Wednesday, February 13, 2008

आज का युवा क्‍या करे, क्‍या न करे


आज का युवा दुराहे पर खडा है। उसके साथ बडी समस्‍या है कि अगर वो पुराने रीति रिवाज और नियमों में बंधा है तो उसे आउटडेटेड या कमजोर समझा जाता है और पढाई को छोड बाकी सारे काम करे, मौज मस्‍ती करे तो वह मेटोसेक्‍सुअल यूथ है। क्रिकेट नहीं देखे तो प्रॉब्‍लम, फिल्‍म के बारे में जानकारी न हो तो अपने ही दोस्‍तों के बीच हंसी का पात्र। गर्लफ्रेंड नहीं हो तो सोसायटी में इज्‍जत नहीं।

25 साल तक बेरोजगारी और पढाई के दौरान में पता नहीं वह क्‍या-क्‍या करता है। सिर्फ पेट के लिए यानी नौकरी के खातिर। उसके अलावा किसी की याद आती है तो बस लडकियां, क्रिकेट या फिल्‍में। अब किसके पास फुर्सत की वह प्रेम‍ दिवस यानी वेलेंटाइन डे को छोड प्रेमचंद की पूस की रात पढे या ओबामा की वोटिंग परसेंटेज पर दिमाग लगाए।
मसलन अपनी ही बात करुं, मैं भी युवा ही हूं। जिंदगी के 21 साल तक कोर्स की किताब या कॉम्‍पीटिशन की तैयारी के लिए कुछ एक दूसरी किताबों को छोड शायद ही कुछ और पढा हो। वो तो शुक्र था कि छठी क्‍लास से ही रेग्‍यूलर लाइब्रेरी जाता रहा। वर्ना पता चलता कि आज अपन भी बेरोजगारों की भीड में खडे हैं।
लाइब्रेरी में अखबार के बाद इंडिया टुडे, प्रतियोगिता दर्पण या विज्ञान प्रगति को छोड कुछ और नहीं पढता। कई बार याद है कि छोटे होने के नाते मुझसे बडे उम्र के लोग प्रतियोगिता दर्पण मांगकर बालहंस और सुमन सौरभ पढने की सलाह देते। हां बस कई बार चोरी छिपे गृहशोभा जरूर उठा लेता था ( बच्‍चों को गृहशोभा पढने से लाइब्रेरियन रोकता था)
पहली बार उपन्‍यास या कोई और किताब मैंने स्‍वतंत्र रूप से पत्रकारिता में आने के बाद एक वरिष्‍ठ साथी की राय पर सुरेद्र वर्मा की “मुझे चांद चाहिए” पढी। उसके बाद मुझे ऐसी धुन सवार हुई कि पत्रकारिता में शुरुआती दो तीन साल में 20 25 प्रमुख किताबें पढ डाली। अब हर साल बुक फेयर से न न करते भी दस बारह किताबें तो ले ही आता हूं। पर ये ब्‍लॉगिंग के चस्‍के ने चार घंटे तो नेट पर ही बैठने को मजबूर कर दिया।

खैर इन सबके बाद मैं देखता हूं तो लगता कि मेरे बाद पत्रकारिता में आने वाले या दूसरे युवा साथियों की हालत तो मुझसे भी ज्‍यादा खराब है। कई बार खुद को साइंस का स्‍टूडेंट मानकर सोचता हूं कि शायद मुझे हिंदी साहित्‍य की इतनी जानकारी नहीं है, तो चलेगा। पर शायद मेरा यह रवैया भी ठीक नहीं।
कई बार जब हिंदी साहित्‍य, संस्‍कृत या इतिहास से जुडा मामला खोजना होता है तो विकिपीडिया या गूगल ही आखिरी समझदार साथी होता है। मसलन अभी समस्‍या सामने आई कि हिंदी महीनों के हिसाब से कौनसी रितु कब आती है। कई लोगों से पूछा किसी को ठीक से जानकारी नहीं थी। वो तो भला हो विकिपीडिया का कि वहां सब कुछ है, वर्ना ये भी नहीं पता चलता कि बसंत पंचमी जरूर आ गई पर बसंत का मौसम तो मार्च अप्रैल में आएगा। इसलिए अब कई बार लगता है कि जो 21 साल तक पढा वो शायद कहीं काम नहीं आ रहा और यूं रस्‍ते चलते जो सबक सीखे थे वो व्‍यावहारिक जिंदगी में ज्‍यादा उपयोगी साबित हो रहे हैं।

3 comments:

Ashish Maharishi said...

हमें खुद ही रास्‍ता तलाश करना होगा

Unknown said...

बढ़िया लिखा है. युवा की समस्या को उजागर किया. पर पढने वाले आज भी कम नही है.

अजित वडनेरकर said...

चिन्ताएं अच्छी लगीं। आज के युवा के लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद को अपडेट रखने की है। फैशन,फिल्मी ज्ञान और पिज्जा बर्गर वाले अपडेट से ऊपर उठकर अपने आसपास, दुनिया के बारे में जानने की ललक होनी चाहिए। मुझे ताज्जुब होता है कि पढ़ेलिखे लोग भी जब नक्शे में ग्रीस जैसे देश की स्थिति नहीं बता पाते । सेंट हेलेना की तो बात ही क्या। कला, साहित्य, धर्म ,समाज के बारे में भी जिज्ञासा नहीं है। बहुत जल्दी मे , उचाट मन से सब कुछ करने की बेताबी।
ज्ञान तसल्ली भी देता है और भरोसा भी।