंट रहा और मोदी कांटे की लडाई से जीत को कांग्रेस के हाथों छीन लाए।
इस जीत में मोदी की आक्रामकता के साथ साथ उनका अतिविश्‍वास का भी तगडा योगदान है। विपक्ष तो विपक्ष अपनी ही पार्टी में विरोधियों से घिरे होने के बाद मोदी ने जो जुजारूपन दिखाया वह काबिले तारीफ है। अब मोदी की जीत का यह पैटर्न भाजपा के साथ साथ कांग्रेस के लिए भी कई राज्‍यों में आदर्श होगा।
हो सकता है राजस्‍थान के असंतुष्‍ट भी अब दुबक कर वसुंधरा के पाले में बैठ जाएं। केशुभाई पटेल और कांशीराम राणा हश्र जो हुआ है वो देख ही चुके हैं।
वैसे हम माने या न मानें इस देश में व्‍यक्तिगत राजनीति का दौर फिलहाल नहीं है। भाजपा से बाहर होने के बाद हमने कल्‍याण सिंह का हश्र देखा थ और अब उमा भारती का देख रहे हैं। हमें मान लेना चाहिए कि एक अरब के इस देश में पार्टी या विचारधारा ही चुनाव जिता सकती है। राहुल गांधी का कैंपन कांग्रेस के लिए कोई खास लाभकारी रहा हो ऐसा मुझे नहीं लगता। न तो गुजरात में ही और न ही इससे पहले उत्‍तर प्रदेश में दोनों ही जगह कांग्रेस नेताओं ने गांधी परिवार की इज्‍जत बचाने के लिए यही कहा कि पार्टी को सीटें भले न मिलीं हों, लेकिन वोटिंग परसेंट जरूर बढा है। एक और बात मोदी केंद्रीय राजनीति में आएं ऐसा भी दिखाई नहीं देता। ये सब पॉलिटिकल स्‍टंट हैं, जब तक आडवाणी जिंदा है, मोदी केंद्रीय राजनीति में न आएंगे न आने दिए जाएंगे।
बस यह हमें मानना होगा कि भाजपा को एक जनाधार वाला नेता मिला है, जिसकी अपनी ब्रांड इमेज है, तोगडिया या विहिप के लोग जो बरसों पहले उग्र कैंपन करते थे, यह काम अब देश भर में मोदी करेंगे। भाजपा उनकी इस छवि का फायदा उठाने से कहीं कम नहीं रहने वालीं।

Friday, December 21, 2007

एकदम परफेक्‍ट है ‘तारे जमीन पर’


मैंने पहली बार ‘फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो’ देखा। ‘तारे जमीन पर’ फिल्‍म की कहानी ने मुझे पहले दिन से ही सम्‍मोहित कर रखा था। जिंदगी में पहली बार किसी फिल्‍म को फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो देखने की इच्‍छा थी, जिसे मेरे दोस्‍तों ने पूरी करवा दी। शुक्रवार को बारह से 3 के शो में मैंने यह फिल्‍म देखी।
यूं तो आमिर मेरे सबसे पसंदीदा सितारे हैं पर यह फिल्‍म इतनी संवेदनशील और परफैक्‍ट है कि आप भी आमिर के फैन हुए बिना नहीं रहेंगे। पूरी फिल्‍म केंद्रित है, ईशान अवस्‍थी नाम के आठ साल के बच्‍चे के ईर्द गिर्द। बच्‍चा डिसलेक्सिया नाम की एक बीमारी से पीडित है।
अमोल गुप्‍ते की इस कहानी में बच्‍चे को कुछ अक्षर पहचानने में परेशानी आती है और वे उसे उल्‍टे या फिर तैरते हुए नजर आते हैं। घर वाले उसे शैतान या पढाई से जी चुराने का बाहना मारकर बोर्डिंग स्‍कूल में डालने का प्‍लान बनाते हैं और बच्‍चे को मुंबई से पंचगनी की न्‍यू ईरा डे बोर्डिंग स्‍कूल में शिफ़ट कर दिया जाता है। घर से दूर जाने और उसकी चित्र बनाकर अपनी मां को डायरी बनाकर भेजने वाले सीन्‍स को आमिर ने पूरी संवेदनशीलता के साथ फिल्‍माया है।
यूं समझिए कि अगर आप इत्‍मी‍नान से फिल्‍म देख रहे हैं तो आपकी आंखें नम होना निश्चित है। जिन मांओं के बटे अपन की तरह बाहर रहते हैं वे तो हो सकता है दहाडे मारकर रोना शुरू कर दें। ये बात अलग है कि आमिर ने मुझे भी कई बार चश्‍मा हटाने को मजबूर कर दिया।

इंटरवेल से दो मिनट पहले ही प्रकट हुए आमिर
काबिले गौर बात यह है कि निर्माता निर्देशक होने के बावजूद देश के दूसरे सबसे बडे बिकाऊ सितारे ने अपनी एंटरी इतनी देर से कराई। लेकिन फिल्‍म का संपादन इतना चुस्‍त दुरुस्‍त था कि खचाखच भरे हॉल में से मैंने किसी को गाने तक में बाहर जाते हुए नहीं देखा। (जो आजकल अमूमन होता नहीं है, हो भी जाए पर ये कमबख्‍त मोबाइल बज जाता है।) हालत यह थी कि आमिर की एंटी पर तो लोगों ने सिनेमा हॉल में ही जमकर ताली बजाई।


मान गए भाई आमिर

आमिर रामशंकर निकुंभ नाम रखकर टीचर की भूमिका में इस फिल्‍म में एकदम बिंदास, हंसमुख नजर और जवान नजर आए। एक नई नवेली हिरोइन एक दो सीन में नजर आईं, लेकिन लव स्‍टोरी जैसी कोई चीज नदारद थी। एक बात और जो मेरी नजर से बच नहीं पाई आमिर ने अपने चाइल्‍ड आर्टिस्‍ट दरशील सैफरी को पूरा सम्‍मान दिया। फिल्‍म की नंबरिंग में आमिर से पहले ईशान यानी दरशील का नाम था।

डायलॉग गजब के
आमिर ने अपनी पूरी टीम से गजब का काम कराया। आज की भागदौड की जिंदगी में बच्‍चों के सिर पर पढाई के बोझ को उन्‍होंने आसानी से बयां किया।
प्‍यार वो होता है जिसमें बच्‍चा आपकी बाहों में आकर सुकून ले

पता नहीं ये सोलोमन द्वीप की कहानी (सोलोमन द्वीप में आदिवासी पेड काटते नहीं है, बल्कि सब मिलकर पेड के आसपास आकर गालियां सुनाते है और कुछ दिन में पेड सूख जाता है) ठीक थी या नहीं पर फिल्‍म में डायलॉग इतना प्रभावी है कि मिनटों तक तालियां बजती रहती है।
कुल मिलाकर कहें तो मिस्‍टर परफेक्‍शनिस्‍ट आमिर खान की यह एकदम परफैक्‍ट मूवी है, जिसमें बॉलीवुड के किसी भी फंडे का इस्‍तेमाल किए बिना इतनी सुंदर, संवेदनशील और साफ सुथरी फिल्‍म बनाई। संगीत शंकर अहसान लॉय का है और गीत प्रसून जोशी ने लिखे हैं। गानों के बोल बहुत सुंदर है। अगर रात को अकेले में आप ये गीत अकेले में सुनें तो बचपन की याद जरूर सताएगी। बच्‍चों को तो यह फिल्‍म बेहद पसंद आएगी।

Tuesday, December 18, 2007

बुक फेयर है या सब्‍जी की दुकान


गाली देने का मन नहीं था। पर आज ही बुक फेयर जाकर आया। किताबें तो एक आध ही खरीदी क्‍यूंकि अभी थोडे दिन पहले ही लगे एक बुक फेयर से इस साल के बजट की किताबें खरीद चुका था। अब ये ब्‍लॉगिंग का ऐसा चस्‍का लगा है कि वो भी पढी नहीं जा रहीं।
इस बार गौर किया तो बुक फेयर में कुछ अलग सा सीन देखा, चुनींदा प्रकाशक ही आए थे। यहां तक तो ठीक था पर लोगों की भीड भी सिर्फ वहीं थी।
जहां लिखा था किताबे इतनी सस्‍ती की आप भी अचंभा कर जाएं। लूट सको तो लूट।







आक्‍सफोर्ड की 350 रुपए वाली डिक्‍शनरी सिर्फ 100 रुपए में। 25 रुपए ईच या सेल ओनली 50 रुपए ईच। थ्री इन 50 रुपए ओनली।

पूरे दिन में सोचता रहा कि लोग पसंद की किताब खरीदने जाते हैं या भाजी की तरह रेट देखकर किताबें छांटते हैं। दिल्‍ली में दरियागंज में लगने वाले संडे बाजार में खूब घूमा, वहां से छांटकर काम की किताब भी दो पांच बार लाया। पर इस तरह खरीददारी का अनुभव कम से कम मुझे तो नहीं था।
मैं सोचता रहा कि अगर किताब का लेखक इस तरह किताबों की बेइज्‍जती देखे तो शायद लिखना बंद कर दे।
अपन का तो दुबारा जाने का मन नहीं है, पर आप चाहें तो 23 दिसंबर तक अंबेडकर सर्किल पर जाकर नजारा खुद देख सकते हैं।

Monday, December 17, 2007

.... मैं अपना हिस्‍सा लेकर जा रहा हूं


भारतीय रेल को लगता है अपना स्‍लोगन बदलना पडेगा, क्‍यूंकि ‘भारतीय रेल आपकी संपत्ति है इसे सुरक्षित रखें’ के इस ध्‍येय वाक्‍य को लोगों ने कुछ ज्‍यादा ही अपना समझ लिया है। अभी 13 और 14 दिसंबर को ग्‍वालियर जाना हुआ। आते जाते दोनों समय का सफर जयपुर-ग्‍वालियर इंटरसिटी में काटा।
जयपुर लौटते समय डी 7 के नई स्‍टाइल के डब्‍बे में बैठने का सुख मिला। पर ये क्‍या, मैं टायलेट गया तो देखा कि लोग टायलेट की विंडो, टोंटी और कांच उतारकर ले गए। लगता है रेलवे के इस ध्‍येय वाक्‍य की लोगों ने दिल से इज्‍जत की और प्रॉपर्टी से अपना हिस्‍सा लेकर चले गए।

मुझसे रहा न गया मैंने टीसी से पूछा कि यह नया डिब्‍बा कितने दिन पहले लगाया है। बोले 10 से 12 दिन हुए है। मैंने कहा कि लोगों को सुंदरता पसंद नहीं है, टोंटी और शीशा तक खोल कर रह गए। उन्‍होंने कहा हां भाई भारत है, किराया दिया होगा तो ले गए वापस।

अब पता नहीं अपन भारतवासी कब सुधरेंगे। ज्ञानदत्‍तजी कुछ और किस्‍से सुना सकते हैं रेलवे के।

Wednesday, December 12, 2007

क्‍यूं बदनाम करते हो गुजरात को


खबर देना मीडिया का काम है और गुजरात चुनाव भी उसी जिम्‍मेदारी का हिस्‍सा है। लेकिन इस बार गुजरात चुनाव के दौरान मोदी और भाजपा विरोधी पत्रकार लॉबी इस तरह मोदी के पीछे लग गई है कि पूरा गुजरात बदनाम हो रहा है।
दिल्‍ली में बैठकर तथाकथित नेशनल मीडिया अपनी विचारधारा के हिसाब से मोदी पर पिल पडा है और इसी चक्‍कर में रोज और हर रोग गुजरात के जख्‍म हरे हो जाते हैं। लोग शायद भूल गए हों पर मीडिया को याद रखना चाहिए कि गोधरा के बाद यह दूसरे विधानसभा चुनाव हैं। जिस तरह पॉलिटिकल पार्टी के नेता गुजरात या भाजपा का जिक्र आते ही गोधरा का नाम लेने लगते हैं, वैसा ही काम आजकल भाजपा विरोधी लॉबी वाले पत्रकारों ने संभाल रखा है। अरे भाई कम से कम जनादेश का तो सम्‍मान करो जनता ने चुनकर मोदी को मुख्‍यमंत्री बनाया है, वो कोई तानाशाह तो नहीं है, जो पिल पडे उसके पीछे। जनता है जब उसे ही तय करना है तो वोट पड रहे हैं फैसला हो जाएगा कि जनता किसको चाहती है, आप जबरन अपनी फिलोसोफी क्‍यूं छोंक रहे हैं।

कुछ पत्रकार, चैनल और मीडिया ग्रुप तो मोदी के पीछे इस तरह पडे हैं, जैसे गोधरा और उसके बाद हुए नरसंहार के लिए अकेले मोदी ही दोषी थे। (अगर आप उनकी दिल की तसल्‍ली के लिए मान भी लें तो) जनाब हर आदमी के पास दिमाग होता है उसे पता है कि क्‍या अच्‍छा है क्‍या बुरा है, हर आदमी के अपने सिदधांत हैं उसकी नैतिकता है। अगर आम आदमी चाहता तो सौहार्दता पूर्ण रह सकता था, दंगे भडके ही क्‍यूं।
अब जो भी हो गोधरा के बाद गुजरात में मोदी की दूसरी टर्म में मुझे याद नहीं कोई बडा दंगा या ऐसी घटना हुई हो जिससे साम्‍प्रदायिक सौहार्द बिगडा हो। बिलकिस या एक आध मामले छोड दें तो गुजरात से बलात्‍कार की घटनाएं यूं रोजमर्रा की तरह तो सामने नहीं आतीं।
गुजरात में जिस तरह लडकियां देर रात तक शहर में अकेले घूम सकती हैं ऐसा प्रदेश दूसरा कौनसा है, जरा बता दीजिए।

विकास और इंडस्‍टरी के मामले में गुजरात से टक्‍कर लेने वाला राज्‍य कौनसा है।
रविशजी ने भी अपने अनुभवों में लिखा था कि गुजरात का आम आदमी मानता है विकास हुआ है। मेरे दो चार परिचित हैं वे भी यही मानते हैं कि चाहे जो हुआ हो लेकिन अब गुजरात में विकास दिखता है। मैं भी पिछले साल फरवरी में दमन द्वीव घूमने गया और एक तरफ के सफर का काफी हिस्‍सा तो एसटीए की बस में तय किया। उस दौरान लोगों से बात की, सडके देखी, माहौल देखा। बिंदास खर्चीले मस्‍तमौला लोग देखे उन्‍हें देखकर नहीं लगता कि यहां कभी उस तरह का माहौल रहा होगा।
भुज का भूकंप, सुनामी के दिन या सूरत का प्‍लेग हर मामले में विपदा झेलने के बाद गुजरात हर बार पहले से सुंदर और शक्तिशाली होकर उभरा है।
अपने पॉलिटिकल प्रॉफिट या पॉलिटिकल फ़यूचर के लिए राजनेताओं ने और उसके समर्थक मीडिया वालों ने गुजरात को इतना बदमान कर दिया, कि बापू के पैदा होने से गुजरात जितना सम्‍मानित हुआ था उससे भी यह पाप अब बैलेंस नहीं होता।

मुश्किल से बनी है चाय, आप पिएंगे क्‍या


साढे बारह बजे थे फोन बजा तो नींद खुली, मित्र ने फरमाया गेट पर खडा हूं अंदर कैसे आऊं। दरवाजा खोला और उसे नीचे से ऊपर तक लाया।
जनाब दिल्‍ली में पडोस में ही रहते थे तो आवभगत में कमी नहीं छोडना चाहता था। पर इससे पहले की मैं पूछता उन्‍होंने ही कह दिया, यार दूध का इंतजाम हो तो चाय पी लें, मौसम में थोडी ठंडक है।
किचन में देखा तो रात वाला दूध तो अपन के भाई लोगों ने सुबह ही खत्‍म कर दिया।
सोचा बाजार से ले आऊं। पर ये क्‍या आजू बाजू की तीनों डेरियां बंद हैं, लगता है जयपुर में डेयरी वाले आफटरनून सिएस्‍टा का शिकार हो गए हैं।( एक खुली थी पर जनाब आधी शटर गिराकर सामने की बैंक में रुपए जमा कराने गए थे) इन सरस डेरी वालों को गरियाते हुए घर आ ही रहा था कि एक बुकसेलर की दुकान पर बोर्ड देखा “यहां अमूल का दूध मिलता है।“
शायद कल ही लगा था यह बोर्ड, क्‍यूंकि जयपुर में अमूल का दूध हाल में ही मिलना शुरू हुआ है।
यह बोर्ड देख मैं इतना खुश हुआ जितना तो माउंट एवरेस्‍ट पर चढकर एडमंड हिलेरी भी नहीं हुए होंगे। खुशी खुशी घर पहुंचा गैस पर पानी रखा चाय पत्‍ती डालने के बाद चीनी का डिब्‍बा खोला तो पता चला चीनी नदारद है। लगा जैसे किसी ने माउंट एवरेस्‍ट से धक्‍का मार दिया।
क्‍या करता मित्र ने तुरंत बोल दिया यार रहने दो अब फिर क्‍यूं जाओगे बाजार, चाय तो थडी पर ही पी जा सकती है, मैं भी चलता हूं।
लेकिन मैंने भी सोच लिया जब एडमंड हिलेरी एवरेस्‍ट पर चढ सकते हैं तो मैं दोस्‍त को चाय क्‍यूं नहीं पिला सकता। गैस चलती छोड एक पर दूध और दूसरी पर चाय पत्‍ती, पानी और दूध डालकर चीनी लेने चला गया।
टाइम बचाने के लिए सुभिक्षा की जगह पास की दुकान पर पहुंच गया। भीड लगी थी, पर जुगाड भिडाकर 17 रुपए किलो वाली चीनी 17.50 रुपए किलो ली और घर आ गया। घर पहुंचा तो पता चला चाय की पत्‍ती और दूध का काडा बन चुका है और दूध आधे से ज्‍यादा भगोनी से बाहर है।
खैर हिलेरी का नाम लेकर हिम्‍मत नहीं हारी और चाय बनाकर ही दम लिया।
वाह री अपन की जिंदगी, सोचा साला थडी पर चला जाता तो ठीक था। इतनी नौटंकी तो नहीं होती।
अब अपनी व्‍यथा आपको बताई, बस शादी करने की सलाह को छोडकर कोई और तरीका हो तो बताइयेगा। क्‍यूंकि ये इलाज तो लोगों ने मेरी पहली बार कविता पढकर ही बता दिया।
(आपका टाइम खोटी किया इसके लिए क्षमा प्रार्थी)

Saturday, December 8, 2007

अपन को उल्‍लू समझा क्‍या


समझदारों को ज्‍यादा समझाने की जरूरत नहीं है।

बस इतना समझ लीजिए की यह चित्र मुंबई के लोगों के लिए डीएनए के फोटो जर्नलिस्‍ट मुकेश त्रिवेदी ने मुंबई में खींचा और जयपुर के सिटी भास्‍कर के लिए यही फोटो जेएलएनमार्ग जयपुर का हो गया। अब खींचा किसने ये अपन को पता नहीं। डीएनएन के मुंबई संस्‍करण में यह चित्र 4 दिसंबर को पेज एक की लीड न्‍यूज में लगा वहीं सिटी भास्‍कर जयपुर में 5 दिसंबर को अंतिम पेज पर जेएलएन मार्ग का बताया गया।
लगता है ये मंगलवार 3 दिसंबर 2007 की सुबह मुंबई में थे और बुधवार 4 दिसंबर 2007 को जेएलएन मार्ग जयपुर में ।
तभी तो कह रहे हैं चिल्‍स इल्‍स और पिल्‍स
( सभी पत्रकार मित्रों से क्षमा सहित, भई क्‍या करुं कमबख्‍त इधर उधर झांकने की आदत है सहन नहीं होता। एक सलाह - कम से कम किसी अखबार की पेज एक की लीड फोटो तो मत उडाया करो, ध्‍यान पड ही जाता है)

Tuesday, November 27, 2007

ब्‍लॉग पर एक और लेख


जयपुर के एक छोटे लेकिन पुराने समाचार पत्र 'समाचार जगत' में 27 नवंबर को अपने एडिट पेज पर ब्‍लॉगिंग पर 'हिंदी ब्‍लॉगिंग अपने शैशव काल में' शीर्षक से एक लेख छपा है। हालांकि लेखक का नाम नहीं दिया गया है, लेकिन उसमें जीतूजी, रवि रतलामीजी के हवाले से कुछ आंकडे दिए गए हैं। इसमें संजय बेगाणी, पंकज बेगाणी, पंकज नरुला का भी नाम दिया गया है। श्रीमान ने नारद और मोहल्‍ला के अविनाशजी का भी जिक्र किया।
आपकी जानकारी के लिए पूरा लेख चस्‍पा किया जा रहा है। क्लिक करके पढ सकते हैं।

Saturday, November 24, 2007

बधाई हो अपन का अलवर भी टॉप पॉल्‍यूटेड सिटीज में


अभी अपन एक मित्र के भाई की शादी में फरीदाबाद गए। यूं तो दिल्‍ली में नौकरी के दौरान ऑफ वाले दिन फरीदाबाद खूब गया हूं, एक दीदी रहती थीं वहां तो आना-जाना लगा रहता था, पर ये जाना कुछ अलग था। अब बैण्‍ड दूसरी शिफ़ट में थी तो अपन को जैसे भी रात के दस बजाने थे और बारात शाम को तीन बजे ही पहुंच गई।
अपन अलवर से बारात में गए थे और ठाले बैठे बाराती लोग टाइम पास करने के लिए ताश पीट रहे थे, यूं बडे शहर में बारात जाती है तो ऐसा कम ही दिखता है, अमूमन लोग घूमने फिरने निकल पडते हैं।
अपन तो देर से उठने के आदी हो गए हैं और बारात के चक्‍कर में उस दिन सुबह जल्‍दी उठ गए तो नींद आ रही थी पर बाकी लोगों को ताश पीटते देखा तो दिमाग में यह बात आई की लोग यहां क्‍यूं बैठे हैं। अपन ने कहा भाई यहां कमरे में बैठकर क्‍या कर रहे हो जाओ जारा मार्केट घूमो फिरो। पर अचानक एक साथ एक ही जवाब आया बाहर पॉल्‍युशन बहुत है। (आमतौर पर बारात में सहमति बनना न के बराबर होती है, बारात में ज्‍यादा जाने वाले इस बात से परिचित होंगे।)
तो पॉल्‍युशन का नाम छिडते ही अपनी टयूबलाइट जली कि देश का सबसे प्रदूषित शहर कौनसा है। एक को समझदार समझकर पूछा तो बोला अहमदाबाद ही होगा। अपन से रहा नहीं गया, जोश जोश में कह दिया भाई अहमदाबाद से एक बार गुजरा हूं इतना बुरा नहीं है, हो न हो कानपुर ही होगा सबसे प्रदूषित। बस लग गई सौ रुपए की शर्त, मैंने कहा कि अहमदाबाद सबसे ज्‍यादा प्रदूषित नहीं हो सकता भले ही कुछ हो जाए।
अब शर्त के डिसिजन के लिए तय हुआ कि नेट पर किसी से पूछकर बताया जाए कि टॉप टेन शहर कौनसे हैं। वहीं से बैठकर नेट पर संभावित विराजे हो सकने वाले दो लोगों को फोन लागाया, लेकिन उन्‍होंने असमर्थता जता दी कि भई पूरी लिस्‍ट नहीं मिल रही।

तो तय हुआ कि अगली शादी में इसकी पार्टी उडाई जाएगी। बारात से अब अपन आकर जुट गए लिस्‍ट ढूंढने में। अब मिली है तो अपनी तो सांसे ही थम गई लिस्‍ट देखकर कि कमबख्‍त अपना अलवर तो फरीदाबाद से भी तीन पायदान ऊपर है और सातवे नंबर पर विराज रहा है। पंजाब का गोबिंदगढ शहर देश का सबसे प्रदूषित शहर है।
बस रहा नहीं गया अपन से आप सभी से यह जानकारी शेयर करे बिना, लिख मारा पूरा एक पेज।
आपको हुई असुविधा के लिए खेद,लेकिन इस धूआंधार जानकारी को दूसरों को पढाएं और अपना मार्गदर्शन करें।
पूरी लिस्‍ट नीचे चस्‍पा कर दी गई है, अपना शहर देखकर चिंतित हो जाएं और अपने परिचितों को भी बताएं।
धन्‍यवाद
जय फरीदाबाद जय शर्त जय अलवर

The list of cities and their pollution level :
Order City RSPM Annual average concentration during 2005 (Res. Areas)
1 Gobindgarh 250
2 Ludhiana 232
3 Raipur 192
4 Lucknow 186
5 Kanpur 178
6 Jalandhar 175
7 Alwar 160
8 Jharia 156
9 Dehradun 150
10 Faridabad 148
11 Agra 147
12 Ahmedabad 134
13 Vapi 134
14 Solapur 129
15 Jamnagar 129
16 Indore 126
17 Ankaleshwar 126
18 Satna 124
19 Surat 124
20 Dhanbad 121
21 Bhilai 118
22 Delhi 115
23 Howrah 113
24 Guwahati 112
25 Kolkata 110
Note :- The data of Jharia is of industrial area and data of
Agra is of Taj Mahal (Sensitive area)
(खबर तो बुरी है पर बधाई इसलिए कि अलवर कहीं तो टॉप टेन में है, अलवरवासियों से माफी के साथ )

Thursday, November 15, 2007

हाय रे सांवरिया


बुधवार सुबह अपना भी मन हुआ सांवरिया और ओम शांति ओम में से कौनसी फिल्‍म ज्‍यादा बुरी है। इसका फैसला अपन खुद ही करेंगे। तो ओम शांति ओम तो अपन पूरे दिन में दो कोशिशों के बाद भी नहीं देख पाए। पहली बार कोशिश की बुधवार तीन से छह के लिए और दूसरी बार रात नौ से बारह बजे के शो के लिए की, लेकिन जयपुर के बडे सिनेमाघरों में टिकट एडवांस बुक थीं या बडी बडी लाइनें थीं।
तो अपन ने दो बजे से पांच बजे वाले शो में शहर में दीवाली से ही खुले आयनोक्‍स में सांवरिया ही देख डाली। पहली बार इस नए हॉल में गया तो पांच छह मिनट रास्‍ता ढूंढने, सिक्‍योरिटी और पार्किंग वालों ने बिगाड दिए और करीब इतनी ही फिल्‍म निकल गई। हॉल के अंदर पहुंचा तो सुखद अनुभू‍ति हुई, कि शायद अपन ही समझदार हैं जो ऐसी फिल्‍म देखने आएं है जिसे अपन समेत कुल पंद्रह ही लोग देख रहे हैं। वहीं दूसरी फिल्‍म की हालत आपको बता ही चुका हूं। इतनी विशाल ऑडियंस में भी चार पेयर तो ऐसे थे जो आए ही इसलिए थे कि खाली थिएटर में शायद कुछ और करने का भी मौका मिल जाए। इतना तो उनको प्रोमो देखकर ही पता चल गया था न कि फिल्‍म में डार्क ब्‍लू और लाइट ग्रीन कलर यूज किया है, तो कुछ तो सपोर्ट मिलेगा।
हां तो बहुत हुई बकवास अब फिल्‍म की बात की जाए, अपने भंसाली भाई साहब देवदास, ब्लैक और खामोशी द म्‍यूजिकल की दे दनादन सफलताओं से लगता है कुछ झाड पर ही चढ गए हैं। उन्‍होंने वे तीनों प्रयोग जो इन फिल्‍मों को हिट कराने में यूज किए सारे एक साथ कर दिए पर लगता है स्‍टोरी पर काम करना भूल गए। बहुत सीन हैं जो पुरानी फिल्‍मों की याद दिलाते हैं जैसे हीरोइन का दौडने वाला सीन और म्‍यूजिक देवदास की ऐश की। बर्फ की बारिश ब्‍लैक की। अगर इस फिल्‍म को देखकर आप भंसाली साहब की फिल्‍मों को देखेंगे तो बहुत सारी समानताएं दिखाई देंगी।
यूं तो उनके बारे में सुना है कि उन्‍हें परफेक्‍शन इतना पसंद है कि जब तक न मिले तब तक रिटेक पर रिटेक करते हैं। लेकिन सांवरिया में ऐसा कुछ नहीं है बस शायद उनका सारा ध्‍यान शायद सेट बनवाने और रणबीर कपूर के तौलिया डांस में लगा दिया।
बेशक फिल्‍म के सेट सुंदर है, हर लोकेशन पर जान छिडकने को जी चाहता है और वो पूरे शहर का व्‍यू तो हैरी पॉर्टर की जादुई नगरी सरीखा दिखता है। इतना सुंदर सीन, जिसमें भाप का इंजन जा रहा है और पूरा शहरनुमा सेट एक ही फ्रेम में है, बस एक बार दिखाई देता है।

क्‍यूं नहीं चली फिल्‍म
मेरे हिसाब से फिल्‍म तीन कारणों से उतनी नहीं चल पाई, जितनी चलनी चाहिए या मतलब देवदास और ब्‍लैक जैसी सफल होनी चाहिए थी। पहला सामने शाहरुख और उनके दोस्‍त थे जिन्‍होंने अपना माल बेचने के लिए कोई लिमिट नहीं छोडी। दूसरा फिल्‍म की कहानी ही वीक थी और सारे टाइप कैमरा रणबीर और सोनम के आजू बाजू ही रहा।
तीसरा कोई भी भारतीय दर्शक हीरोइन को हीरो को छोडकर किसी और फिल्‍म में सलमान के साथ जाते हुए नहीं देखना चाहता और फिल्‍म इसी अनहैप्‍पी एंडिंग के साथ खत्‍म होती है। अगर शादी होनी ही नहीं थी (जैसा कि नहीं होना चाहिए था), तो भंसाली भाई साहब ने हीरोइन के फुदकने लटके-झटके और दोनों के प्रणय संबंधों में इतना टाइम कयों खराब किया। हीरोइन किसी ऐसे आदमी के साथ चली गई जिसके साथ कुल तीन सीन और एक डायलॉग दिखाया हो।


इंडस्‍टीवालों रानी से क्‍या चाहते हो

फिल्‍म में रानी मुखर्जी को वेश्‍या के किरदार में दिखाया गया है। इससे पहले लागा चुनरी का दाग में भी वे कमोबेश इसी लुक में थीं। गुलाबजी नाम के किरदार से वे फिल्‍म में रणबीर राज यानी सांवरियां पर मरती है, लेकिन वे वेश्‍या से प्‍यार न करने लग जाए इसलिए खुद ही वहां आने पर पिटवा डालती हैं। उन पर फिल्‍माया गया गाना ‘छबिला रसीला’ के बोल बहुत ही प्‍यारे हैं और फिल्‍म इसी गाने में हैप्‍पी-हैप्‍पी फील कराती है।

शायद इसीलिए महंगे हुए तौलिए
पता नहीं कुछ दिन पहले एक जानी मानी कंपनी ‘वेलस्‍पन’ का तौलिया खरीदकर लाया, उसका एमआरपी सिर्फ 549 रुपए था। तब मुझे लगा कि शायद तौलिया महंगा है, लेकिन उसकी महंगाई का राज मुझे सांवरिया देखने के बाद पता चला। लगता है सारे लडके ‘जबसे तुझे देखा’ गाने पर तौलिए में डांस कर रहे हैं।

वैसे कपूर खानदान का लडका इतना अच्‍छा डांसर निकला बधाई हो रिषीजी और नीतूजी। अपन ने जो बेमतलब पंचायती की उसकी भी तो समीक्षा कर दीजिए

Monday, November 12, 2007

अरे ये गुटखा क्‍यूं महंगा हो गया


बॉस यूं तो अपन ये गुटखा खाते नहीं! बस अपनी जिंदगी इस 'मेरी सुपारी' तक ही सिमटी हुई है। कभी जभी साल दो साल में एक आध बार जब सुपारी खाने की इच्‍छा हो और न मिले तो रजनीगंधा ही प्रिफर करता हूं। इस लिहाज से अपन को (अंबर, जयंती, अंकुर विमल कुछ लोकप्रिय गुटखों के ब्रांड है) इन सबसे कोई सरोकार नहीं है। पर किसी ने बताया कि आजकल ये गुटखा महंगा हो गया है। अपन को लगा कि देश दुनिया में महंगाई तो भई यह महंगा हो गया तो कौन सी मुसीबत आन पडी है।
पर आज लगा जैसे प्‍याज के बिना दाल फ्राई, प्‍यार के बिना जिंदगी तो गुटखे के बिना दिनभर अपना मुंह चलाने वाले अपने गंगारामजी कैसे जिएंगे। इसलिए अपन भी तुरंत चिंतित हो लिए। अभी किसी शॉप पर गए तो नजर सामने रखी अंकुर एक प्रतिष्ठित ब्रांड के पॉलीपैक पर टिक गई। अपने दिमाग में तुरंत पत्रकारिता का कीडा कुलबुलाया तो तुरंत अपना ज्ञान झाडा और आगे की कहानी के लिए दाग दिया सवाल
भाई सुना है आजकल गुटखे ब्‍लैक में मिल रहे हैं
साहब फरमाए, क्‍या करें साहब आगे से महंगे आ रहे हैं
मैंने कहा, क्‍यूं क्‍या क्रांति हो गई देश में की यह जहर भी महंगा हो गया
सुपारी महंगी हो गई या कोई और बवाल है
वे बोलते इससे पहले ही वहीं खडे आदत के शिकार एक असली हिंदुस्‍तानी साहब बीच में ही बोल दिए हो सकता है साहब कोनू छापा पड गया हो या प्रोडक्‍शन घट गया हो
मैंने कहा हां यार बात तो सही पर
जब हिंदुस्‍तान में सारी चीजों का प्रोडक्‍शन ठीकठाक है। मतलब जो पॉपुलेशन जो कम चाहिए थी वो तक बेलगाम बढती जा रही है तो ये गुटखे का प्रोडक्‍शन कयूं नहीं बढ सकता। ये रेड वाला जवाब अपन को थोडा जरूर जंचा।
अब दुकानदार साहब की पीडा सुनिए बोले कि 54 पुडिया का पैकट अब 27 रुपए में मिल रहा है पहले 21 रुपए में मिलता था। इसलिए साहब कम से कम 75 पैसे की एक या दो रुपए की तीन तो बेचनी ही होगी।
अपन को ये गणित तो समझ में आया गया पर ये पता नहीं चला कि गुटखे की किल्‍लत कयूं।
हर चौ‍था आदमी इस प्रसाद को खाता है, मीडिया में तो इसे खाने वालों की तादाद इतनी है कि एक दिन का एडिशन तो उनके नाम लिखकर ही छापा जा सकता है, तब भी ये खबर खबर क्‍यूं नहीं बनी। अब किसी को कारण पता चले या आपके अपने इलाके में भी किल्‍लत हो तो कृपया इस राष्टीय चिंता के विषय पर अपनी चिंता जरूर जताएं।
इसी उम्‍मीद के साथ
जय गुटखा

Thursday, November 8, 2007

नारद जी प्रकट भए

नारदजी नए लुक में आ गए हैं
उनका दावा है कि एक मिनट में वे आपको सबके सामने पहुंचा देंगे।
हां एक और बात कि यहां लिखा है कि यह है बिना तामझाम वाला संकलक - न पंजीकरण की ज़रुरत और न ब्लॉग पर दावा सिद्ध करने की। एग्रीगेटर का काम है नवीन ब्लॉग पोस्ट की सूचना देना, तो वही कार्य हम करना चाहते हैं और तीव्र गति से करना चाहते हैं। आप ब्लॉग बनाए और बाकी हम पर छोड़ दें। नारद तीव्र के दरवाज़े हर हिन्दी ब्लॉग के लिए खुले है, जोड़ने घटाने के लिए किसी पत्राचार की आवश्यकता नहीं है।

शुभ दीपावली

Monday, November 5, 2007

कमबख्‍त कपनियां एक जैसा मोबाइल चार्जर क्‍यूं नहीं बनातीं


कल रविवार का दिन था और दोपहर में खाना खाकर छोटे भाई के साथ घूमने निकल गया और फिर सीधे ऑफिस की ओर कूच कर दिया। अपने पास टाटा का मोबाइल कनेक्‍शन है तो उसके साथ मोबाइल है सेमसंग का। उसकी सबसे बडी दिक्‍कत है कि एक तो बैटरी का बैकअप कम और ऊपर से नोकिया की तरह उसका चार्जर सारी जगह नहीं मिलता। इसलिए ऑफिस जाने से पहले घर से चार्जर ले गया और काम खत्‍म होने के बाद मैं तो घर आ गया पर वो चार्जर वहीं छूट गया। अब रोज रोज चार्जर ऑफिस ले जाने की आदत नहीं है न। घर लौटा तो याद आया कि चार्जर तो आफिस में ही लगा रह गया, हालांकि वहां फोन करके चार्जर तो सुरक्षित रखवा दिया पर सुबह होते होते अपने मोबाइल की टैं बोल गई।
छोटा भाई पता नहीं कब आफिस चला गया और अपन सोते ही रहे, वर्ना रोज तो एक आध बार ये मुंआ बज ही जाता था तो उठ ही जाता। अब बिना डिर्स्‍टबेंस के जगने की आदत नहीं है न तो सोता ही रहा, अचानक नींद खुली और बाहर खूब तेज रोशनी थी तो जाग गया, उठकर देखा तो मोबाइल ऑफ था।
अब पहली समस्‍या तो यह कि टाइम कितना हुआ, क्‍यूंकि कमरे में लगी घडी का सेल खत्‍म हो गया है। तभी आइडिया आया कि कम्‍प्‍यूटर ऑन करके टाइम देखा जाए। अब कम्‍प्‍यूटर ऑन किया तो पता चला कि एक बजने की तैयारी है। अब पांच बजे तो आफिस जाना ही था तो मैंने सोचा कि चार घंटे में आना जाना तो अपन मोबाइल से कौनसा तीर मार लेंगे। इसलिए चार्जर लेने आफिस गया ही नहीं और बिना फोन के ही दिन गुजार दिया।
अब बिना मोबाइल के जीने की आदत नहीं है, करीब पांच साल से मोबाइल है अपने पास तो बार बार याद सताती रही, बंद फोन को भी हमने कोई दसियों बार उठाकर देखा कि कोई मैसेज या मिस कॉल तो नहीं।
उन लोगों का नाम लेकर हमें कम से कम बीस बार हिचकी भी आई, जो खाली वक्‍त में हमारा दिल बहलाने के लिए पांच सात एसएमएस और एक आध मिस कॉल ठेल देते हैं।
शाम तक अपन इस नतीजे पर पहुंचे कि कमबख्‍त ये कंपनियां एक जैसा चार्जर क्‍यूं नहीं रखती सब। अगर ऐसा होता तो रूम में चार अलग अलग कंपनियों के चार्जर पडे थे किसी से तो चार्ज कर लेते। दिन भर बिना फोन के तो नहीं बैठते।
अब लीजिए हमारे दुख में शरीक हुए हैं तो कम से कम इन मुई कंपनी वालों को तो बता दीजिए कि उनकी अलग अलग मॉडल के फोन निकालने की प्रतिस्‍पर्धा ने हमारे तो दिन का ही सत्‍यानाश कर दिया।
ए चार्जर तुम बहुत याद आए

Saturday, November 3, 2007

ब्‍लॉगर्स के लिए खुशखबरी


शनिवार को राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी के वार्षिक पुरस्‍कारों की घोषणा की गई है। ब्लॉगर्स के लिए खुशी की बात यह है कि जयपुर के ब्‍लॉगर डॉ: दुर्गाप्रसाद प्रसाद अग्रवालजी को उनके यात्रा वृतांत आंखन देखी के लिए कन्‍हैयालाल सहगल पुरस्‍कार की घोषणा की गई है। इसमें उन्‍हें प्रशस्ति पत्र के साथ 15 हजार रुपए भी दिए जाएंगे। अग्रवाल साहब जोगलिखी नाम से ब्‍लॉग लिखते हैं और वेब पत्रिका इंद्रधनुष इंडिया के संपादक भी हैं।

इसके अलावा जयपुर के रसकपूर फेम आनंद शर्मा को मीरा पुरस्‍कार और और जयपुर के ही रतन जांगिड को डॉ रांघेय राघव पुरस्‍कार दिया जाएगा। जयपुर के डॉ रवि श्रीवास्‍तव को उनकी पुस्‍तक परम्‍परा इतिहास बोध और साहित्‍य के लिए देवराज उपाध्‍याय पुरस्‍कार दिया जाएगा।
ब्‍लॉगर्स की ओर से बधाई

Tuesday, October 30, 2007

जयपुर में नाइट शिफ्ट में महिला पत्रकार


मुझे याद है कि नीलिमाजी ने ही एक दिन लिखा था कि अखबारों में महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम क्‍यूं नहीं दिया जाता। अखबार में नाइट शिफ्ट में महिलाएं क्‍यूं नहीं होतीं। उन्‍हें सिटी सप्‍लीमेंट और महिलाओं से जुडे परिशिष्‍ठों पर ही क्‍यूं लगाया जाता है।
लगता है उनके ब्‍लॉग पर उनके अखबार के मैंनेजमेंट वालों की नजर पड गया। नीलिमाजी का आजकल पहले पेज पर ट्रान्सफर हो गया है और अब वे देश के सबसे तेजी से बढते अखबार के पहले पेज की टीम में शामिल हो गई हैं। जयपुर में संभवतय वो पहली महिला हैं, जो रात्रि पाली यानी करीब दो बजे तक रुक कर काम कर रही हैं।
मुझे लगा कि इस गौरव पर हम ब्‍लागर्स को उनका उत्‍साह बढाना चाहिए।
उनके उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की कामना के साथ।
जय ब्‍लॉग
जय जयपुर

Tuesday, October 23, 2007

रद़दी पेपरवाला !


अखबार में काम करता हूं, इसलिए देर से घर लौटता हूं। अभी शादी नहीं हुई और जयपुर में छोटे भाई के साथ ही रहता हूं, डांटने वाला कोई नहीं है तो रात को ऑफिस के बाद पंचायती के लिए भी रुक जाता हूं, इसलिए अमूमन एक बजे के आसपास ही घर लौटता हूं। आजकल यह ब्‍लॉगिंग की आदत और लग गई है तो रात को सोते सोते अमूमन चार तो बज ही जाते है।
अब आप रूबरू होइये मेरी पी‍डा से....
दिवाली का त्‍योहार आने वाला है और आजकल घरों मे सफाई का दौर है। इस लिहाज से कबाडियों का सीजन है, इसलिए आजकल पौ फटते ही कबाडी सडकों पर दिखने लग जाते हैं। अब शुरू होती है मेरी समस्‍या
बस कबाडी गली में घुसा नहीं कि आवाज लगाना शुरू कर देता है, रददी पेपरवाले, रददी पेपरवाले....। और मेरी नींद अमूमन रोज इसी आवाज को सुनकर टूटती है। ये भाईसाहब इतनी जोर से चिल्‍लाते हैं कि आप कितना भी तकिया कान पर दबा लें या चददर मुंह पर रख लें, लेकिन ये कमबख्‍त आवाज इसे पार करके कान तक पहुंच ही जाती है। इतना सब करके मैं परेशान हो जाता हूं और फिर चाय पीकर अखबार पढकर भी दुबारा नींद नहीं आती।
रोज सोचता हूं कि या तो धमकाकर या समझाकर इसे मेरे घर के नीचे खडे होकर रददी पेपरवाला चिल्‍लाने से रोक दूं। पर अब तक हिम्‍मत नहीं कर सका सोचता हूं यार गरीब आदमी का बिजनेस है, चिल्‍लाएगा नहीं तो पब्लिक को कैसे पता चलेगा कि कबाडी आया है। खैर बाकी सबके लिए भले ही इसका मतलब कबाड से हो पर मुझे यह रददी पेपर वाला शब्‍द ही द्विअर्थी सा सुनाई पडता है, और शायद इसीलिए मैं लाख कोशिश करके भी सो नहीं पाता, लगता है जैसे कोई रददी पेपरवाला कहकर चिढा रहा हो।
अब कोई और पत्रकार पढ रहा हो और उसने भी अपनी बडी सी जिंदगी में यह छोटी सी बात अनुभव की हो तो भैया जरूर सूचित करना। कोई उपाय सोचा हो तो भी बताना और अगर रददीवालों की यूनियन की मीटिंग बुलाकर उनको आवाज में कोई और शब्‍द जैसे कबाडवाला या रददीवाला कहलवाने का सुझाव हो तो भी बताइएगा। हो सकता है दो-चार सौ मीडिया वाले अगर जोर डालकर इनकी यूनियन को बोलें तो ये बेचारे समझ जाएं। आखिर कबाड में सबसे ज्‍यादा तो अखबार ही होते हैं।

Monday, October 22, 2007

ब्रेकिंग न्‍यूज : मुंबई से पुणे की दूरी 170 किमी


हैडिंग पढकर परेशान होने का कष्‍ट न करें, यह दूरी कल भी इतनी ही थी और आज भी इतनी ही है। बस मैं तो जिक्र कर रहा हूं, भारत के सबसे तेज न्‍यूज चैनल आजतक पर सोमवार रात एक बजे की ब्रेक्रिंग न्‍यूज का।
संजय दत्‍त को मुंबई धमाकों पर स्‍पेशल टाडा कोर्ट ने दोपहर में ही फैसले की कॉपी दे दी। इसके तुरंत बाद उन्‍होंने सरेंडर कर दिया और रात करीब 11:30 बजे तो वे पुणे की यरवदा जेल भी पहुंच गए। इसके बाद रात एक बजे आजतक पर ब्रेकिंग न्‍यूज के तीन फ़लैश से आपको जबरन रूबरू करा रहा हूं।
1. संजय दत्‍त को पुणे की यरवदा जेल ले जाया गया
2. मुंबई से पुणे की दूरी 170 किमी
3. चार घंटे का सफर तीन घंटे में ही किया तय
अब अपने मुन्‍ना भाई कोई महात्‍मा गांधी तो हैं नहीं कि वे कितनी दूर पहुंचे जनता को इस बात की पल पल की खबर दी जाए। सेलिब्रिटी हैं इसलिए खबर इतने बडे पैमाने पर दिखाई जानी चाहिए थी, यह तर्क भी यहां कोई खास फिट नहीं बैठता। उनका पिछली बार जेल जाना वाकई बडी खबर हो सकती थी, लेकिन इस बार तो उनको जेल तय थी। खुद मीडिया रोज गिन गिनकर दिन बता रहा था। जनता जनार्दन को भी पता था कि दशहरे के बाद तो संजू बाबा को एक बार जेल जाना पडेगा। अब चलिए मान भी लिया जाए कि खबर बडी थी तो यह बता देते कि यरवदा जेल तीन घंटे में पहुंच गए। और ज्‍यादा था तो टाइम बता देते पर ब्रेकिंग न्‍यूज में मुंबई से पुणे की दूरी 170 किमी चलाना तो एकदम चिरकुटाई है।
अब अपने अटल बाबा किसी दिन स्‍वर्ग सिधार जाएंगे तो भी इसी फोन्‍ट साइज में फलैश चलेगा अटलजी नहीं रहे। अब इलेक्‍टॉनिक वालों कम से कम ब्रेकिंग न्‍यूज का कही तो सम्‍मान करो।
और अपने सबसे तेज चैनल को एक फोकट की सलाह कि मेरी न मानों तो अपने प्रतिस्‍पर्धी एनडीटीवी इंडिया से ही कुछ सीख लो यार, जो कम से कम ताजा खबर तो चलाता है, यूं ही कुछ भी ब्रेक तो नहीं करता।

आजतक और मीडिया के ठेकेदारों से क्षमा सहित।


(आदर्श परिस्थिति के अनुसार मुझे मीडिया में होने के कारण इस विषय पर टिप्‍पणी से बचना चाहिए था, पर मैं इस तरह की ब्रेकिंग न्‍यूज देखकर खुद को रोक न सका)

Friday, October 19, 2007

हनुमान चालीसा पर इश्‍क पहली बार देखा


यशराज बैनर की नई नवेली फिल्‍म लागा चुनरी में दाग देखने का मौका मिला। फिल्‍म में कई चीजें हैं, जो पचाए नहीं पचती। मसलन मैंने पहली बार देखा कि हनुमान चालीसा पढते हुए एक लडकी को प्‍लेन में हीरो ने देखा तो वह उसके इश्‍क में इस कदर पागल हो गया कि वह यह जानकर भी कि हीरोइन एस्‍कॉर्ट का काम करती है (फिल्‍म की ही लैग्‍वेज में कहुं तो बनारस की वेश्‍याओं का मुंबईया रूप), उससे शादी को तैयार हो गया।
फिल्‍म की कहानी रानी मुखर्जी यानी बडकी के आसपास ही चलती है। बडकी की एक बहन है छुटकी (कोकणा सेन) और मां (जया बच्‍चन) और पिता रिटायर्ड लेक्‍चरर अनुपम खेर। फिल्‍म की शुरुआत से ही रोना धोना मध्‍यमवर्गीय परिवार का वही किस्‍सा कि कमाने वाला घर में बीमार हो जाए और परिवार में और कोई पुरुष न हो तो क्‍या होता है। बेटा बनकर पिता के सारे अरमानों को पूरा करने और बहन की एमबीए की पढाई पूरी हो जाए इसे ध्‍यान में रखकर दसवीं पास रानी मुखर्जी मायानगरी मुंबई निकल पडती हैं। वही परेशानियों का पुलंदा और इस बीच सुंदर रानी को देखकर नजर फिसली और नौकरी देने के लिए कास्टिंग काउच सरिका प्रस्‍ताव। रानी अपने ‍परिवार और पिता की खातिर तैयार हो जाती है, चुनरी मे दाग भले ही लग जाता, लेकिन रानी को नौकरी नहीं मिलती।
इसके बाद मुंबई में किसी की सलाह और परिवार की लाज के लिए रानी एस्‍कॉर्ट बिजनेस में कूद जाती है, और खूब पैसा कमाती है। उसकी मां सावित्री को यह बात पता होती है। पढाई पूरी होने के बाद छुटकी भी मुंबई आ जाती है और ऐड एजेंसी में नौकरी करने लगती है।
इसके बाद पर्दे पर रोना धोना कुछ कम होता है। कुनाल कपूर एजेंसी के क्रिएटिव डायरेक्‍टर के रूप में अच्‍छा अभिनय करते दिखाई देते हैं। दोनों की पटरी बैठ जाती है और शादी की तैयारी हो जाती है। बडकी भी छुटकी के शादी के लिए जब बनारस जाती है तो वहां उसकी फिर मुलाकात होती है अभिषेक बच्‍चन से जो कुनाल कपूर यानी विवान का बडा भाई होता है। अभिषेक और रानी विदेश में पहले ही मिल चुके होते हैं और एक और शादी की तैयारी होती है। और वही बेवकूफी जिससे एक अच्‍छी खासी हिंदी फिल्‍म का कचरा हो जाता है। रानी और अभिषेक की शादी हो जाती है। जबकी अभिषेक को रानी क्‍या करती है यह जानकारी पहले से होती है। फिल्‍म के गाने सुनने लायक है और हेमामालिनी भी दो बार पर्दे पर आती हैं। बहुत समय बाद कामिनी कौशल को भी देख सकते हैं।

फोकट की सलाह
कुल मिलाकर सभी ने एक्टिंग ठीक की है, लेकिन फिल्‍म में रोना धोना इतना ज्‍यादा है कि सहन नहीं होता, फिल्‍म जरूरत से ज्‍यादा स्‍लो है और एक फ्रेम के जाने से पहले ही दर्शक यह अंदाजा लगा लेता है कि अगला सीन क्‍या होगा। यशराज की टीम ने कहानी पर थोडा अच्‍छा काम किया होता तो पिफल्‍म चल सकती थी यूं भी फेस्टिव सीजन में रोना धोना कौन बर्दाश्‍त करता। एक और बात कि भैया पीसीओ से एक रुपए का सिक्‍का डालकर एसटीडी कॉल कैसे हो सकती है किसी को पता हो तो मुझे भी बताना। रानी के कंगाली के दिनों में अक्‍सर वो ऐसे ही फोन करती थी।

(मेरी छीछा लेदर करने वालों से क्षमा चाहता हूं, पिछले पूरे सप्‍ताह आफिस की व्‍यस्‍तता के चलते मैं प्रकट नहीं हो सकता)

Wednesday, October 10, 2007

चुनाव कैसे जीतते हैं गिरधारीलालजी से सीखो


जयपुर के जवाहर कला केंद्र में इन दिनों एक मेला चल रहा है। एक शाम की बात है मैं दोस्‍तों के साथ बाहर खडे होकर गपशप कर ही रहा था कि अचानक नजर पडी की मेनगेट पर चना जोरगरम बेच रहे एक आदमी के सामने शायद जानी पहचानी शक्‍ल वाला बुजुर्ग खडा है।
मैंने घूरकर देखा तो याद आया ओह ये तो अपने सांसद गिरधारीलाल भार्गवजी हैं। आजू बाजू देखा तो उनके साथ एक महिला भी थी और शायद एक युवक जो संभवतय उनकी पत्‍नी और रिश्‍तेदार ही होंगे।
इतने में ही सपरिवार भार्गवजी का सपरिवार नाश्‍ता खत्‍म हुआ और भार्गवजी ने रुपए देने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला और उनकी इस अदा का कायल हुए बिना दुकानदार भी न रहा और पैरों की ओर झुककर उनका अभिवादन करके रुपए न देने की गुजारिश करने लगा। बस सांसद साहब ने कब के गले लगाया दो मिनट बात की और अपनी कार में बैठकर विदाई ली।
बस यही एक अदा है जो भार्गव साहब को लगातार छह बार से संसद तक पहुंचा देती है। जयपुर वाले तो इस बात को जानते ही हैं अब बाकी भी पढ ले कि भार्गव साहब जब जयपुर में होते हैं तो सुबह उठकर सारे उखबारों से तीये की बैठक की जगह नोट करते हैं और निकल पडते हैं वहां के लिए। बस ये अदा है क‍ि भले ही उन्‍होंने काम धाम कुछ कराया हो या न हो लेकिन एक मध्‍यमवर्गीय आदमी को यह बात ताजिंदगी याद रहती है। मुझे पता है कि कोई सांसद इसे तो नहीं पढ रहा होगा। गलती से कभी पढ ले तो भैया सीख लीजिएगा चुनाव जीतने के गुर। वोट आम आदमी ही देता है, वो नहीं जो फाइव स्‍टार में मिलते हैं क्‍यूंकि उन्‍हें तो वोट डालने की फुर्सत ही नहीं होती।

Tuesday, October 9, 2007

मायावती को भी लगी परिवारवाद की बीमारी


राजनीति ने अच्‍छे अच्‍छों को "ठीक" कर दिया है। फिर मास्‍टरनी मायावती कोई दूसरी मिटटी की थोडे ही हैं।
देर से सही लेकिन सत्‍ता में रहते हुए माननीय कांशीराम की सेवा की आड में मायावती ने सही टाइमिंग के साथ छोटे भाई आनंद कुमार को लखनऊ की रैली में मंच पर लाकर राजनीति में आगे करने का काम किया है।
यूं तो राजनीति में परिवारवालों का आगे आना न तो नया मामला है न इसमें चिंतित होने जैसी बात। पर दलित राजनीति और कांग्रेस के परिवारवाद को कोस कोसकर आगे बढी मायावती को यह शोभा नहीं देता।
वहीं उनके दलित वोटरों और कार्यकर्ताओं से जुगाडे गए करोडों रुपए से बना बहुजन प्रेरणा स्‍थल, जिसे आजकल बहुजन प्रेरणा टस्‍ट बना दिया गया है, उसके सर्वेसर्वा भी श्रीमान आनंदजी ही हैं।

मायावती ने कितनी साफगोई से जनसभा में कहा कि पार्टी के कामकाज और व्‍यस्‍तता में मेरी सेहत गिर गई और इस दौरान आनंद ने मुझे खून दिया और बसपा के मिशन को आगे बढाया। नोएडा में तैनात भाई ने अपनी सरकारी नौकरी भी छोड दी। मायावती का कहना है कि आनंद ने कांशीराम की भी खूब सेवा की।
अब यह लगभग तय है कि बसपा में माया के वारिस यही होंगे। सोश्‍यल इंजीनियरिंग के "जनक" सतीश चंद्र मिश्राजी आप भी खुद को ज्‍यादा होशियार मत समझिए। हो सकता है मायामेम ने आपकी बढती ताकत को कंटोल करने के लिए यह कार्ड खेला हो!

जयपुर की पहली ब्‍लॉगर्स मीट


यूं तो जयपुर में गिने चुने पांच या छह ही ब्‍लॉगर्स हैं अब तक और इत्‍तेफाक से वे भी एक दूसरे को जानते हैं। अब मुंबई से आशीष चला तो पहले ही भडास पर संदेश चस्‍पा कर दिया था कि भई जयपुर आ रहा हूं। इसलिए मिलने की प्‍लानिग करना। सोमवार को ऑफिस से ऑफ मिला तो शाम को मैंने आ‍शीष और नीलिमाजी को जवाहर कला केंद्र ही बुला लिया। शाम छह बजे से शुरू हुई पिंकसिटी की पहली आफिशियल ब्‍लॉगर्स मीट। इस बीच पांच या छह और भी परिचित आते रहे। हम सब मिलकर उन्‍हें ब्‍लॉग के किस्‍से सुना सुनाकर बोर करते रहे। हमनें कई लोगों को याद किया, तकनीक पूछी कि हिंदी कैसे लिखते हो। तय हुआ कि जयपुर में ज्‍यादा से ज्‍यादा ब्‍लॉगर्स बनाए जाएंगे और जल्‍द ही एक बडी ब्‍लॉगर्स मीट रखी जाएगी। सबने एक दूसरे से शेयर किए कुछ आइडिया कुछ पारिवारिक डिटेल और ऐसे ही बतियाते बतियाते साढे आठ बज गए। नीलिमाजी को अपने घर की याद आ गई और करीब ढाई घंटे में हमारी ब्‍लॉगर्स मीट खत्‍म हुई। इस मीटिंग के दौरान खाने पीने का कुल बिल हुआ 106 रुपए जो नीलिमाजी के खाते में ही गया।

अब एक खास लतीफा

ईमानदार पुलिसवाला
हुआ यूं कि मीट खत्‍म करके आशीष का एक परिचित भी आ गया था उससे वहां मिलने और वे दोनों वहां बाहर सिगरेट पीने लगे और मैं और एक मेरा मित्र उनसे गपशप तो मेरा ध्‍यान पडा उस थडीनुमा तिपहिया रिक्‍शे के सामने जेकेके में चल रहे मेले में ही तैनात राजस्‍थान पुलिस का एक जवान आया और टेलीफोन बीडी का एक बंडल मांगा। बदले में जब उसने दस का नोट थमाया तो जितना खुश वो दुकानदार था उससे ज्‍यादा मैं। अब आप पूछेंगे क्‍यूं भई। ईमानदारी से मैंने पहली बार देखा की किसी पुलिसवाले ने बीडी के बंडल के
पैसे दिए हों। वो भी अपने इलाके में।

Sunday, October 7, 2007

जय हो जयपुर की


रविवार शाम जयपुर में साहित्यिक वेबप‍‍त्रिका इंद्रधनुष इंडिया का पहला बर्थडे मनाया गया। मेरे पास ईमेल से एक चिट़ठी आई थी तो मैं अपने साथी और मुंबई से आए ब्‍लॉगर मित्र आशीष महर्षि को साथ लेकर वहां पहुंच गया। खुशी थी कि जयपुर में कम से कम बेव जनर्लिज्‍म उसके सगे संबंधियों पर सीरियसली काम तो हो रहा है। वैसे मुझे लगता है कि ऐसा पहली बार हुआ होगा कि किसी ने वेबसाइट का जन्‍मदिन भी इस धूमधाम से सलिब्रेट किया हो।
कार्यक्रम के आयोजक प्रगतिशील लेखक संघ को इस आयोजन के लिए साधुवाद देना चाहिए जिन्‍होंने इस नई वैचारिक क्रांति के लिए भी फुरसत निकाली। कार्यक्रम को भले ही वेब जनर्लिज्‍म गोष्ठी का नाम दिया गया हो, लेकिन इसमें हॉल की सारी कुर्सिया भरी हुई थीं। लोग कार्यक्रम में जिसके भी बुलावे पर आए हों, लेकिन तय है कि आयोजकों के हौसले निश्चित रूप से बढे होंगे। वर्ना आजकल परिचर्चा जैसे कार्यक्रमों में गिनती के लोग होते हैं। एक और चीज पर मुझे खुशी हुई कि यहां ब्‍लॉगर्स की भी चर्चा हुई। बार बार टीवी पत्रकारों और चैनलों को गरियाने वाले हिंदी के बुदि़धजीवियों ने ब्‍लॉगर्स और एक टीवी पत्रकार रवीशकुमार के ब्‍लॉग की चर्चा करके उनकी टीवी पत्रकारों की तारीफ की। कहा, भले ही ये लोग टीवी पर कितना भी बुरा बुरा दिखाएं, लेकिन ब्‍लॉगिंग के जरिए अपनी बात तो खुल कर कह रहे हैं।
हालांकि समय पर आफिस पहुंचने की भागदौड में मैं आखिरी दो महत्‍वपूर्ण वक्‍ता भास्‍कर समूह की मैग्‍जीन आह जिंदगी के प्रबंध संपादक यशवंत व्यास और जयपुर दूरदर्शन केन्‍द्र के निदेशक नंद भारद्वाज को नहीं सुन पाया और न ही इस पत्रिका की प्रबंध संपादक अंजली सहाय को धन्‍यवाद दे पाया।
जब तक मैंने सुना तब तक डेली न्‍यूज के परिशिष्‍ठ प्रभारी रामकुमार सिंह ने अपने अनुभवों के जरिए बताया कि कितने तेजी से युग बदला दस साल पहले जहां अखबारों के दफ़तर में कम्‍प्‍यूटर के ठीक ऊपर बडा सा हिदायत का बोर्ड लगा होता था कि बिना अनुमति हाथ न लगाएं। आज साफ कहा जाता है कि अगर कम्‍प्‍यूटर चलाना न आए तो अखबार के ऑफिस में आने की भी न सोचें। इस पत्रिका के संपादक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि वे चाहते हैं कि उन्‍हें ऐसी ही साहित्यिक वेब पत्रिकाओं से अगर कॉम्पिटीशन करना पडे तो खुशी होगी। अंजली सहाय ने इस मिशन को आगे बढाने में आई परेशानियों का भी जिक्र किया।

चलते चलते
दो बातें जो मुझे पूरे कार्यक्रम के दौरान परेशान करती रहीं
पहला जिन अगर गलती से किसी ने वहां दिखाई गई स्‍लाइड से इंद्रधनुष का स्‍पैलिंग उतारा हो वे सभी ठीक कर लें, http://www.indradhanushindia.org ही खोलें। वहां इंद्रधनुष से एस गायब हो गया था।
दूसरा अगर आगे से कभी ऐसे किसी प्रोग्राम में जाएं तो प्‍लीज अपना मोबाइल साइलेंट मोड में रख लें, बेवजह कार्यक्रम में व्‍यवधान न डालें।

सभी नेटीजन्‍स को हार्दिक बधाई
इसी आशा के साथ की हमारा परिवार बडा हो रहा है

Saturday, October 6, 2007

भडास के बाद क्‍या ?


ब्लॉगर बुंधुओं
चिंता की बात है, ब्‍लॉगिंग पर अपना नाम जमा चुके आदरणीय यशवंतजी ने अचानक
http://Bhadas.blogspot.com को बंद कर दिया। मेरी यशवंतजी से बात हुई उन्‍होंने बताया कि वो भडास के कारण खुद को बहुत दिनों से व्‍यस्‍त महसूस कर रहे थे, इसलिए उन्‍हें यह फैसला करना पडा। अब भडास नहीं रहा, उम्‍मीद है हम सभी लोग इस महाअभियान को किसी ने किसी रूप में जिंदा रखेंगे।
सभी से सुझाव सादर आमंत्रित हैं, ज्‍यादा नहीं तो कम से कम एक चैनल जहां पत्रकारों की आवाजाही और पत्रकारिता से जुडी खबरें मिल सकें। ऐसा मंच बनाने में सहयोग करें।
वैसे यशवंतजी ने नया पर्सनल ब्‍लॉग बनाया है http://syashwant.blogspot.com आप सभी उस पर उनसे बातचीत कर सकते हैं।
इसी आशा के साथ
राजीव जैन

Friday, October 5, 2007

दिल दोस्‍ती ईटीसी


मेरे लिए कोठे और कॉलेज में अंतर करना मुश्किल था। सिर्फ इस लाइन की वजह से मैंने दिल दोस्‍ती ईटीसी देखने का प्‍लान बनाया। रिलीज के ठीक सात दिन बाद मैंने यह फिल्‍म देखी। हालांकि फिल्‍म शायद चल नहीं पाई, लेकिन फिल्‍म जिस कॉलेज लेवल वाले यूथ के लिए बनाई गई है। उसे पसंद आएगी इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।

फिल्‍म की कहानी दो युवकों के इर्द‍ गिर्द है। पहला है् संजय तिवारी के रूप में श्रेयस तलपडे और दूसरा अपूर्व के रूप में इमाद शाह। दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के एसआर कॉलेज और उसके बॉयज हॉस्‍टल के इर्द गिर्द बुनी गई इस कहानी में तीन नायिकाओं ने स्‍टोरी को आगे बढाया है। इन दोनों युवाओं का लक्ष्‍य अलग है, स्‍टाइल अलग है और दोनों ही ने अपनी प्रतिभा का अच्‍छा उपयोग किया है। बिहार की मध्‍यमवर्गीय पृष्‍ठभू‍मि वाला संजय तिवारी, जहां स्‍टूडेंट पॉलीटिक्‍स में जाना चाहता है। अपूर्व मेटोसेक्‍सुअल यूथ के रूप में रईस बाप की औलाद है, जो लडकियों के ईर्द गिर्द ही रहता है। हॉस्‍टल में रैगिंग से बचने के लिए दिन भर हॉस्‍टल में सोना और रात भर कोठे में एक वेश्‍या वैशाली यानी स्‍मृति मिश्रा के साथ गुजारना उसका काम है। इस बीच अपने दोस्‍त संजय तिवारी से एक साथ तीन लडकियों को उसके चुनाव जीतने वाले दिन तक एक लडकी को पटा लेने की शर्त कहानी को आगे बढती है।
इस बीच में दो और लडकियां आती है एक संजय तिवारी के साथ साउथ दिल्‍ली की रईस बाप की औलाद प्रेरणा जो मिस इंडिया बनना चाहती है। हकीकत में मिस इंडिया रह चुकी निकिता आनंद ने यह भूमिका अच्‍छी तरह निभाई। स्‍कूल गर्ल के रूप में अपूर्व का साथ देने वाली किन्‍तु यानी इशीता शर्मा ने भी चुलबुले अंदाज में बॉयज आलवेज बॉयज डायलॉग कई बार बोला।
दोनों ही हीरो फिल्‍म की अंतिम रील तक अपने अपने लक्ष्‍य तक पहुंच जाते हैं। लेकिन चुनाव जीतने पर संजय को पता चलता है कि उसकी प्रेमिका प्रेरणा अब उसकी नहीं रही। खबर सुनकर संजय तिवारी हॉस्‍टल से बाहर निकलता है और अंधेरे के बाद अपूर्व के मुंह से सुनाई देता है।
संजय को किसने मारा मैंने बस ने या खुद उसने और फिल्‍म एक दुखांत पर खत्‍म हो जाती है। अपूर्व के रूप में इशाद शाह ने जबरदस्‍त एक्टिंग की है, उनमें पिता नसरुद़दीन शाह की तरह दम है (वैसे यह बात फिल्‍म देखकर निकलने तक मुझे नहीं पता थी कि
वह नसरुददीन शाह का बेटा है।) पांच सात साल पहले तक कॉलेज पास कर चुके सभी लोगों को फिल्‍म पसंद आएगी। एक-आध गालियां आपकी झेलनी पड सकती है। बीयर पीते स्‍टूडेंट़स, बॉयज हॉस्‍टल में लडकियां व घर पर टयूशन की आड में प्रेम संबंध झेलने की क्षमता हो तो आप बेझिझक फिल्‍म देखने जा सकते हैं।
गाने तीन हैं, बस में फिल्‍माया गया एक गाना तो रंग दे बसंती की खलबली खलबली की याद दिलाता है। प्रकाश झा के लिए फिल्‍म का डायरेक्‍शन मनीष तिवारी ने किया है। संपादन अच्‍छा है, फिल्‍म बोर नहीं करती।

(यह लेखक की पहली फिल्‍म समीक्षा है अपने विचारों से अवगत कराएं)

ये भडास कहां गया

बंधुओ

ये भडास में क्‍या हुआ


मुझे दिखाई क्‍यूं नहीं दे रहा। कोई तकनीकी समस्‍या आ गई है क्‍या

किसी को कुछ पता हो तो सूचित करना

Monday, October 1, 2007

रिलायंस फ्रेश का विरोध क्‍यूं


बहुत दिनों से रिलायंस फ्रेश का विरोध किया जा है। अब मैंने इस मुद़दे पर लिखने का मानस बनाया उत्‍तरप्रदेश में कंपनी कि इस घोषणा के बाद कि वह उत्‍तर प्रदेश में अपने सभी स्‍टोर बंद कर रही है। कंपनी की मानें तो इससे कंपनी के करोडों रुपए के नुकसान के साथ-साथ प्रदेश के 900 लोग भी बेरोजगार हो जाएंगे। अब पडताल कीजिए कि रिलायंस के इतने कडे फैसले की वजह क्‍या हो सकती है। शायद इस फैसले से शेयर बाजार में धूम माचने वाली कंपनी यह दिखाना चाहती है कि जिसे विकास चाहिए करें, वह विवाद में नहीं पडना चाहती। अगर आपको रिलायंस नहीं चाहिए तो कोई बात नहीं, न वो आपके प्रदेश में निवेश करेंगे न ही आपके यहां लोगों को रोजगार मिलेगा।
मैं खुद अब तक इस नतीजे पर नहीं पहुंचा हूं कि क्‍या रिलायंस फ्रेश के तेजी से बढते कदमों से क्‍या किसी को नुकसान हो सकता है, सीधे बोलें तो क्‍या उपभोक्‍ता को कोई नुकसान है इससे। मैंने पिछले दिनों जयपुर में ही बहुत सारे लोगों से बात की उनमें ढेर सारे वो लोग भी शामिल हैं, जो पहले लालकोठी ( जयपुर की सबसे बडी सब्‍जी मंडी) से सब्‍जी खरीदते थे और आजकल रिलायंस फ्रेश की शरण में हैं। अब ज्‍यादातर लोग इससे खुश हैं, पार्किंग के लिए परेशान नहीं होना होता। एसी मार्केट से सब्‍जी खरीदते हैं और दाम भी बाजार के बराबर या कम हैं। कम से क्‍वालिटी तो बेशक अच्‍छी है। मुझे अभी तक एक-आध लोग ही मिले जो इसकी बुराई करते नजर आए। अब विरोधियों का तर्क सुनिए कहते हैं कि अभी तक तो ठीक है कि ये सस्‍ती रेट पर सब्‍जी दे रहे हैं। उनका कहना है कि जब ये मार्केट में जम जाएंगे यानी कि जब चारों तरफ रिलायंस फ्रेश ही होगा और ये छुटभैया टाइप के दुकानदार और सब्‍जी वाले भाग चुके होंगे तो वो पुरा मुनाफा वसूलेंगे। हो सकता है उनकी बात में दम हो, इस बात के पांच दस फीसदी चांस हैं। लेकिन मेरी समझ में एक बात नहीं आई कि लोग ये क्‍यूं नहीं समझ रहे कि क्‍या अकेले रिलायंस बाजार को खा जाएगी। हां वो इस कारोबार में उतरी है तो बेशक वो मुनाफा तो कमाएगी ही, लेकिन बाजार के और महारथी क्‍या उसे एक तरफा कमाने देंगे। आप क्‍यू भूलते हैं बिग शॉपर, स्‍पेंसर और भारती एयरटेल और वॉलमार्ट को। क्‍या ये मैदान में नहीं हैं। पंजाब में तो किसान सहकारी संस्‍था बनाकर सीधे मैदान में हैं।
इसलिए मुझे नहीं लगता कि रिलायंस फ्रेश से डरने की जरूरत है, एक आध दुकानदार सब्‍जी वाले को बेशक नुकसान पहुंच सकता है, लेकिन आजतक ऐसा नहीं हुआ कि एक से ज्‍यादा प्रतिस्‍पर्धी होने पर ग्राहक को कभी किसी कीमत पर नुकसान हुआ हो।
मैं चाहता हूं कि समर्थक भले प्रतिक्रिया देने में आलसीपन दिखा दें, क्‍यूंकि मैंने खुद ही इसे एक तरफा कर दिया है पर कम से कम विरोधी तो अपना पक्ष दें, ताकी मैं भी अपना मत बदलने को विवश हो जाऊं।
तो हो जाइये इस बहस में शामिल !

Tuesday, September 18, 2007

मैं क्रिकेट नहीं देखता


बस कहीं आप पहली लाइन से यह न समझें कि श्रीमान राजेंद्र यादव की मैं हंस नहीं पढता से यह हैडिंग चुराया गया है, माफ करें यह बात तो मैंने सपनों में भी नहीं सोची। वैसे मेरे साथी जानते हैं कि मैं कितना बडा चोर हूं।
पहले अमर उजाला की वेबसाइट में था तो इधर- उधर ताकझांक और जुगाड करने की आदत लग गई। उसके बाद मेरे इस हुनर का दुरुपयोग आज भी मेरे कई साथी करा ही लेते हैं।

क्षमा करें सीधे मुददे की बात आज जब महेंद्र सिंह घोनी को भारतीय क्रिकेट टीम का कप्‍तान बनने की खबर सुनी तो सोचा जिंदगी में पहली बार क्रिकेट पर ही कुछ लिखा जाए। वैसे सुबह उठते ही मुझे यकीन हो गया कि कप्‍तान तो धोनी ही बनेगा, क्‍यूंकि एनडीटीवी पर मुझे बहुत भरोसा है और सुबह मैंने एनडीटीवी डॉट कॉम पर खबर पढी कि धोनी के कप्‍तान बनने के आसार तो बस यकीं हो गया। क्‍यूंकि मेरे पत्रकारिता के छोटे से कार्यकाल का अनुभव है कि बीबीसी के बाद एनडीटीवी ही है, जो कच्‍ची खबर नहीं चलाता।
तो मैंने सोचा आज के युग में जनता को यह जानने का अधिकार है कि ऐसा आदमी भी है, जो क्रिकेट नहीं देखता। बात 2002 की है जब अमर उजाला डॉट कॉम में बतौर नाइट शिफ़ट के सबसे जूनियर खिलाडी मुझे बिजनेस के साथ खेल पेज की जिम्‍मेदारी दे दी गई। बस तब थोडे दिन को छोडकर मैंने कभी खेल की खबरों में खास दिलचस्‍पी नहीं ली।
मैं हमेशा से पॉलिटिकल खबरों को पसंद करने वाला हूं, और बीजेपी मेरी कमजोरी रही है। पर आजकल क्राइम की खबर एडिट करने में भी बेझिझक टांग फंसा देता हूं।

खैर मरने दीजिए ये सब, तो मेरी जिंदगी का छोटा सा अनुभव यह कहता है कि अगर आगे बढना है तो बस क्रिकेट से दूरी बना लीजिए। मैं आज जहां भी हूं बस इसी की वजह से, आपको क्लियर कर दूं। बचपन में मेरे सारे दोस्‍त क्रिकेट में दिमाग लगाते सिवाए मेरे । (कोई यह बात पढ रहा हो उस जमाने का साथी, तो माफ करना यह राज उस वक्‍त नहीं बताया जा सकता था) और आपको ये तो पता ही है कि कमबख्‍त कोई न कोई सीरिज तो होती ही फरवरी मार्च में ही है। जब भारत में बच्‍चों की पढाई के लिए सबसे मुफीद टाइम होता है।

मैं बचपन में कई बार तो यह सोचता था कि कहीं यह अमेरिका टाइप के किसी देश की साजिश तो नहीं कि भारत के बच्‍चों को मैच में उलझाये रखो और ये पढ लिख न पाएं ( शायद यह बात मेरे सातवी कक्षा में पढने के दौरान की है) । हालांकि मेरी यह गलतफहमी थोडे दिनों में ही दूर हो गई, जब मुझे पता चला कि अमेरिका तो खुद ही क्रिकेट जैसा टाइम बिगाडू खेल नहीं खेलता।

हां तो अब आप कहेंगे कि काम की बात तो कोई की नहीं अभी तक। तो सुनिए अब अगर टवंटी टवंटी को छोड दिया जाए तो क्‍या आपको नहीं लगता कि क्रिकेट में जबरदस्‍ती ही जरूरत से ज्‍यादा टाइम खराब हो जाता है। पूरा देश काम धाम चौपट करके लगा रहता है मैच देखने में। मैच में अगर जीते तो खिलाडियों की तारीफ शुरू और हार गए तो पहली त्‍वरित टिप्‍पणी साला मूड खराब कर दिया:::: खेलना ही नहीं आता, फलां को वन डाउन भेज दिया, आखिरी ओवर उसको दे दिया जबकि लास्‍ट ओवर्स में पिछले ही मैच में पिटा था।
और गलती से जीत गए तो दस बीस रुपए के पटाखे फोडेंगे। थोडे कंजूस हैं तो अखबार में मजे ले लेकर दो बार मैच की खबर पढेंगे या टीवी पर हाइलाइट देखेंगे या उनके रिकार्ड की तस्‍दीक करेंगे, किसके आसपास का रिकार्ड अब टूटने वाला है यह जानने का जुगाड करेंगे।

अब आप मुझे बताइये पैसा मिला सचिन, सौरव, धोनी:::::::::::: और लाडले इरफान को और आपका क्‍या, सिवाए टाइम खोटी होने के।

हां, तो मैं कह रहा था कि सारे दोस्‍त क्रिकेट देखते और मैं बस उनकी बातचीत झेलने के लिए सिर्फ स्‍कोर बोर्ड। गर्मियों की छुटटी में ज्‍यादा हुआ तो हाइलाइट। इससे ज्‍यादा तो मैं झेल ही नहीं सकता।
बस एक बार मैच कैसा होता है इसलिए 31 अकटूबर 2005 को इंटरनेशनल मैच देखा लाइव वो भी बिना पैसे खर्च किए एसएमएस स्‍टेडियम जयपुर में। और गलती से वो भी इतना यादगार बन गया कि धोनी स्‍टार हो गया। (धोनी को तीसरे वनडे में तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने भेजा गया। उस समय भारत श्रीलंका के 300 रनों के लक्ष्य का पीछा कर रहा था। तेंडुलकर का विकेट गिर चुका था, इसके बाद जो हुआ वह अपने आप में एक इतिहास है। धोनी ने वन डे इतिहास की सबसे बेहतरीन पारियों में से एक खेलते हुए 145 गेंदों पर 183 रनों की शानदार पारी खेली। बाद में इसे विस्डन ने उस साल की सबसे बेहतरीन पारियों में से एक बताया।) स्‍टेडियम धोनी भाई का धूम धडाका, धोनी धो डाला से गूंज गया और मैंने खूब टाइम पास किया। अब लगे हाथ इसकी कहानी भी सुन लीजिए कि मैं कैसे पहुंच गया मैच देखने। लालकोठी में ही रहता था रात को आफिस से आकर सो गया, पर सोते सोते याद आया कि सारा शहर कह रहा है मैच के टिकट नहीं मिल रहे, कोई फ्री का पास जुगाड दे। कई लोग पत्रकार होने के नाते मुझसे भी मांग चुके थे, पर मैंने बला टालने के लिए वही अपना पुराना डायलॉग मार दिया, बॉस मैं यहीं थोडा पढा लिखा दिखता हूं आफिस में अपनी बिलकुल नहीं चलती। पर रात को सोते सोते मैंने सोचा यार पता नहीं अगली बार जयपुर में कब मैच हों, अपन भी लगे हाथ गंगा स्‍नान कर लें।
बस रात को सोते सोते दो चार को फोन किया। पता चला कि टिकट नहीं मिलेंगे। मैं यह खबर सुनकर सो गया, पर सुबह उनमें से ही किसी का फोन आया कि यार वीवीआईपी तो नहीं मिल पाएंगे, अगर जाना है तो पांच हजार वाला एक टिकट है, सुबह ले लेना।

बस मैं सुबह साढे आठ जगा और पहुंच गया मैच देखने, पूरा दिन
खराब किया और पर बस यह खुशनसीबी थी बस धोनी स्‍टार क्रिकेटर बन गया और शानदार बालों का मालिक लाइमलाइट में आ गया और मैं शाम को आफिस भी पहुंच गया, जरा देर हुई पर मैनेज हो गया।

अब मैं सोचता हूं कि जिंदगी में कोई अनुभव बेकार नहीं जाता, अगर उस दिन में मैच देखने नहीं गया होता तो क्रिकेट पर इतनी बकवास मैं किस मुंह से करता !
शुक्रिया दोस्‍तों

क्‍या किताब की चोरी चोरी नहीं है


दोस्‍तो

जयपुर में इन दिनों राजस्‍थान पत्रिका का राष्‍टीय पुस्‍तक मेला चल रहा है। रविवार को मैं भी गया देखने। वैसे तो मुझे पढने लिखने की खास ‘बुरी’ आदत नहीं है, लेकिन हमारे संस्‍थान में माननीय प्रंबंध निदेशक और पत्रिका के संपादक श्री गुलाब कोठारी ने विशेषतौर पर हिदायत है कि ‘आप पढने लिखने वालों के पेशे में हैं, लोग आप पर भरोसा करते हैं, आपकी हर लाइन को जनता सोकर उठते ही पत्‍थर की लकीर की तरह सच मानती है, इसलिए आपको पढने की आदत होनी चाहिए।’ इसलिए कोशिश में लगा हूं, कि कुछ पढ लिख लूं, पर अभी खरीदने की आदत ही लगा पाया हूं, कोशिश करुंगा कि जो लाया हूं वो पढ लूं।
हां तो रेफरेंस छोडकर आगे सुनें तो जैसे ही मैंने किताबें देखनी शुरू की मुझे याद आया कि उनमें से कई किताबें मैंने पिछले साल खरीदी थीं, लेकिन अब न तो अभी तक पढीं न ही वे घर पर मौजूद हैं। दिमाग पर जोर डाला तो कुछ किताबों के नाम भी और याद गए, और कुछ लोगों के भी जो किताबें लेकर गए थे। मेरे साथ बुक फेयर में गए मेरे मित्र से मैंने कुछ किताबें लोगों के ले जाने की बात कही, तो पास खडे सज्‍जन भी बोल गए भई किताब की चोरी चोरी नहीं। एक बार जो किताब ले गया वो लौटता नहीं।
बस मुझे लगा कि उन्‍होंने वही कह डाला, जो मैं कहना चाहता था। वैसे मैं किताबे हर किसी को तो देता नहीं पर खास मित्र भी इस मामले में लापरवाह हैं। या तो लेकर भूल जाते हैं या फिर वो भी किसी और को दे देते हैं। इसलिए मेरी नेक सलाह मानिए इसे पढकर आज ही याद कीजिए कब कौनसी किताब खरीदी थी, आज वो कहां है।
वैसे मैंने अपनी आदत में एक सुधार कर लिया है कि पहले किताब बिल उसी किताब में रख देता था, अब मैंने एक फोल्‍डर में डालने शुरू कर दिए हैं, ताकी कभी बिल भी दिख जाए तो याद तो आ जाए कि फलां किताब मेरे पास थी। और दूसरा आजकल मैं मना कर देता हूं कि बॉस मैं पढने के लिए किताब किसी को भी नहीं देता,एक बार बुरा लगता है लेकिन आपको कुछ तो करना ही पडेगा न। वैसे भी आदमी पैसा खर्च करता है तभी किसी चीज की कद्र करता है। फ्री की चीज को आदमी सीरियसली नहीं लेता चाहे किताब हो या मेरी सलाह !

Wednesday, September 12, 2007

बेहद निजी मामले में मेरी राय


यूं तो शादी बेहद निजी मसला है। स्‍वतंत्र देश में हर व्‍यक्ति को अधिकार है कि वह अपनी पसंद से कानूनसम्‍मत उम्र में किसी से भी शादी करे पर कुछ मामले ऐसे होते हैं कि आपकी शादी पर आपके पूरे संसार (यानी जिसके इर्दगिर्द आपकी जिंदगी होती है ) की नजर अचानक आप पर आकर टिक जाती है।
पिछले कुछ दिनों में कई ऐसे मामले मेरे कुछ परिचितों के साथ हुए कि शादी जैसे निजी मसले पर भी मुझ जैसे कच्‍ची उम्र के युवक को कुछ लिखना जरूरी हो गया।
कहते हैं शादी ईश्‍वर तय करता है आदमी को तो बस उसकी रस्‍में भर निभानी होती हैं। ऐसे में अगर ईश्‍वर में आपकी आस्‍था है तो जो हुआ उसे ईश्‍वर की मर्जी मानना चा‍हिए। तो अब इसी तरह की एक शादी जिस पर मैं आपका ध्‍यान केंद्रित करना चाहता हूं कि लव मैरिज को देखने का समाज का नजरिया अलग कैसे हो जाता है। क्‍या यह ऐसा कुछ नहीं है कि हम अपनी सुविधा के अनुसार नए प्रतिमान गढ लेते हैं और पुरानी मान्‍यताओं को झुठलाने में पीछे नहीं रहते।
क्‍या लव मैरिज का विरोध करना ईश्‍वर की इच्‍छा का विरोध करना नहीं है या हुई हुवाई शादी के बीच टपकना भर और एक प्रेमी युगल के जीवन को परेशानियों के झंझावात में डालना नहीं है, जिनकी शादी पहले ही हो चुकी है। अपनी इज्‍जत का मामला बताकर उसमें टांग फंसाना क्‍या फालतू की कवायद नहीं है।

शादी करने का तरीका भले ही अलग हो सकता है, लेकिन लव मैरिज करने में मेरी नजर में कोई बुराई नहीं है। वैसे मैं इस मामले में पूर्वाग्रहग्रस्‍त हूं। हां, मेरा मानना है कि आपने पूरी गहराई, गंभीरता से प्‍यार को लिया हो और दूसरी ओर भी प्रेम की अगन ठीक उतनी ही लौ में दहक रही हो।
मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूं, जहां एक ही समाज या अलग अलग समाजों के युवक युवतियों की लव मैरिज के बाद भी कहीं किसी तरह की दिक्‍कत नहीं है और वे सुख चैन की जिंदगी जी रहे हैं।
मेरे एक दोस्‍त के परिवार का उदाहरण ही लीजिए उनके परिवार में तीन भाइयों में से दो ने कलव मैरिज की और उनके पिता यानी मेरे अंकल का मत है कि शादी सिर्फ बडे बुजुर्गों का मन और मान रखने के लिए ही नहीं होनी चाहिए, बच्‍चों की खुशी को ध्‍यान में रखना ज्‍यादा जरूरी है क्‍योंकि जिंदगी भर उन्‍हें एक दूसरे का साथ निभाना है। इसलिए उनकी खुशी के लिए अगर थोडा बहुत एडजेस्‍टमेंट भी करना पडे तो करना चाहिए। आखिरकार सामाजिक मान्‍यताओं के जनक भी तो हमी हैं और युगधर्म के अनुसार इसमें परिवर्तन की गुंजाइश होनी ही चाहिए। इसका सुफल मुझे तब देखने को मिलता है जब आप उस खुश जोडे को सुबह उठकर देखते हैं तो दिल को सुकून मिलता है।
खैर, मामला एक ही जाति और समाज का हो तो समाज के कुछ तथाकथित ठेकेदारों और परिवार को कोई दिक्‍कत नहीं होती, थोडी बहुत मान मनोव्‍वल के बाद मामला शांत हो जाता है और कुछ दिनों बाद या घर में नए मेहमान के आने के बाद धीरे धीरे दोनों परिवारों में आना जाना भी शुरू हो जाता है। लेकिन यह पूरा मामला पेचीदा या यूं कहें यह सारा गणित उस समय गडबडा जाता है, जब मामला दो समाज या दो अलग अलग धर्मों का हो। कई बार मामला बीच बचाव से ही सम्‍पट में आ जाता है, लेकिन कई बार खून खराबे तक की नौबत आ जाती है। ऐसा ही एक वाकया अभी कुछ दिन पहले मेरी जानकारी में आया।
प्रेम विवाह के विरोध में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि ये बच्‍चों के अपने स्‍तर पर तय करने और बडे बुजुर्गों का मार्गदर्शन नहीं होने से अक्‍सर असफल हो जाते हैं। लेकिन असल कारण क्‍या हैं, इसकी पडताल हमें ही करनी होगी। यदि किसी को कोई आइडिया हो तो मुझे बताएं।

अब एक उदाहरण लीजिए
डीआईजी की लडकी और एक सामान्‍य परिवार के लडके के सात साल तक चले प्रेम संबंधों की परिणति शादी के रूप में हुई। लेकिन शादी के महज तीन साल में ही मामला फैमिली कोर्ट में है और तलाक के लिए अर्जी दे रखी है। शुक्र है कि बच्‍चे नहीं थे। इसमें एक बात और उल्‍लेखनीय है कि मामला इस मोड पर है उसके बावजूद लडके ने हिम्‍मत नहीं हारी और लडकी से मिलने की कोशिश की, लेकिन वह लडकी के परिवार के बेहद कडे पहरे को भेद कर वहां तक पहुंचने में कामयाब नहीं हो सका। कोर्ट ने लडकी को पेश करने के आदेश दे दिए हैं, लेकिन डीआईजी साहब ने अभी तक लडकी को कोर्ट में पेश नहीं किया। अब नतीजा जिसके भी पक्ष में रहे, लेकिन यह तय है कि प्‍यार की जीत बमुश्किल ही हो सकेगी। लोगों को असफल लव मैरिज का एक और उदाहरण मिल जाएगा।

Saturday, September 8, 2007

क्‍या खुद के लिए सोचा भी होगा


अजब है उनकी जिंदगी, पता नहीं कैसे जीती हैं
हर वक्‍त सिर्फ दूसरों के लिए ही जीती हैं वो

खुद के लिए जीना तो शायद जानती ही नहीं
आडे आते है मां-बाप या पति और प्रेमी के ख्‍वाव
कल उससे बात हुई तो हैरान हो गया मैं
उसके नूर के पीछे की स्‍याह जिंदगी में झांका ही नहीं पहले कभी
क्‍या उनके अरमान पूरे करेगा कोई सोचता हूं मैं
शायद कर भी दे कोई, पर कभी खुद के लिए सोचा भी होगा



  • (लेखक न तो नारीवादी हैं, न ही कवि

बस यू ही किसी पुरानी दोस्‍त से बातचीत हुई तो

अचानक कलम चल गई,

जो बन पडा पेश है,
कोई सुझाव हो तो मार्गदर्शन करें )

Monday, September 3, 2007

असली हकदार तो हिंदी ही है





सीएम रिलीफ फंड से सात लाख का विशेष अनुदान जारी कर हिंदी के सात विद्वानों को विश्‍व हिंदी सम्‍मलेन में न्‍यूयॉर्क भेजने के मामले को हमारे साथियों ने गंभीरता से उठाया। अरे भई हिंदी दिवस आ रहा है, हिंदी की रोटी खाने वालों को कम से कम इस माह में तो हिंदी के विद्वानों को तत्‍काल प्रभाव से सीएम के इस विशेषाधिकार कोटे पर विदेश भेजने की तो मुक्‍त कंठ से प्रशंसा करनी चाहिए थी।
वैसे भी अभी 14 तारीख को (हिंदी दिवस पर) जगह-जगह समारोह होंगे, हिंदी को आगे बढाने की बात उठेगी, उसके लिए विशेष अनुदान की माग होगी।
प्‍यारे भाइयों कभी तो पॉजिटिव सोचा करो। इस महान कर्म को भ्रष्‍टाचार कहने की जगह कुछ इस तरह क्‍यूं नहीं समझ लेते कि हिंदी को अंतरराष्‍टीय स्‍तर पर सम्‍मान दिलाने के लिए अंग्रेजी पढी लिखी हमारी सीएम कितनी तनम्‍यता से जुटी हैं। सीएम रिलीफ फंड, जिससे अभी तक विपदाग्रस्‍त और मरे गिरे लोगों के परिवार को या किसी इसी तरह के प्रायोजन पर खर्च किया जाता था।
हिंदी प्रेमी सीएम ने तो इसका दायराभर बढाया है। यूं तो इस फंड की असली हकदार तो हिंदी ही थी, जिसे अपना हक स्‍वतंत्रता के करीब साठ साल बाद मिला है। अगर इस तरह के अनुदान तब से मिले होते तो कम से कम से हमारी हिंदी न सही, हमारे हिंदी विद्वान तो न्‍यूयॉर्क, मॉरिशस, पोर्ट लुई, त्रिनिदाद और लंदन तो घूम ही चुके होते !

(हिंदी के उन सात विद्वानों का नाम बेवजह उछालने पर क्षमा सहित। लेखक का यह पहला सीरियस र्व्‍यंग्‍य है, इसे मजाक में न ले )