Tuesday, December 18, 2007

बुक फेयर है या सब्‍जी की दुकान


गाली देने का मन नहीं था। पर आज ही बुक फेयर जाकर आया। किताबें तो एक आध ही खरीदी क्‍यूंकि अभी थोडे दिन पहले ही लगे एक बुक फेयर से इस साल के बजट की किताबें खरीद चुका था। अब ये ब्‍लॉगिंग का ऐसा चस्‍का लगा है कि वो भी पढी नहीं जा रहीं।
इस बार गौर किया तो बुक फेयर में कुछ अलग सा सीन देखा, चुनींदा प्रकाशक ही आए थे। यहां तक तो ठीक था पर लोगों की भीड भी सिर्फ वहीं थी।
जहां लिखा था किताबे इतनी सस्‍ती की आप भी अचंभा कर जाएं। लूट सको तो लूट।







आक्‍सफोर्ड की 350 रुपए वाली डिक्‍शनरी सिर्फ 100 रुपए में। 25 रुपए ईच या सेल ओनली 50 रुपए ईच। थ्री इन 50 रुपए ओनली।

पूरे दिन में सोचता रहा कि लोग पसंद की किताब खरीदने जाते हैं या भाजी की तरह रेट देखकर किताबें छांटते हैं। दिल्‍ली में दरियागंज में लगने वाले संडे बाजार में खूब घूमा, वहां से छांटकर काम की किताब भी दो पांच बार लाया। पर इस तरह खरीददारी का अनुभव कम से कम मुझे तो नहीं था।
मैं सोचता रहा कि अगर किताब का लेखक इस तरह किताबों की बेइज्‍जती देखे तो शायद लिखना बंद कर दे।
अपन का तो दुबारा जाने का मन नहीं है, पर आप चाहें तो 23 दिसंबर तक अंबेडकर सर्किल पर जाकर नजारा खुद देख सकते हैं।

3 comments:

अनिल रघुराज said...

किताबें भी एक उत्पाद हैं और आगे वो बिकेंगी भी इसी अंदाज में। मुझे लगता है किताबों को रामायण और गीता या बाइबिल और कुरान की तरह पवित्र समझना ठीक नहीं है। ये सारी भी तो महज किताबें हैं।

Sanjeet Tripathi said...

काऊंटर पर जब बिकने आई हैं तो किताब क्या और सब्जी क्या।
बेचना है तो अलग फंडे रखने ही होंगे।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

किताबों के साथ ऐसे सुलूक पर आपकी पीडा के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी मैं आपसे थोडी असहमति की अनुमति चाहता हूं. अंग्रेज़ी किताबों के व्यवसाय में होता यह है कि प्रकाशक एक बार किताब को बेच कर जब भरपूर मुनाफा कमा लेता है तो वह बची-खुची प्रतियों (व्यवसाय की शब्दावली में रिमेण्डर्स) को औने-पौने दामों में बेच देता है. अभी पुस्तक मेले में हम जो ढेर देख रहे हैं वे रिमेण्डर्स के ही ढेर हैं. इस व्यवसाय में विक्रेता तो क्लियरेंस कर लेता है, और हम-आप जैसे पाठकों को महंगी किताब कम कीमत पर मिल जाती है. मुझे तो यह ठीक ही लगता है. मेरे मन में तो बल्कि सवाल यह है कि हिन्दी प्रकाशक ऐसा क्यों नहीं करते? अगर पंकज राग की धुनों की यात्रा (मूल्य 1000) इसी तरह 200-300 में मिल जाए तो कितना मज़ा आए? लेकिन हिन्दी पुस्तक व्यवसायी ऐसा नहीं करता. वह तो पुरानी कीमत पर नई चिप्पी लगाकर उसे दाम बढाकर बेचता है. चिप्पी या 'संवर्धित मूल्य' की रबड स्टैम्प. भारतीय ज्ञानपीठ की दस रुपये वाली किताब पर सौ रुपये की चिप्पी आम है. आप इसे क्या कहेंगे? यह अच्छा है या अंग्रेज़ी किताबों के विक्रेताओं का उन्हें घटी दर पर