Wednesday, May 6, 2009
जयपुर की सडक पर ये स्टंट
चुनाव का समय है। सारी निजी बसें पकडकर चुनाव डयूटी में लगा दी हैं। शहर की सडकों पर दो दिन से गिनती की सरकारी बसें चल रही हैं। और शायद इसीलिए बस रुकते ही चढने की मारामारी हो रही है।
पर शायद ये लोग या तो कुछ ज्यादा ही हिम्मत वाले हैं या इन्हें अपनी बीमा पालिसी और किस्मत पर ज्यादा भरोसा है। गेट से अंदर घुसने को जगह न मिली तो बस के पीछे ही लटक गए और फिर स्टंट करते करते चलती बस में ही अंदर जगह पाने में सफल भी हो गए। कल दोपहर ढाई बजे तपती घूप में रिद़धी सिद़धी से गुर्जर की थडी के बीच जिंदगी और बस के इस सफर को आप तक पहुंचाया हमारे वरिष्ठ ब्लॉगर साथी अभिषेकजी ने।
वैसे अभिषेकजी की नजरें बहुत तेज हैं। चलती सडक पर वो बहुत कुछ खोज लेते हैं।
शुक्रिया सर जो आपने शुरुआत के लिए ये चित्र उपलब्ध कराए।
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12 comments:
priy rajeev
दरसल कुछ दुस्साहसी लोग (बस पर लटके टाइप )
अपने घरवालों को , ये कह कर ही घर से निकलते होंगे......
कि "शाम को मेरे लौटने का इन्तजार मत करना........"
जब आदमी अपनी टांग तुडाने की ठान ही ले तो
कोई सरकार, कोई यातायात पुलिस या.....
१०८ एम्बुलेंस क्या मदद कर पायेगी...???/.
ऊपरवाला सदबुद्धी दे इन " जांबाजों " को........
बहादुर नौजवानों घर पर कोई तुम्हारा इन्तजार कर रहा है...
ऐसे उनके दिल मत दुखाओ...
जिन्दगी एक ही मिलती है ......ऊपरवाला दूसरा चांस नहीं देता.
जय हो इधर भी यही हाल है। इस हाल में आज तो ट्रेफिक पुलिस भी गायब थी पीली बत्ती जला कर!
jai ho, maananaa padega abhishek ji ki nazar ko
इसे क्या कहा जाए ..
कितनी सस्ती मानकर चल रहे हैं यह जिन्दगी को या कौन जाने, क्या मजबूरी है.
छायाचित्रकार की नज़र की दाद देता हूं, लेकिन आपकी टिप्पणी से सहमत नहीं हो पा रहा हूं. इस तरह लटक कर 'खतरों का खिलाड़ी' बनना इन लोगों का शौक नहीं है, मज़बूरी है. वैसे, यह बात अपनी टिप्पणी के शुरू में इंगित कर भी चुके हैं, कि चुनाव की वजह से ज़्यादातर बसें सरकार ने हथिया रखी हैं.
हर जगह यही होता है, बिहार से आने वाली ट्रेनो को भी आपने देखा ही होगा।
तुम्हारे ब्लॉग पर अपने बीते हुए दिन फिर से जीने का मौका मिल रहा है. काश हमारे ज़माने में भी ये ब्लोगिंग होती? तो हमारी आधी स्टोरियाँ सब एडिटर का सामान बन कर नहीं रह जाती. आपके आभिषेक जी भी इस दर्द पर कुछ रौशनी डाल सकते है.
आप सब के लिए (राहुल सेन)
मजबूरी या मगरूरी ! चलती बस में अंदर घुस जाना निश्चित ही मगरूरी है.
यह स्टंट केवल जयपुर की सड़कों पर ही नहीं होता...यह पूरे देश की ही कहानी है...क्योंकि सभी राज्य सरकारों का अटूट विश्वास है कि लोगों को लोकल सवारी की ज़रुरत ही नहीं होती.
जिंदगी इसी का नाम है..जब शासन जनता की ना सोचे तब ये मजबूरी ही जिंदगी बन जाती है
abhishek ji ki painee nazar aur aapki lekhani bhai vah!
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