Tuesday, February 19, 2008

अगर सीता को दशरथ की बीवी बना दें तो ...


धीरे धीरे फिल्‍म जोधा अकबर का विरोध तूल पकडने लगा है। सबसे पहले जयपुर में इस फिल्‍म के खिलाफ आवाज उठी। यहां राजपूत समाज और उससे जुडे एक सामाजिक राजनीतिक संगठन करणी सेना ने फिल्म में इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप लगाया। पिक्चर हॉल वालों को खून से खत लिखकर फिल्म रिलीज न करने को कहा। तोडफोड की आशंका के बाद सिनेमाहॉल मालिकों ने फिल्‍म को रिलीज न करने का आश्‍वासन देकर खुद को अलग कर लिया।
जयपुर की सफलता के बाद अब पटना से लेकर अमेरिका तक विरोध हो रहा है। चंडीगढ में तो मामला कोर्ट में पहुंच गया। यह बात अलग है कि इसबीच फिल्‍म की पायरेटेड सीडी राजस्‍थान समेत पूरे देश में सौ रुपए से कम कीमत में उपलब्‍ध है।
पर अपन को करणी सेना के संरक्षक लोकेंद्र कालवी के एक स्‍टेटमैन ने इतने पुराने मसले पर लिखने को मंजबूर कर दिया। वर्ना अपन भी पहले यही कह रहे थे कि फिल्‍म को फिल्‍म की तरह देखिए, उसमें फालतू अक्‍ल ही काहे लगा रहे हो। पर जब टीवी पर कालवी साहब का बयान सुना कि भई सीता को दशरथ की बीबी बनाकर फिल्‍म में दिखाया जाए तो क्‍या लोग विरोध नहीं करेंगे। मुझे लगा कि शायद उनका विरोध जायज है। तरीका भले ही गलत हो सकता है।
फिल्‍म के डायरेक्‍ट आशुतोष गोवारिकर भले कहें कि उन्‍होंने फिल्‍म बनाने से पहले इरफान हबीब सहित कई इतिहासकारों से बात की है। अकबर की जीवनी अकबरनामा भी पढ़ी है। पर ज्‍यादातर लोग कह रहे हैं कि जोधा बाई अकबर की बीवी नहीं थी , बल्कि वह उसके बेटे जहांगीर की पत्नी थी। यह गलतफहमी के आसिफ की सुपर हिट फिल्म मुगले आजम के कारण और बढी है, जिसमें अकबर और जोधा बाई को पति - पत्नी दिखाया गया था। हालांकि इस फिल्‍म में मुख्‍य कहानी अकबर के बेटे जहांगीर और अनारकली के इर्द गिर्द थी। और कहते हैं कि लगभग तभी से फतेहपुर सीकरी के गाइडस ने भी जोधा को अकबर की बीबी बताना शुरू कर दिया। अपन धर्म या समाज के नाम के फिल्‍मों की इस तरह के सामाजिक और राजनैतिक संगठनों से सेंसर के पक्ष में नहीं हैं। पर आशा करते हैं कि स्‍वदेश और लगान जैसी बेहतरीन फिल्‍म बना चुका एक फिल्‍मर अगर स्‍टोरी के रिसर्च पर थोडी रकम और समय खर्च करता तो बाद में यह मुसीबत नहीं होती और राजस्‍थान के लोग भी घर की जगह सिनेमा हॉल में फिल्‍म का मजा ले सकते।
पर एक बार कालवी की बात पर भी गौर करके सोचिए भले ही फिल्‍म है, लेकिन इस बात को यहीं नहीं रोका गया तो आने वाली पीढियां तो शायद परीक्षाओं में अकबर की बीवी का नाम जोधाबाई ही लिखने लगेंगी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि इतिहास पर फिल्‍म बनाते समय भव्‍य सैट ही न देखें, स्‍टोरी लाइन पर भी काम किया जाए।

Wednesday, February 13, 2008

आज का युवा क्‍या करे, क्‍या न करे


आज का युवा दुराहे पर खडा है। उसके साथ बडी समस्‍या है कि अगर वो पुराने रीति रिवाज और नियमों में बंधा है तो उसे आउटडेटेड या कमजोर समझा जाता है और पढाई को छोड बाकी सारे काम करे, मौज मस्‍ती करे तो वह मेटोसेक्‍सुअल यूथ है। क्रिकेट नहीं देखे तो प्रॉब्‍लम, फिल्‍म के बारे में जानकारी न हो तो अपने ही दोस्‍तों के बीच हंसी का पात्र। गर्लफ्रेंड नहीं हो तो सोसायटी में इज्‍जत नहीं।

25 साल तक बेरोजगारी और पढाई के दौरान में पता नहीं वह क्‍या-क्‍या करता है। सिर्फ पेट के लिए यानी नौकरी के खातिर। उसके अलावा किसी की याद आती है तो बस लडकियां, क्रिकेट या फिल्‍में। अब किसके पास फुर्सत की वह प्रेम‍ दिवस यानी वेलेंटाइन डे को छोड प्रेमचंद की पूस की रात पढे या ओबामा की वोटिंग परसेंटेज पर दिमाग लगाए।
मसलन अपनी ही बात करुं, मैं भी युवा ही हूं। जिंदगी के 21 साल तक कोर्स की किताब या कॉम्‍पीटिशन की तैयारी के लिए कुछ एक दूसरी किताबों को छोड शायद ही कुछ और पढा हो। वो तो शुक्र था कि छठी क्‍लास से ही रेग्‍यूलर लाइब्रेरी जाता रहा। वर्ना पता चलता कि आज अपन भी बेरोजगारों की भीड में खडे हैं।
लाइब्रेरी में अखबार के बाद इंडिया टुडे, प्रतियोगिता दर्पण या विज्ञान प्रगति को छोड कुछ और नहीं पढता। कई बार याद है कि छोटे होने के नाते मुझसे बडे उम्र के लोग प्रतियोगिता दर्पण मांगकर बालहंस और सुमन सौरभ पढने की सलाह देते। हां बस कई बार चोरी छिपे गृहशोभा जरूर उठा लेता था ( बच्‍चों को गृहशोभा पढने से लाइब्रेरियन रोकता था)
पहली बार उपन्‍यास या कोई और किताब मैंने स्‍वतंत्र रूप से पत्रकारिता में आने के बाद एक वरिष्‍ठ साथी की राय पर सुरेद्र वर्मा की “मुझे चांद चाहिए” पढी। उसके बाद मुझे ऐसी धुन सवार हुई कि पत्रकारिता में शुरुआती दो तीन साल में 20 25 प्रमुख किताबें पढ डाली। अब हर साल बुक फेयर से न न करते भी दस बारह किताबें तो ले ही आता हूं। पर ये ब्‍लॉगिंग के चस्‍के ने चार घंटे तो नेट पर ही बैठने को मजबूर कर दिया।

खैर इन सबके बाद मैं देखता हूं तो लगता कि मेरे बाद पत्रकारिता में आने वाले या दूसरे युवा साथियों की हालत तो मुझसे भी ज्‍यादा खराब है। कई बार खुद को साइंस का स्‍टूडेंट मानकर सोचता हूं कि शायद मुझे हिंदी साहित्‍य की इतनी जानकारी नहीं है, तो चलेगा। पर शायद मेरा यह रवैया भी ठीक नहीं।
कई बार जब हिंदी साहित्‍य, संस्‍कृत या इतिहास से जुडा मामला खोजना होता है तो विकिपीडिया या गूगल ही आखिरी समझदार साथी होता है। मसलन अभी समस्‍या सामने आई कि हिंदी महीनों के हिसाब से कौनसी रितु कब आती है। कई लोगों से पूछा किसी को ठीक से जानकारी नहीं थी। वो तो भला हो विकिपीडिया का कि वहां सब कुछ है, वर्ना ये भी नहीं पता चलता कि बसंत पंचमी जरूर आ गई पर बसंत का मौसम तो मार्च अप्रैल में आएगा। इसलिए अब कई बार लगता है कि जो 21 साल तक पढा वो शायद कहीं काम नहीं आ रहा और यूं रस्‍ते चलते जो सबक सीखे थे वो व्‍यावहारिक जिंदगी में ज्‍यादा उपयोगी साबित हो रहे हैं।

Monday, February 11, 2008

क्‍या मतलब हुआ इसका जरा देखिए


कई बार जल्‍दबाजी या नासमझी में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। आदमी करना क्‍या चाहता है और हो क्‍या चाहता है। ऐसा ही कुछ शायद इधर हुआ। अपन के घर एक कार्ड आया उसका मजमून आप फोटो पर क्लिक करके आराम से देख सकते हैं। पर लिखने वाले ने शायद यह सोचकर नहीं लिखा हो, जो मैं और आप समझ रहे हैं।

कार्ड में लिखा गया मेरी धर्मपत्‍नी की प्रथम पुण्‍य तिथि समारोह के शुभ अवसर पर आपको सादर आमंत्रित करते हैं।
कार्ड वाले अमूमन एक ड्राफ्ट तैयार रखते हैं और उसमें प्रोग्राम या नाम बदलकर छाप देते हैं। शायद इस तरह पुण्‍य तिथि पर समारोह का कार्ड प्रिंटिंग प्रेस वाले के पास पहली बार छपने आया हो और जल्‍दबाजी में ही यह अनर्थ हो गया हो। वर्ना यह कौन लिखना चाहता होगा कि अर्धांगनी का जाना उसके लिए शुभ अवसर है।
शायद इसीलिए कहते हैं सावधानी हटी दुर्घटना घटी

Thursday, February 7, 2008

मोबाइल कं‍पनियों की एक्स्ट्रा इनकम के सोर्स

ये मोबाइल इतनी जल्‍दी लोकप्रिय हुआ है कि पूछिए मत। और ये मोबाइल बनाने वाली से ज्‍यादा इन सर्विस प्रावाइडर्स ने मोटा माल कमाया। एयरटेल से लेकर रिलायंस तक, यह बात सबको पता है। लेकिन आजकल इन कं‍पनियों ने ग्राहकों को चूना लगाने के लिए एक से एक स्‍कीम चला रखी हैं। या कहिए लूट मचा रखी है इन कंपनियों ने
अपन के पास टाटा इंडिकॉम का नंबर है। आपके पास भले ही किसी का नंबर हो पर ये जानकारी आपकी अर्थव्‍यवस्‍था में डाका पडने से रोक सकती है।
टाटा के फोन में 12900 नंबर टाटा की वायस स्‍टेशन का नंबर है और टाटावाले इस नंबर को हैंडसेट में एक नंबर पर फास्‍ट डायलिंग में सेट करके रखते हैं।
अभी अपन की जेब में पता नहीं कैसे मोबाइल का की-पेड खुला रह गया और करीब 13:48 मिनट तक फोन इस नंबर पर लगा रहा। अपन को यह बात अगले फोन बजने के बाद पता चली। तुरंत कस्‍टमर केयर पर फोन लगाया तो पता चला कि छह रुपए पचास पैसे प्रतिमिनट इस सुविधा का शुल्‍क है।
अपन के तो दिमाग की बत्‍ती गुल हो गई, यानी बैठे बिठाए सौ रुपए का चूना। इलाज पूछा तो पता चला कि अब 12977 पर फोन करके इसमें पासवर्ड डाला जा सकता है और इसे फास्‍ट डायलिंग से हटाया जा सकता है। अपन न तो तुरंत इस “असुविधा” को बंद करा दिया। अगर आपके पास भी फास्‍ट डायलिंग में ऐसा कोई नंबर है तो तुरंत हटा लें।

टाटा के फोन में 12900 नंबर टाटा की वायस स्‍टेशन का नंबर है, अगर आपके फोन में फास्‍ट डायलिंग में लगा है तो तुरंत हटा लें

मैंने यह बात अपने टाटा धारक एक दोस्‍त को बताई। उसने कहा हां यार, कई बार हो चुका है ऐसा। पर वह हाथोंहाथ अपने पिछला बिल देखने लगा तो उसे पता चला कि दिसंबर के बिल में उसके 62 मिनट एक साथ इसी नंबर पर लग गए, यानी 372 रुपए का नुकसान। ये हाल तो तब है, जब इस नंबर पर कॉल करने के बाद बार बार में की एंटरी करनी होती हैं, पता नहीं 62 मिनट फोन एक साथ चालू कैसे रह जाता है इस नंबर पर।
हां इसी तरह वोडाफोन के कई हैंडसेट में तो एक स्‍क्रीन सेवर ही बार बार में आ जाता है और गलती से एग्जिट होने की जगह ओके हो जाता है, तो इसी तरह साढे छह रुपए प्रतिमिनट वाली कॉल लग जाती है।

Tuesday, February 5, 2008

मुंबई क्‍या राज ठाकरे की बपौती है

क्‍या मुंबई या महाराष्ट्र पर अकेले राज ठाकरे का राज है।
मुझे ये समझ नहीं आता कि राज का समर्थन कर रहे और उसके समर्थन में उत्‍तरी भारतीय लोगों व्‍यापारियों को पीट रहे देश के उन लोगों में जरा भी बुदि़ध नहीं है या पॉलिटिक्‍स के चक्‍कर में सारी बेच खाई है।
वैसे मुंबई क्‍या अकेले राज ठाकरे की है। यह भारत की आर्थिक राजधानी है। उसके निर्माण में उतना ही योगदान एक राजस्‍थानी का है, जितना मराठी का है। उतना ही एक बिहारी का।
क्‍या मुंबई की फिल्‍म इंडस्‍टी सिर्फ मुंबई या महाराष्ट्र के भरोसे चल रही है। क्‍या उसमें यूपी और झारखंड का कोई योगदान नहीं है। क्‍या ये शेयर मार्केट, जिसका गढ मुंबई में है, उसमें देश के दूसरे राज्‍यों के लोग कारोबार नहीं करते। क्‍या उसमें किसी और का रुपया नहीं लगा हुआ।
क्‍या मुंबई में आफिस बनाकर स्‍टार टीवी या सीएनबीसी देश की खबरें नहीं दिखाता।
क्‍या मराठी शरद पवार के फैसले को सारे देश के क्रिकेटप्रेमी नहीं झेलते।
क्‍या सचिन तेंदुलकर और लता मंगेशकर महाराष्ट्र की बपौती है, क्‍या इन पर राज ठाकरे का अकेले अधिकार है।
उत्‍पाती लोग सिर्फ ये दो लाइन पढ लें, कि अगर जो आप मुंबई में उत्‍तर भारतीयों के साथ कर रहे हैं अगर यह काम सिलिकॉन वैली में अमेरिका वालों ने कर दिया तो क्‍या होगा।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना वाले बद दिमाग लोगों हम तो कम से कम एक ही देश के वासी हैं। हमारे देश में ही अगर दूसरे राज्‍य के लोगों के साथ ऐसे मारपीट होगी तो जो भारतीय विदेशों में बसे हैं, उनकी सुरक्षा की क्‍या गारंटी होगी। वे करोडो हिंदुस्‍तानी जो भारत से बाहर वर्षों से रह रहे हैं, उनका क्‍या होगा। आईटी कंपनियां और उनमें काम करने वाले लोग, जिन्‍हें हमारी मजबूत अर्थव्‍यवस्‍था का हिस्‍सा माना जाता है, उनका क्‍या होगा।

Monday, February 4, 2008

जयपुर में प्रभाषजी और प्रभु चावला में टकराव

जयपुर में दो दिवसीय नेशनल ज्‍यूडिशियल कॉनक्‍लेव शनिवार को संपन्‍न हुई। इसका उद़घाटन शुक्रवार शाम को हुआ और शनिवार को पहले सत्र में विधि, न्‍याय एवं जनमत तथा मीडिया की भूमिका एवं दायित्‍व विषय पर विचार रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट जज गणपत सिंह सिंघवी के साथ साथ वरिष्‍ठ पत्रकार प्रभाष जोशी और प्रभु चावला भी थे।
पहले प्रभाषजी का नंबर था बाद में प्रभुजी का। पर प्रभाषजी के कुछ मुददों को प्रभुजी ने दिल पर ले लिया और इसके जवाब में उनका नाम लेकर खूब गरजे। उनके भाषण के बाद प्रभाषजी दो मिनट बोलने आए और अपनी बात कही, प्रभुजी भी फिर से मंच पर आए लेकिन वकीलों ने विरोध करते हुए उन्‍हें बैठा दिया और बहस बंद करने को कहा। पूरे शहर ने देखी दो दिग्‍गज पत्रकारों की यह गरमा गर्मी। बस बाद में प्रभुजी ने किसी तरह मीडिया मैनेज किया और यह गरमागरमी का मामला छपने से बचवा लिया। पर कॉनक्‍लेव के सभी सत्रों में वक्‍ताओं ने इसकी चर्चा की। मतलब इस कार्यक्रम की आयोजक बार एसोसिएशन भी यही कहती रही कि सारी चर्चा को इन दो पत्रकारों की टसल हाइजेक कर गई।
हुआ ये कि प्रभाष जोशी ने अपने भाषण में वर्तमान में मीडिया की दुर्दशा पर कहा कि आज के दौर में जबकि सजायाफता संजय दत्‍त को गांधीगिरी का सच्‍चा वारिस बताया जाता है, शाहरुख खान को इंडियन ऑफ द ईयर घोषित किया जाता है। जहां शाहरुख की हैसियत मनमोहन सिंह से और अनिल अंबानी की चिदंबरम से ज्‍यादा हो ऐसे मीडिया की हालत का अंदाजा खुद ही लगाया जा सकता है।
मीडिया को मुनाफा कमाना का जरिया बताते हुए प्रभाषजी ने कहा कि पहले मीडिया मुनाफा कमाने के लिए काम नहीं करता था। आपातकाल के दौरान इंडियन एक्‍सप्रेस और स्‍टेट़समैन अखबारों का हवाला देते हुए उन्‍होंने रामनाथ गोयनका को याद किया। उन्‍होंने कहा कि यदि वो अखबार को मुनाफा कमाने का जरिया बनाते तो इंदिरा गांधी को चुनौती नहीं दे सकते थे।
करीब 35 मिनट में से 27 मिनट तो प्रभुजी खूब अच्‍छा अच्‍छा बोले वर्तमान पत्रकारिता, उसकी जल्‍दबाजी, आपाधापी पर प्रकाश डाला लेकिन लास्‍ट के आठ मिनट ने सारा मामला गरमा दिया।
बाद में प्रभु चावला ने प्रभाष जोशी के जवाब में कहा कि गोयनका का उददेश्‍य भी मुनाफा कमाना ही था। प्रभुजी ने कहा कि संपादक और वरिष्‍ठ पत्रकार, नौकरशाह रिटायरमेंट के बाद आदर्शों की बडी बडी बात करते हैं। चावला ने वर्तमान दौर की मीडिया का समर्थन करते हुए कहा कि यह समय के साथ चलने की मजबूरी है। चावला ने प्रभाषजी का नाम लेकर कहा कि गोयनका ने भी मुनाफा कमाने के लिए काम किया था। समय के साथ नहीं चलने पर इंडियन एक्‍सप्रेस समूह की आज क्‍या हालत है, किसी से छिपी नहीं है। उन्‍होंने कहा कि प्रभाषजी, गोयनकाजी ने कैसा जनसत्‍ता सौंपा, जिसकी आपने क्‍या हालत कर दी। आपने समाचार पत्र को विचार पत्र बनाकर रख दिया और विचार रखने से कौन रोक रहा था, लेकिन खबरों में न्‍यूज की जगह व्‍यूज लिखने के लिए किसने कहा। उन्‍होंने कहा कि संपादकों को राजनीति नहीं करनी चाहिए। अगर आपको राजनीति करनी है तो राजनीतिक दलों में जाना चाहिए।
इसके बाद प्रभाष जोशी फिर मंच पर आए और कहा कि मैं राज्‍यसभा का सदस्‍य या पदम भूषण के लिए काम नहीं करता, ( डायस ठोंककर बोले) पहले भी ऐसे ही बोलता था और आज भी।
इसके बाद प्रभु चावला ने बोलना चाहा, सीट से उठे भी लेकिन वे इस बात को प्रभाषजी से व्‍यक्तिगत रूप से लेने की बात ही कह पाए कि लोगों ने उन्‍हें इस चर्चा को बंद करने के लिए बैठ जाने को कहा।
पर इस मामले ने पत्रकारिता जगत के अंदर की दो विधाओं के इन दिग्‍गजों के मतभेद सार्वजनिक कर दिए। बाद के सत्रों में खूब चर्चा हुई और जज यह कहते रहे कि हमने पत्रकारिता की अंदर की कहानी अभी देखी। हमें खबरों में और गंभीरता दिखानी चाहिए वगैरह वगैरह।

Sunday, February 3, 2008

सिर्फ कॉमनसेंस का जॉब है पत्रकारिता

एक छोटे से एक्सिडेंट में अपन की टांग टूट गई है। साथ देने के लिए अपन के दोस्‍त और कुछ वरिष्‍ठ साथी घर आ गए। संडे था इसलिए कुछ लोग फ्री थे और दिनभर अपन के घर मजमा लगा रहा।
कुछ ज्ञान की बातें हुईं अचानक याद आया कि आज 3 फरवरी है। इसी से जुडा एक किस्‍सा फरमाया गया। इसका कुल जमा मतलब यह कि पत्रकारिता सिर्फ कॉमनसेंस का जॉब है।
पिछले साल इसी दिन जयपुर में एक समाचार पत्र में पेज एक पर खबर छपी “विमान से भेजा राजमाता का शव”। और इसी समाचार पत्र के पेज सात पर राजमाता के शव को एंबुलेंस से ले जाते हुए फोटो छपा। इस खबर में एक जज को सरकारी विमान नहीं देने के पुराने समाचार का जिक्र करते हुए सरकार की सामंती कार्यप्रणाली पर शहर के वकीलों की प्रतिक्रिया ली गई और पैकेजिंग करके छापा गया। यानी उस मामले पर प्रतिक्रिया जो हुआ ही नहीं।
सुबह जब मामले का खुलासा हुआ तो एक सलाहकार संपादक, एक वरिष्‍ठ उपसंपादक और एक रिपोर्टर के इस्‍तीफे मंजूर कर लिए गए वहीं तीन लोग बडी मुश्किल से नौकरी बचा पाए।
मतलब साफ कि किसी ने फोटोजनर्लिस्‍ट की बात नहीं सुनी। एक ही अखबार में, पेज वन की प्रमुख खबर को झुठलाता फोटो पेज सात पर छपा। ये हालात तब थे जब खबर में पूरी प्रिंटर (पेज वन) डेस्‍क, चार रिपोर्टर, एक चीफ रिपोर्टर एक कार्यकारी संपादक और एक संपादक जुटे हुए थे।
संदेश साफ की पत्रकारिता में कॉमनसेंस सबसे अहम है और छोटों की बात भी सुनी जानी चाहिए।