रात की ही बात थी, आफिस से घर लौटकर बस यूं ही आरकुट पर मैसेज चैक कर रहा था। इसी बीच एक मित्र के फोटो एलबम पर नजर पडी। बात पर्सनल है और उससे भी ज्यादा वो फोटो जो अब दुबारा इस तरह किसी भी कीमत पर खींचा भी नहीं जा सकता। इस एक फोटो से आप मीडिया की भागदौड को साफ अनुभव कर सकते हैं।
अब सुनिए कहानी, फोटो में कुर्सियों पर बैठे लोगों को छोड ( फोटो में एक जयपुर की राजकुमारी हैं) बाकी सारे लोग आज उस संस्थान में नहीं है, जहां का यह फोटो है। यूं तो इस फोटो वाले दिन मैं खुद भी उसी टीम का हिस्सा था, इत्तेफाक से फोटो खिंचते समय मौके पर नहीं था। मैं खुद भी एक बार नौकरी बदल चुका हूं।
अब उस फोटो में राजकुमारी दीया को छोड 12 पत्रकारों में से समूह संपादक और तीन दूसरे वरिष्ठ साथी ही उसी संस्थान में हैं। बाकी अब दूसरी जगह नौकरी कर रहे हैं ( दाएं से चौथे, मेरे मित्र प्रवीण गौतम का सडक दुर्घटना में निधन हो गया।) वैसे उसी संस्थान में बचे हुए सभी लोगों का भी अपनी अपनी जगह से तबादला हो चुका है। यानी बदलाव तो सौ फीसदी है।
और तो और इधर उधर हुए लोगों में से आधे लोग तो इस दौरान दो बार नौकरी बदल चुके हैं। यानी कारण कुछ भी हो आदमी बदलाव चाहता है।
शायद सभी को पता है कि बहता पानी, ठहरे हुए से ज्यादा पवित्र माना जाता है!
6 comments:
राजीव जी, आप की पोस्ट की आखिरी पंक्ति में आपने लोगों की धारणा व्यक्त की है.....बहता पानी, ठहरे हुए पानी से ज़्यादा पवित्र माना जाता है....आप की बात ठीक है।
इस चेंज के बारे में मेरी धारणा यही है कि माना कि चेंज प्रकृत्ति का अटल नियम है। लेकिन मीडिया में यह जो इतना फेरो-बदल हो रहा है, उस का कारण मेरे विचार में यही है कि पत्रकार भाई लोग भी अच्छी भौतिक सुविधाओं की तलाश में हैं....वैसे देखा जाये तो हों भी क्यों ना.....वे भी तो हाड-मास के पुतले हैं....मुझे कभी यह समझ में नहीं आया कि समाचार-पत्रों की पांचों उंगलियां देशी घी में धँसी होते हुये भी वे पत्रकारों को आखिर क्यों खुश नहीं रख पाते......क्यों हम लोग उन्हें बढ़िया पैकेज नहीं देते. वैसे कभी कभी यह भी लगता है कि यह प्रोफैशनल सैटीस्फैक्शन के लिये किया गया चेंज भी ज़्यादातर ढकोंसला ही होता है.....इस के पीछे सब का सपना मनी-मनी ही होता है....और मैं इस में बिल्कुल बुराई नहीं मानता हूं।
एक पत्रकार को अलग हम अंधे की आँखे, बहरे के कान और गूंगे की जुबान कहते हैं तो उस की मूलभूत ज़रूरतों का भी तो मीडिया ध्यान रखे.....क्या ए.सी में सोना इस देश में चंद लोगों के ही नसीब में है, गाड़ीयों में घूमना क्या ज़्यादातर पत्रकारों के नसीब में नहीं है.....मैंने कईं लोगों को कहते सुना है कि पत्रकारों का वेतन कम होने की वजह ही से इन को कईं बार आय के दूसरे साधन तलाशने पड़ते हैं.....आप को तो सब पता ही होगा...लोग तो इस में से एक साधन कईं बार ब्लैक-मेलिंग भी कहती है।
जर्नलिज़्म एवं मास-कम्यूनिकेशन में पीजी डिग्री करते समय जब हमारे प्रोफैसर साहब कहा करते थे कि डिग्री करने के बाद साढ़े-तीन चार हज़ार की सर्विस पा लेना कोई मुश्किल काम नहीं है तो व्यक्तिगत रूप में बड़ा दुःख हुया करता था...मैं सोचने लगता कि यार, इस देश में डैमोक्रेसी के चौथे स्तंभ के कर्णधारों का क्या यह हाल होगा।
टिप्पणी कुछ ज़्यादा ही लंबी हो गई है.....लेकिन क्या करूं...आदत से मजबूर हूं....आशा है कि आप क्षमा करेंगे।
जाते जाते यही कहूंगा कि मीडिया को पत्रकारों की अच्छी देखभाल करनी चाहिये.....they need to be handled with utmost care, with lot of dignity and respect because these noble souls are the carriers of any development process whatsoever....मैं बहुत बार कह रहा हूं कि डाक्टर के कहे को तो 40-50 लोग शायद सुनते होंगे लेकिन किसी कलम के खिलाड़ी पत्रकार की बात को तो लाखों लोग बड़ी तन्मयता से पढ़ते हैं, आत्मसात करते हैं और संजो कर रखते हैं। लेकिन कुछ मीडिया हाउसों को इस से कुछ खास लेना देना होता नहीं....मैंने सुना है कि जो लोग इन के लिये विज्ञापन जुटाते हैं वही इन के लिये खबरें भी लिख कर भेजते हैं। अब अगर स्तर यही है तो फिर इन के आगे प्रशिक्षित जर्नलिस्ट कहां टिक पायेंगे.......क्या करें वे चेंज-ओवर ना करें तो क्या करें !!
बहते पानी की पवित्रता को कौन झुठला सकता है. बहुत उमदा लेखन. अब हमारी सुनिये:
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा भी शुरु करवायें तो मुझ पर और अनेकों पर आपका अहसान कहलायेगा.
इन्तजार करता हूँ कि कौन सा शुरु करवाया. उसे एग्रीगेटर पर लाना मेरी जिम्मेदारी मान लें यदि वह सामाजिक एवं एग्रीगेटर के मापदण्ड पर खरा उतरता है.
यह वाली टिप्पणी भी एक अभियान है. इस टिप्पणी को आगे बढ़ा कर इस अभियान में शामिल हों. शुभकामनाऐं.
घर की मुर्गी जब दल बराबर भी न समझी जाए टू दूसरो की थाली का घी बन जन ही बहता है बाज़ार ने इस फंदे को इस्तेमाल करने के चांस बहुत सालो बाद दिया है इसलिए कोई पत्रकार कोई मौका नही छोड़ना चाहते
बढ़िया एक्साम्प्ल दिया है राजीव भाई
बहुत सशक्त लेखन.
राजीवजी बहुत पते की बात कही है आपने. आपकी पोस्ट पर प्रवीण जी की पोस्टनुमा टिपण्णी भी बहुत कुछ कह गई.
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