Friday, October 19, 2007

हनुमान चालीसा पर इश्‍क पहली बार देखा


यशराज बैनर की नई नवेली फिल्‍म लागा चुनरी में दाग देखने का मौका मिला। फिल्‍म में कई चीजें हैं, जो पचाए नहीं पचती। मसलन मैंने पहली बार देखा कि हनुमान चालीसा पढते हुए एक लडकी को प्‍लेन में हीरो ने देखा तो वह उसके इश्‍क में इस कदर पागल हो गया कि वह यह जानकर भी कि हीरोइन एस्‍कॉर्ट का काम करती है (फिल्‍म की ही लैग्‍वेज में कहुं तो बनारस की वेश्‍याओं का मुंबईया रूप), उससे शादी को तैयार हो गया।
फिल्‍म की कहानी रानी मुखर्जी यानी बडकी के आसपास ही चलती है। बडकी की एक बहन है छुटकी (कोकणा सेन) और मां (जया बच्‍चन) और पिता रिटायर्ड लेक्‍चरर अनुपम खेर। फिल्‍म की शुरुआत से ही रोना धोना मध्‍यमवर्गीय परिवार का वही किस्‍सा कि कमाने वाला घर में बीमार हो जाए और परिवार में और कोई पुरुष न हो तो क्‍या होता है। बेटा बनकर पिता के सारे अरमानों को पूरा करने और बहन की एमबीए की पढाई पूरी हो जाए इसे ध्‍यान में रखकर दसवीं पास रानी मुखर्जी मायानगरी मुंबई निकल पडती हैं। वही परेशानियों का पुलंदा और इस बीच सुंदर रानी को देखकर नजर फिसली और नौकरी देने के लिए कास्टिंग काउच सरिका प्रस्‍ताव। रानी अपने ‍परिवार और पिता की खातिर तैयार हो जाती है, चुनरी मे दाग भले ही लग जाता, लेकिन रानी को नौकरी नहीं मिलती।
इसके बाद मुंबई में किसी की सलाह और परिवार की लाज के लिए रानी एस्‍कॉर्ट बिजनेस में कूद जाती है, और खूब पैसा कमाती है। उसकी मां सावित्री को यह बात पता होती है। पढाई पूरी होने के बाद छुटकी भी मुंबई आ जाती है और ऐड एजेंसी में नौकरी करने लगती है।
इसके बाद पर्दे पर रोना धोना कुछ कम होता है। कुनाल कपूर एजेंसी के क्रिएटिव डायरेक्‍टर के रूप में अच्‍छा अभिनय करते दिखाई देते हैं। दोनों की पटरी बैठ जाती है और शादी की तैयारी हो जाती है। बडकी भी छुटकी के शादी के लिए जब बनारस जाती है तो वहां उसकी फिर मुलाकात होती है अभिषेक बच्‍चन से जो कुनाल कपूर यानी विवान का बडा भाई होता है। अभिषेक और रानी विदेश में पहले ही मिल चुके होते हैं और एक और शादी की तैयारी होती है। और वही बेवकूफी जिससे एक अच्‍छी खासी हिंदी फिल्‍म का कचरा हो जाता है। रानी और अभिषेक की शादी हो जाती है। जबकी अभिषेक को रानी क्‍या करती है यह जानकारी पहले से होती है। फिल्‍म के गाने सुनने लायक है और हेमामालिनी भी दो बार पर्दे पर आती हैं। बहुत समय बाद कामिनी कौशल को भी देख सकते हैं।

फोकट की सलाह
कुल मिलाकर सभी ने एक्टिंग ठीक की है, लेकिन फिल्‍म में रोना धोना इतना ज्‍यादा है कि सहन नहीं होता, फिल्‍म जरूरत से ज्‍यादा स्‍लो है और एक फ्रेम के जाने से पहले ही दर्शक यह अंदाजा लगा लेता है कि अगला सीन क्‍या होगा। यशराज की टीम ने कहानी पर थोडा अच्‍छा काम किया होता तो पिफल्‍म चल सकती थी यूं भी फेस्टिव सीजन में रोना धोना कौन बर्दाश्‍त करता। एक और बात कि भैया पीसीओ से एक रुपए का सिक्‍का डालकर एसटीडी कॉल कैसे हो सकती है किसी को पता हो तो मुझे भी बताना। रानी के कंगाली के दिनों में अक्‍सर वो ऐसे ही फोन करती थी।

(मेरी छीछा लेदर करने वालों से क्षमा चाहता हूं, पिछले पूरे सप्‍ताह आफिस की व्‍यस्‍तता के चलते मैं प्रकट नहीं हो सकता)

10 comments:

kamlesh madaan said...

आपको एक सलाह दूंगा कि अगर आप (बनारस की वेश्याओं) वाल शब्द निकाल दें क्योंकि फ़िल्म में वो वेश्या मुम्बई में बनती है न कि बनारश में शायद इस बात पर किसी को एतराज हो जाये.

Udan Tashtari said...

हफ्ते भर बाद ही सही-भये प्रकट कृपाला-आईये. अच्छी समीक्षा कर दी.

सुजाता said...

ओह ! अच्छा किया बता दिया । मैने इस फ़िल्म को देखने का मन बना लिया था । पर मानव का जिग्यासु मन ! अब कचरा कितना है और आपकी समीक्षा कितनी ठीक है यह जानने की जिग्यासा फ़िल्म दिखाएगी शायद ।:)

Sagar Chand Nahar said...

राजीवजी
अच्छी समीक्षा कि आपने।
एक और बात कि भैया पीसीओ से एक रुपए का सिक्‍का डालकर एसटीडी कॉल कैसे हो सकती है किसी को पता हो तो मुझे भी बताना। रानी के कंगाली के दिनों में अक्‍सर वो ऐसे ही फोन करती थी।
कई जगहों पर रिलायंस और हच के पीसी ओ हैं जिसमें एक रुपये के एक के बाद एक सिक्के ( एक सिक्का नहीं) डाल कर एस टी डी की जा सकती है।
हमारे यहाँ हैदराबाद मे में तो ऐसे बहुत से पीसी ओ हैं।

Anonymous said...

जब तक फोन सेवा सरकारी थी एक रूपैये में बात नहीं होती थी, अब सम्भव है. हालाकि फिल्म में क्या दिखाया है, देखने पर ही पता चले.

कुछ भी लिखो महिलाओं को यशराज की फिल्मे देखने से नहीं रोका जा सकता. :)

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

अरे यार मैं तो फिल्म देखने का प्रोग्राम बना रही थी, आपने सही सलाह दी है अब नहीं जा रही हैं। रोना-धोना अपुन का डिपार्टमेंट नहीं है।

राजीव जैन said...

@ मदान साहब
कहानी बनारस की थी और पिफल्‍म में इस वाक्‍य का कम से कम तीन बार प्रयोग होता है। रानी मुखर्जी खुद अभिषेक के प्रपोज करने पर यही कहती है कि मैं एस्‍कॉर्ट का काम करती हूं, यूं कहो कि बनारस की वेश्‍याओं का मुंबई में सोफेस्टिकेटेड रूप। इसलिए मुझे नहीं लगता बवाल जैसा कुछ है। कुछ होना ही था तो बनारस वाले अब तक फिल्‍म का हुलिया बिगाड चुके होते।
वैसे कायदे से मुझे इस तरह की मगजमारी से बचना चाहिए था, सलाह के लिए शुक्रिया आगे ध्‍यान रखूंगा।

ePandit said...

हा हा मजेदार समीक्षा, खासकर अन्तिम पैराग्राफ फोकट की सलाह वाला। :)

manglam said...

पैनी नजर से फिल्म देखना और फिर हम जैसे लोगों को इससे रूबरू करने का प्रयास काबिलेतारीफ है। टिप्पणी बिना लाग-लपेट के अच्छी बन पड़ी है। साधुवाद

cma said...

achhi samiksha kar lete hai sir aap. waise yai film director kuch naya kyo nahi late wahi purani kahani dekhte dekhe log shayad thak gayai hoge isliye box office pe movie chal nahi pai.
movie bole to ya to enjoyment kai liye ho ya phir kuch sikhne ke liye aur isme dono hi baat ki kami thi.
ha special complement aapke liye ab to reporting kai maidan mai aa hi jaiye
best wishes